ज्योतिष शास्त्र में शनि को अति महत्वपूर्ण ग्रह माना गया है। शनि की भूमिका कर्मफलदाता की है, जिसके कारण वे जीव जगत के लिये अनुकूलता और प्रतिकूलता को प्रत्यक्ष रूप से प्रभावित करते हैं। किन्तु सामान्यतः शनि को लेकर नकारात्मक बातें ही समाज में अधिक प्रचलित हैं। साढ़ेसाती का नाम सुनते ही मन में भय की लहर दौड़ जाती है। यद्यपि शनि सदैव नकारात्मक फल नहीं देते हैं, अपितु वैदिक साहित्य में शनि की व्याख्या "शनि शमयते पापम्" अर्थात् पाप का शमन करने वाले ग्रह के रूप में की गयी है। शनि एक राशि में लगभग ढाई वर्ष रहते हैं। ज्योतिष शास्त्र के अनुसार शनि जिस राशि में रहते हैं, उसकी पिछली राशि तथा अगली राशि पर भी प्रभाव डालते हैं। इस प्रकार शनि साढ़े सात वर्ष तक प्रत्यक्ष शुभ-अशुभ फल प्रदान करते हैं।
उदाहरण के लिये यदि शनि मीन राशि में गोचर कर रहे हैं। तब मीन राशि के साथ कुम्भ राशि और मेष राशि पर साढ़ेसाती का प्रभाव रहेगा। इसी प्रकार धनु राशि और सिंह राशि के ऊपर शनि की ढैया का प्रभाव रहेगा। अर्थात् किसी भी राशि से चतुर्थ और अष्टम भाव में शनि का गोचर हो तो उन पर ढाई वर्ष तक शनि की लघु कल्याणी ढैया प्रभाव डालती है। इसी प्रकार चन्द्र राशि से केन्द्र की राशि अर्थात् चतुर्थ, अष्टम एवं दशम स्थान पर शनि का गोचर भी विशेष शुभ नहीं माना जाता है। शनि का यह गोचर कंटक शनि कहलाता है। ऐसा शनि पारिवारिक विवाद, अशान्ति और आजीविका में हानि को दर्शाता है। साढ़ेसाती के दौरान शनि तीन राशियों पर तीन चरणों में प्रभाव डालता है। इसे हम तीन ढैया से स्पष्ट करते हैं।
इस दौरान शनि का वास सिर पर माना जाता है। द्वादश भाव पर गोचर करते समय शनि का दृष्टि सम्बन्ध द्वितीय, षष्ठम और नवम भाव में होता है। इस अवधि में जातक को व्यय, आर्थिक समस्या, रोग और पारिवारिक तनाव जैसी परिस्थितियों का सामना करना पड़ सकता है। यह एक सामान्य फल है और वास्तविक फल समझने के लिये कुण्डली का अध्ययन महत्वपूर्ण हो जाता है। इस दौरान जातक को अत्यन्त धैर्यवान रहना चाहिये।
द्वितीय ढैया के दौरान शनि उसी राशि में गोचर करते हैं। इस समय मन में निराशा और क्षोभ की भावना बढ़ सकती है। दूसरी ढैया पेट पर अथवा मतान्तर से हृदय पर मानी जाती है। शनि का दृष्टि सम्बन्ध तृतीय भाव, सप्तम भाव और दशम भाव में होता है। जिसके कारण व्यवसाय में हानि, दाम्पत्य कलह और किसी सम्बन्धी के प्रति वियोग से मन व्यथित हो सकता है।
चन्द्र कुण्डली से द्वितीय भाव पर शनि का गोचर साढ़ेसाती की अन्तिम ढैया होती है। इसमें शनि का वास घुटनों के नीचे के भाग पर माना जाता है। इस गोचर के दौरान शनि की दृष्टि चतुर्थ, अष्टम और एकादश भाव पर होती है। इस समय गृह क्लेश, रोग और धन हानि जैसी परिस्थितियों का सामना करना पड़ सकता है। शनि की अन्तिम ढैया अपेक्षाकृत कम हानिकारक होती है। क्योंकि इस दौरान आप शनि के प्रभाव के प्रति अभ्यस्त हो जाते हैं।
साढ़ेसाती के दौरान शनि, जातक को उसके द्वारा किये गये शुभ-अशुभ कर्मों का फल प्रदान करते हैं। ऐसा देखा गया है कि शनि साढ़ेसाती के दौरान न केवल कष्ट देते हैं, अपितु बहुत बड़ी सफलता भी प्रदान करते हैं। शनि धीमी गति से गति करने वाले ग्रह हैं जिसके कारण उनका फल दीर्घकालिक और स्थायी होता है। इसीलिये साढ़ेसाती के फल को लेकर लोगों की धारणा नकारात्मक ही रही है। साढ़ेसाती के दौरान जातक को अपने कर्म शुद्ध और अनुशासित रखने चाहिये। साढ़ेसाती का प्रभाव शुभ है या अशुभ इसका निर्णय करने के लिये जातक की जन्मकुण्डली अवश्य देखनी चाहिये। यदि कुण्डली में शनि पाप पीड़ित, नीचस्थ, मारक और वक्री हों तो साढ़ेसाती के दौरान प्रायः अशुभ फल देते हैं। वहीं यदि शनि योगकारक, शुभक्षेत्री एवं शुभ नवांशस्थ हो तो शुभ फल भी प्रदान करते हैं।