हिन्दु चन्द्र कैलेण्डर के अनुसार, फाल्गुन माह के शुक्ल पक्ष की अष्टमी तिथि से होलाष्टक आरम्भ जाता है। मुख्य होली उत्सव दो दिनों तक चलता है। हालाँकि होली की तैयारी होली के दिन से आठ दिन पहले ही आरम्भ हो जाती है। इस दिन को होलाष्टक के नाम से जाना जाता है तथा इसका आरम्भ शुक्ल पक्ष के दौरान फाल्गुन अष्टमी से होता है। होलाष्टक के इन आठ दिनों के दौरान मथुरा-वृन्दावन के अधिकांश मन्दिरों में होली कार्यक्रम का आयोजन किया जाता है।
उल्लेखनीय है कि, होलाष्टक के समय को विवाह, गृहप्रवेश, मुण्डन, नामकरण एवं विद्यारम्भ आदि अन्य मांगलिक कायक्रमों के लिये अशुभ माना जाता है। हालाँकि, होलाष्टक का प्रभाव उत्तर भारत के कुछ क्षेत्र तक ही सीमित है। व्यास, रावी और सतलज नदी के किनारे के स्थान, जो सभी पंजाब में हैं, और अजमेर का पुष्कर क्षेत्र होलाष्टक से प्रभावित होते हैं। फिर भी उत्तर भारत के अधिकांश लोग, यहाँ तक कि उल्लिखित स्थानों के बाहर रहने वाले भी, इस दौरान किसी भी शुभ समारोह से बचते हैं। दक्षिण भारत में होलाष्टक का प्रचलन काफी कम है।
होलिका दहन एक सामुदायिक कार्यक्रम है जो सड़कों और चौराहों पर किया जाता है। होलाष्टक के पहले दिन लोग होलिका दहन का स्थान चुनते हैं। चुने गये स्थान को गङ्गाजल या अन्य पवित्र नदियों के जल से पवित्र किया जाता है तथा कुछ सूखी लकड़ियाँ एकत्र की जाती हैं और पवित्र स्थान पर रखी जाती हैं। प्राकृतिक रूप से पेड़ों से गिरी सूखी लकड़ियों को इकट्ठा करने का अनुष्ठान अगले आठ दिनों तक जारी रहता है। होलाष्टक के अन्तिम दिन तक इस स्थान पर अच्छी मात्रा में सूखी लकड़ियाँ होती हैं जिनका उपयोग प्रतीकात्मक रूप से राक्षसी होलिका को जलाने के लिये किया जाता है।
हिन्दु धर्मग्रन्थों में प्राप्त वर्णन के अनुसार, होलाष्टक के आठ दिनों तक हिरण्यकशिपु ने भक्त प्रह्लाद को भगवान विष्णु की भक्ति त्यागने हेतु नाना प्रकार से प्रताड़ित किया था। किन्तु भक्त प्रह्लाद निरन्तर भगवान विष्णु की आराधना में लीन रहे। अन्ततः प्रह्लाद जी के प्राणों की रक्षा हेतु भगवान विष्णु ने नृसिंह अवतार धारण कर हिरण्यकशिपु का संहार कर दिया था।