भगवान श्री कृष्ण धर्मराज युधिष्ठिर से कहते हैं, "हे पार्थ! प्राचीनकाल में महोदय नाम का एक वैश्य था। महोदय अत्यन्त सत्य परायण, मृदुभाषी, निर्मल तथा देवताओं एवं ब्राह्मणों का पूजन करने वाला था। उसे विभिन्न प्रकार के पुण्याख्यान श्रवण करना प्रिय था। उसे यदि दैनिक कार्यों से तनिक भी समय मिलता तो वह सत्सङ्ग आदि श्रवण करने पहुँच जाता था। अन्य कार्यों से विचलित होते हुये भी, उसका मन सदैव शास्त्र चिन्तन में लीन रहता था।
एक दिन मार्ग में उसने कुछ ऋषियों को रोहिणी नक्षत्र से युक्त अक्षय तृतीया के महत्त्व का वर्णन करते हुये सुना। वह ऋषि कह रह थे कि, अक्षय तृतीया बुधवार से सँयुक्त होने पर महान अगणित फल प्रदान करने वाली होती है। अक्षय तृतीया के दिन ही नर-नारायण, हयग्रीव एवं परशुराम अवतार प्रकट हुये थे। इस दुर्लभ संयोग के अवसर पर किये जाने वाले दान, हवन, पूजन आदि कर्मों का अक्षय फल प्राप्त होता है। इस दिन देवताओं एवं पितरों के निमित्त जो भी दान, हवन, पूजन, तर्पण किया जाता है, उसका पुण्य कभी क्षय नहीं होता।
ऋषिमुख से अक्षय तृतीया व्रत का माहात्म्य सुनकर वह वैश्य मन ही मन विचार करने लगा कि, यह तो अति उत्तम व्रत है अतः मुझे भी इसका पुण्यलाभ अर्जित करना चाहिये। यह विचार करते हुये महोदय गङ्गा जी के तट पर जा पहुँचा। गङ्गा के परम पवित्र जल से उसने अपने पितृ देवताओं का तर्पण किया। तर्पण करने के पश्चात घर आकर उसने जल से युक्त दो घड़े, खाण्ड अथवा बताशे, लवण, यव (जौ), गोधूम (गेहूँ), दध्योदन (दही व चावल), ईख तथा विभिन्न प्रकार के दुग्ध पदार्थ सामर्थ्य के अनुसार पूर्ण भक्तिभाव से ब्राह्मणों को दान किये।
हे पार्थ! उसकी धर्मपत्नी का मन माया के बन्धन में फँसा हुआ था। अतः वह अपने दानवीर पति को दान आदि कर्म करने से रोकने का पूर्ण प्रयास करती रहती थी। किन्तु महोदय अत्यन्त उदार एवं दयालु प्रवत्ति का होने के कारण निरन्तर धर्म-कर्म आदि गतिविधियों में लीन रहता था। आनन्दपूर्वक जीवन व्यतीत करता हुआ वह वैश्य अन्त में प्रभु का चिन्तन करते हुये सद्गति को प्राप्त हुआ।
हे युधिष्ठिर! आगामी जन्म में महोदय वैश्य ने कुशावतीपुरी नामक स्थान पर क्षत्रिय के रूप में जन्म लिया। उसे इस जन्म में अक्षय सुख-सम्पदा की प्राप्ति हुयी। अपनी सम्पत्ति का सदुपयोग करते हुये उसने महान यज्ञ-हवन आदि सम्पन्न किये तथा श्रेष्ठ दक्षिणा प्रदान की। नाना प्रकार के गौ दान, स्वर्ण दान, अन्नदान तथा विभिन्न पदार्थों का दान किया। निर्धनों, याचको तथा नेत्रहीनों की यथासम्भव सहायता की। इतना दान-पुण्य करने पर भी उसकी सम्पदा का अन्त नहीं हुआ। अपने इस जीवन में भी महोदय ने उत्तम प्रकार के भोगों को भोगा तथा श्रेष्ठ जीवन व्यतीत किया। यह महोदय द्वारा पूर्व जन्म में किये गये अक्षय तृतीया के व्रत का प्रभाव था। उसने अपने पूर्व जन्म में धन-ऐश्वर्य के मोह को त्यागकर निश्वार्थ भाव से दान-पुण्य, हवन आदि सत्कर्म किये, जिनके फलस्वरूप उसे अपने इस जन्म में अक्षय सम्पदा की प्राप्ति हुयी।"
हे पार्थ! इस प्रकार अक्षय तृतीया की कथा एवं माहात्म्य का वर्णन सम्पूर्ण हुआ। अतः इस व्रत का विधान सुनो! - तृतीया के दिन स्नान, भगवान श्री वासुदेव का पूजन तथा देवतर्पण आदि कर्म करना चाहिये। दिन में एक समय ही आहार ग्रहण करना चाहिये। अक्षय तृतीया के दिन यव (जौ) का हवन किया जाता है इस सुअवसर पर कनक सहित जल से पूर्ण घड़े, षड रस अन्न, यव, गोधूम, चणक (चना), सतुआ तथा दध्योदन का दान करना चाहिये। इस व्रत में ग्रीष्म ऋतु में उत्पन्न होने वाले ऋतुफलों आदि का दान करना भी अत्यधिक महत्वपूर्ण माना जाता है।
वैसाख तृतीया एवं रोहिणी नक्षत्र के संयुक्त होने पर भगवान शिव की पूजा-अर्चना की जाती है तथा उदकुम्भदान किया जाता है। ऐसा करने वाला शिवलोक को प्राप्त होता है। घटदान का मन्त्र निम्नलिखित है -
उदकुम्भदान मन्त्र -
एष धर्मघटो दत्तो ब्रह्मविष्णुशिवात्मकः।
अस्य प्रदानात्तृप्यन्तु पितरोऽपि पितामहाः॥
गन्धोदकतिलैमिश्रं सान्नं कुम्भं साक्षिणाम्।
पितृभ्यः सम्प्रदास्यामि अक्षय्यमूपतिष्ठतु॥
जिसका अर्थ है कि, "ब्रह्मा, विष्णु एवं शिव के रूप में इस धर्मघट का मैं दान करता हूँ, इस घटदान से मेरे पितृ एवं पितामह तृप्त हो जायें। मैं गन्धोधक, तिल, अन्न एवं दक्षिणा सहित घट दान कर रहा हूँ। यह दान पितरों हेतु अक्षय हो जाये।"
हे निष्पाप! अक्षय तृतीया के दिन छत्र, जूते, गौ, भूमि, स्वर्ण तथा वस्त्र आदि जो भी भगवान की प्रिय वस्तु दान की जाती है, वह भगवान श्री कृष्ण को समर्पित हो अक्षय हो जाती है। हे प्रिय युधिष्ठिर! मैंने अक्षय तृतीया का सम्पूर्ण माहात्म्य एवं विधान कह डाला है, तुम्हारे मेरे मध्य कुछ गोपनीय नहीं है। इस तिथि पर किये गये जप-तप हवन-यज्ञ, दान-पुण्य कभी नष्ट नहीं होता है तथा देवताओं एवं पितरों के निमित्त पूजन-तर्पण अक्षय फल प्रदान करते हैं। इसीलिये यह अक्षय तृतीया कहलाती है। इस प्रकार भविष्यपुराण में वर्णित अक्षय तृतीया व्रत का विधान सम्पूर्ण हुआ।
विष्णुधर्मोत्तर पुराण में भी अक्षय तृतीया के व्रत का वर्णन प्राप्त होता है। विष्णुधर्मोत्तर पुराण के अनुसार, वैसाख शुक्ल तृतीया के दिन उपवास करने से अक्षय पुण्य प्राप्त होता है। कृत्तिका नक्षत्र से युक्त होने पर इसका प्रभाव अधिक हो जाता है तथा किये गये समस्त शुभ कर्मों का अक्षय फल प्राप्त होता है। पुराणानुसार अक्षय तृतीया के व्रत में भगवान की अक्षत से पूजा-अर्चना की जाती है। जो मनुष्य इस तिथि में तीर्थ जल से स्नान करके, भगवान विष्णु को अक्षत, सत्तू अर्पित करता है तथा सत्तू एवं अक्षत का हवन करके सत्तू व पक्वान्न ब्राह्मणों को अर्पित करता है, वह अक्षय पुण्य फल प्राप्त करता है।
हे भृगुनन्दन! जो उपरोक्त विधान का पालन करते हुये एक भी तृतीया का व्रत का पालन कर लेता है, उसे समस्त तीजों के व्रत का फल प्राप्त होता है। इस प्रकार विष्णुधर्मोत्तर पुराण में वर्णित अक्षय तृतीया व्रत सम्पूर्ण हुआ।"