श्रीमद्भागवतमहापुराण के अनुसार भगवान विष्णु के अष्टम अवतार ऋषभदेव हैं। ऋषभ देव के रूप में भगवान विष्णु ने परमहंसों का पथ प्रदर्शित किया है। परमहंस धर्म सभी आश्रमियों के लिये पूजनीय माना गया है। लिङ्गपुराण के अनुसार भगवान ऋषभदेव को भगवान शिव के 28 अवतारों में से एक माना जाता है।
यजुर्वेद सहित विभिन्न धर्मग्रन्थों में भगवान विष्णु के ऋषभदेव अवतार का वर्णन प्राप्त होता है। कुछ विद्वानों के मतानुसार ऋषभदेव ही जैन धर्म के प्रथम तीर्थंकर ऋषभनाथ हैं, किन्तु यह तथ्य विवादित एवं शोध का विषय है।
श्रीमद्भागवतमहापुराण में प्राप्त वर्णन के अनुसार स्वायम्भुव मनु के दो पुत्र थे प्रियव्रत एवं उत्तानपाद। उत्तानपाद के पुत्र ध्रुव हुये। प्रियव्रत का विवाह प्रजापति विश्वकर्मा की पुत्री बर्हिष्मती से हुआ जिनसे उन्हें आग्नीध्र, इध्मजिह्व, यज्ञबाहु, महावीर, हिरण्यरेता, घृतपृष्ठ, सवन, मेधातिथि, वीतिहोत्र एवं कवि नाम के दस पुत्र प्राप्त हुये। इन पुत्रों में कवि, महावीर एवं सवन अत्यन्त योग पारायण थे तथा उन्हें अपने पूर्वजन्म का सम्पूर्ण वृत्तान्त ज्ञात था। राजा प्रियव्रत ने पृथ्वी को सात द्वीप में विभाजित करके शेष सात पुत्रों को शासन हेतु प्रदान कर दिया, जिसमें आग्नीध्र को जम्बूद्वीप, इध्मजिह्व को प्लक्षद्वीप, यज्ञबाहु को शाल्मलद्वीप, हिरण्यरेता को कुशद्वीप, घृतपृष्ठ को क्रौंचद्वीप, मेधातिथि को शाकद्वीप तथा वीतिहोत्र को पुष्करद्वीप का राज्य प्राप्त हुआ।
कालान्तर में आग्नीध्र के नौ पुत्र हुये जिनके नाम नाभि, किम्पुरुष, हरिवर्ष, इलावृत्त, रम्य, हिरण्वान, कुरु, भद्राश्व तथा केतुमाल थे। आग्नीध्र ने जम्बूद्वीप को नौ भागों में विभक्त कर अपने पुत्रों को सौंप दिया। अपने पिता आग्नीध्र के देहत्याग के उपरान्त नाभि आदि भ्राताओं ने मेरुदेवी, प्रतिरूपा, उग्रदंष्ट्री, लता, रम्या, श्यामा, नारी, भद्रा तथा देववीति नाम की नौ कन्याओं से विवाह कर लिया जो मेरु की पुत्रियाँ थीं।
आग्नीध्र के पुत्र नाभि को हिमवर्ष जिसे वर्तमान में भारतवर्ष कहते हैं का शासन प्रदान किया था। राजा नाभि का विवाह मेरुदेवी से हुआ था। नाभि एवं मेरुदेवी की कोई सन्तान नहीं थी। अतः उन दोनों ने पुत्र प्राप्ति की कामना से भगवान यज्ञपुरुष का विशुद्धभाव से यज्ञ किया। पूर्ण विधि-विधान एवं श्रद्धापूर्वक किये गये यज्ञ से भगवान विष्णु प्रसन्न हुये तथा यज्ञ मण्डप में प्रकट हुये। राजा नाभि का यज्ञ करवा रहे ऋत्विजों ने विभिन्न पदार्थों द्वारा नाना प्रकार से भगवान विष्णु का पूजन एवं स्तुति की। ऋत्विजों ने स्तुति करते हुये कहा - "हमारे यजमान राजर्षि नाभि आपके समान सन्तान प्राप्त करने हेतु आपकी आराधना कर रहे हैं। हे प्रभो! आप भक्तों के बड़े-बड़े मनोरथ सिद्ध करते हैं। हम मन्दमतियों ने कामना के वशीभूत होकर इस तुच्छ कार्य हेतु आपका आवाहन किया है। हमें क्षमा करते हुये हमारे यजमान की इच्छा पूर्ण करने की कृपा करें।"
नाभि के ऋत्विजों द्वारा की गयी प्रार्थना से प्रसन्न होकर भगवान श्री विष्णु ने करुणा करते हुये कहा - "ऋषिगणों! यह तो अत्यन्त असमंजस का विषय है। आपने मुझसे अत्यन्त दुर्लभ वर की कामना की है क्योंकि मैं अद्वितीय हूँ अर्थात् मेरे समान मात्र मैं ही हूँ। किन्तु मैं ब्राह्मणों के वचन को मिथ्या नहीं होने दूँगा। अतः मैं स्वयं ही अपने अंश से आग्नीध्रनन्दन नाभि के पुत्र के रूप में अवतरित होऊँगा।" इतना कहकर भगवान अन्तर्धान हो गये।
कुछ समय पश्चात् महाराज नाभि का उद्धार करने तथा दिगम्बर सन्यासी एवं ऊर्ध्वरेता मुनियों का धर्म स्थापित करने हेतु अपने कथनानुसार भगवान श्रीविष्णु महारानी मेरुदेवी के गर्भ से प्रकट हुये। नाभिनन्दन के जन्म से ही उनके अङ्गों पर भगवान विष्णु के वज्र, अङ्कुश आदि के चिह्न अङ्कित थे। महाराज नाभि ने अपने पुत्र की सुन्दरता, कीर्ति, बल आदि गुणों के कारण उसे ऋषभ नाम प्रदान किया जिसका अर्थ होता है, "वह जो श्रेष्ठ हो"। समता, शान्ति, वैराग्य एवं ऐश्वर्य आदि गुणों से युक्त होने के कारण भगवान ऋषभ की लोकप्रियता में निरन्तर वृद्धि हो रही थी।
एक समय इन्द्र के मन में ऋषभदेव की यश, कीर्ति के कारण ईर्ष्या उत्पन्न हुयी तथा इन्द्र ने उनके राज्य में वर्षा नहीं की। तदुपरान्त भगवान ऋषभ ने इन्द्र का उपहास करते हुये अपनी योग-माया के द्वारा अपने अजनाभखण्ड में मूसलाधार वर्षा करवायी।
ऋषभदेव जी को उनके राष्ट्र की प्रजा, मन्त्री, साधु-सन्त आदि सभी वर्ग अत्यन्त प्रेम करते थे। महाराज नाभि अपनी कामना के अनुरूप पुत्र प्राप्त कर एवं उसका पालन-पोषण करके अत्यन्त हर्षित हुये। उन्होंने ऋषभदेव जी का राज्याभिषेक कर उन्हें ब्राह्मणों के मार्गदर्शन में छोड़ दिया तथा स्वयं अपनी सहधर्मिणी मेरुदेवी सहित बदरिकाश्रम में तपस्या करने हेतु चले गये। बदरिकाश्रम में शान्तिपूर्वक समाधियोग द्वारा भगवान के नर-नारायण स्वरूप का ध्यान करते हुये अन्त समय आने पर उन्हीं के स्वरूप में लीन हो गये।
उधर भगवान ऋषभदेव ने अजनाभखण्ड में कुछ समय तक गुरुकुल में निवास किया। तदुपरान्त उन्होंने गुरुदेव से गृहस्थाश्रम में प्रवेश की आज्ञा लेकर देवराज इन्द्र की कन्या जयन्ती से विवाह किया। भगवान ऋषभ ने देवी जयन्ती के गर्भ से सौ पुत्र प्रकट किये जो गुणों में अपने पिता के ही समान थे। उनके पुत्रों में सबसे ज्येष्ठ एवं अधिक गुणशाली पुत्र भरत जी थे। उन्हीं भरत जी के नाम से अजनाभखण्ड का नाम भारतवर्ष हो गया।
भगवान ऋषभदेव ने स्वयं भगवान विष्णु का अवतार होते हुये भी ब्राह्मणों के उपदेशानुसार विभिन्न देवों को प्रसन्न करने हेतु द्रव्य, देश, काल, आयु, श्रद्धा एवं ऋत्विज् आदि से युक्त सभी प्रकार के सौ-सौ यज्ञ किये। भगवान ऋषभ के शासन में राष्ट्र के किसी भी व्यक्ति के मन में प्रभु की भक्ति एवं प्रेम से इतर कोई अन्य कामना नहीं थी। कोई भी किसी अन्य की वस्तु पर दृष्टि भी नहीं डालता था।
एक समय भगवान ऋषभदेव ब्रह्मावर्त देश में ब्रह्मर्षियों की सभा में पहुँचे तथा प्रजा की उपस्थिति में ही अपने पुत्रों को उपदेश दिया। तदुपरान्त भगवान ऋषभ ने भरत जी को पृथ्वी के पालन का उत्तरदायित्व सौंप दिया तथा स्वयं भक्ति, ज्ञान एवं वैराग्य के रूप में स्थित परमहंस धर्म का ज्ञान प्रकट करने हेतु विरक्त हो गये। उन्होंने केवल शरीर मात्र को रखते हुये वस्त्रों सहित समस्त सांसारिक वस्तुओं का त्याग कर दिया तथा वे सदैव के लिये मौन एवं दिगम्बर हो गये। पागलों के समान स्थिति रखते हुये वे अवधूत वेष में वनों, पर्वतों तथा ग्राम आदि स्थानों पर विचरण करने लगे। जब उन्हें प्रतीत हुआ कि प्रजा उनके योग एवं साधना में विघ्न उत्पन्न कर रही है तथा इसका उपाय केवल विभत्सवृत्ति ही है, तब उन्होंने अजगरवृत्ति धारण कर ली अर्थात् वे लेटे ही लेटे भोजन, मल-मूत्र त्याग आदि करने लगे। तत्पश्चात् इसी भाँति गौ, मृग, एवं काक आदि वृत्तियों से वे रहने लगे तथा इन जीवों की भाँति ही कभी खड़े-खड़े, कभी चलते, बैठते एवं लेटे हुये समस्त नित्य क्रियायें करने लगे। परमहंसों को त्याग का ज्ञान प्रदान करने हेतु भगवान ऋषभदेव ने ऐसी अनेक योगचर्याओं का पालन किया।
अन्ततः योगियों को देहत्याग की विधि का ज्ञान देने हेतु भगवान ऋषभ ने अपनी देहत्याग करने का निश्चय किया। वे समस्त वासनाओं एवं लिङ्गदेह के अभिमान से विरक्त होकर उपराम हो गये तथा मुख में पत्थर का टुकड़ा रखकर दिगम्बर वेष में कोंक, वेंक तथा दक्षिण आदि कुटक कर्णाटक के देशों में विचरण करने लगे। वे कुटकाचल के वन में प्रवेश कर गये तथा दैवयोग से उसी समय झंझावात अर्थात् वायु के तीव्र वेग से बाँसों के घर्षण से भीषण दावाग्नि प्रकट हुयी जिसने सम्पूर्ण वन को अपनी लपटों में घेरकर ऋषभदेव सहित सब कुछ भस्म कर दिया तथा वे ब्रह्मलीन हो गये। इस प्रकार भगवान ऋषभदेव जी का पावन चरित्र सम्पूर्ण होता है।
भगवान ऋषभ के पिता राजा नाभि एवं माता मेरु देवी थीं। ऋषभदेव जी ने इन्द्र की कन्या जयन्ती से विवाह किया था जिनसे उन्हें सौ तेजस्वी पुत्रों की प्राप्ति हुयी थी। ऋषभदेव जी के ज्येष्ठ पुत्र भरत जी थे तथा उनसे छोटे कवि, हरि, अन्तरिक्ष, प्रबुद्ध, पिप्पलायन, आविर्होत्र, दुर्मिल, चमस तथा करभाजन आदि नौ पुत्र शेष नब्बे भ्राताओं से श्रेष्ठ एवं ज्येष्ठ थे।
भगवान ऋषभ देव को एक अवधूत दिगम्बर सन्यासी के रूप में चित्रित किया जाता है। उनके केश बिखरे हुये तथा समस्त अङ्गों की रचना सुकुमार एवं एक समान थी। उनके नेत्र कमलदल के समान तथा भुजायें लम्बी थीं।