Search
Mic
Android Play StoreIOS App Store
Ads Subscription Disabled
हि
Setting
Clock
Ads Subscription Disabledविज्ञापन हटायें
X

वट सावित्री कथा | वट सावित्री की पौराणिक कथा

DeepakDeepak

वट सावित्री कथा

वट सावित्री व्रत कथा

सावित्री एवं सत्यवान की कथा

सनत्कुमार निवेदन करते हैं, "हे भगवान शिव! यदि कुलीन स्त्रियों को अखण्ड सौभाग्य, महाभाग्य तथा पुत्र-पौत्र आदि का सुख प्रदान करने वाला व्रत हो, तो कृपा करके उसका वर्णन करें?"

भगवान शिव ने कहा, "मद्र देश में अश्वपति नाम का एक राजा था। अश्वपति अत्यन्त धर्मात्मा, ज्ञानी, वीर तथा वेद-वेदाङ्गों का ज्ञाता था। अति बलशाली एवं समस्त प्रकार के ऐश्वर्यों से युक्त होते हुये भी राजा के जीवन में सन्तान का आभाव था। सन्तान प्राप्ति के उद्देश्य से राजा अपनी धर्मपत्नी सहित विभिन्न प्रकार से तप, पूजा तथा आराधना करने लगा। राजा अश्वपति देवी सावित्री के मन्त्रों का जप करता था तथा उनके निमित्त भक्तिपूर्व आहुति अर्पित करता था। हे सनत्कुमार! राजा की आराधना से देवी प्रसन्न हुयीं तथा कृपा करके उसे वरदान देने हेतु प्रकट हो गयीं। भूः, भुवः, तथा स्वः के तेज से युक्त तथा अक्ष सूत्र एवं कमण्डलु धारण किये हुये सम्पूर्ण सृष्टि में पूजनीय देवी सावित्री के दर्शन कर धन्य-धन्य हो गया। राजा ने देवी माँ को हर्षित हृदय के साथ भक्तिपूर्वक साष्टाङ्ग प्रणाम किया। राजा अश्वपति को दण्ड की भाँति भूमि पर पड़ा देखकर देवी माँ ने कहा, "हे राजन्! मैं तुम्हारी भक्ति से अति प्रसन्न हूँ, अतः इच्छित वर की कामना करें?"

देवी के श्री मुख से यह वचन सुन राजा हर्षपूर्वक बोला, "हे देवि! मैं निःसन्तान हूँ, मेरे कोई सन्तति नहीं है, मैं एक उत्तम पुत्र का वरदान चाहता हूँ। हे जगदम्बा सावित्री! पुत्र के अतिरिक्त मेरी अन्य कोई कामना नहीं है। आपकी कृपा से पृथ्वी पर उपस्थित समस्त दुर्लभ पदार्थ मेरे महल में उपलब्ध हैं। हे महादेवी! सभी सुख-सौभाग्य मुझे आपकी दया से ही प्राप्त हैं। अतः मुझे पुत्र प्राप्ति का आशीर्वाद दें माँ।"

राजा द्वारा इस प्रकार प्रार्थना करने पर देवी सावित्री ने राजा से कहा कि, "हे राजन्! तुम्हारा कोई पुत्र नहीं है किन्तु भविष्य में एक कन्या होगी। वह स्वयं का एवं अपने पति दोनों के कुल का उद्धार करने वाली होगी। हे राजशार्दूल! जो मेरा नाम है उस कन्या का भी वही नाम होगा।"

हे मुनिश्रेष्ठ! राजा को सन्तान प्राप्ति का वर प्रदान करने के पश्चात देवी वहाँ से अन्तर्धान हो गयीं। राजा आनन्दमग्न हो गया। कुछ दिवस व्यतीत होने के उपरान्त रानी ने गर्भ धारण कर लिया तथा पूर्ण समय होने पर प्रसव हुआ। सावित्री का जाप करने के कारण प्रसन्न हो देवी सावित्री ने वरदान दिया था। अतः नवजात कन्या का नाम सावित्री ही रखा गया। उस कन्या के नयन कमल दल की भाँति थे तथा उसके मुखमण्डल पर देवी के समान ही तेज उपस्थित था। जिस प्रकार आकाश में चन्द्रमा की कलाओं में वृद्धि होती है, उसी प्रकार उस कन्या के तेज एवं कान्ति में भी वृद्धि होती थी। वह ब्रह्मा की सावित्री थी, विशाल नयनों वाली देवी लक्ष्मी ही थी, अपनी पुत्री की हेमगर्भ के समान आभा देखकर राजा चिन्तित हुआ। उसकी पुत्री सावित्री के सामान कोई सुन्दर नहीं था, उसके तेज के समक्ष उसे माँगने का कोई साहस ही नहीं करता था। उसका रूप एवं तेज का दर्शन कर सभी राजा स्तम्भित हो गये थे।

एक दिन राजा ने उस कमलनयनी से निवेदित किया, "हे पुत्री! तेरे विवाह का समय आ गया है, किन्तु कोई भी तुझसे विवाह करने हेतु प्रस्ताव नहीं ला रहा है। अतः जो भी गुणवान वर मिले तथा जिसके कुटुम्ब एवं व्यवहार से तुझे आनन्द प्राप्त हो, उससे तू स्वयं ही विवाह कर ले।" यह कहकर वृद्ध मन्त्रियों तथा नाना प्रकार के वस्त्र-अलङ्कारों के साथ पुत्री को भेज दिया।

राजा क्षण मात्र के लिये बैठा ही था कि, उसी समय वहाँ देवर्षि नारद का आगमन हुआ। राजा ने अर्घ्य अर्पण एवं चरण प्रक्षालन कर देवर्षि नारद को आसन ग्रहण कराया। पूजन आदि करके राजा ने देवर्षि नारद से कहा कि, "आपके दर्शन करके मैं पवित्र हो गया हूँ। आपने मुझे पावन कर दिया है।"

राजा देवर्षि नारद से वार्ता कर ही रहे थे कि, उसी समय आश्रम से कमलनयनी सावित्री उन्हीं वृद्ध मन्त्रियों सहित वहाँ उपस्थित हो गयीं। सर्वप्रथम तो सावित्री ने अपने पूज्य पिता जी की वन्दना की, तत्पश्चात् देवर्षि को प्रणाम किया।

सावित्री के दर्शन कर देवर्षि नारद बोले, "हे राजन्! देवगर्भ के समान तेज वाली यह सुन्दरी विवाह योग्य है, अतः तुम इसका विवाह हेतु इसी किसी योग्य वर को क्यों नहीं प्रदान कर रहे हो?" राजा ने उत्तर दिया, "हे मुनिश्रेष्ठ! मैंने सावित्री को इसी कार्य हेतु भेजा था। अभी यह लौट आयी है। इसने अपने पति का चयन स्वयं ही कर लिया है, कृपया आप ही पूछ लीजिये।" देवर्षि नारद के प्रश्न करने पर सावित्री ने उत्तर दिया कि, "हे मुनिश्रेष्ठ आश्रम में द्युमत्सेन का पुत्र सत्यवान् है। मैंने उसका ही अपने पति के रूप में चयन किया है।"

सावित्री के मुख से यह सुनते ही देवर्षि नारद ने कहा कि, "हे राजन्! आपकी पुत्री ने यह अत्यन्त अनुचित कार्य किया है। इसने सत्यवान् के विषय में बिना कुछ ज्ञात किये ही उसका वरण कर लिया। यद्यपि वह अत्यन्त सद्गुणी है, लोकप्रिय है तथा उसके माता-पिता भी सत्यवादी हैं। वह स्वयं भी सदैव सत्य ही बोलता है, इसीलिये सत्यवान् के नाम से विख्यात है। उसे अश्व प्रिय हैं तथा वह मिट्टी के घोड़ों के साथ ही खेलता है। वह चित्र भी अश्व के ही काढ़ता हैं, इस कारण उसका एक नाम चित्राश्व भी है। वह सौन्दर्य एवं सद्गुणों से परिपूर्ण है तथा समस्त शास्त्रों का ज्ञाता है। उसके समान कोई मनुष्य नही है। जिस प्रकार रत्नों से महासागर परिपूर्ण होता है, उसी प्रकार सत्यवान् भी वह समस्त गुणों से सम्पन्न है। किन्तु उसका एक ही दोष उसके समस्त गुणों को न्यून कर देता है कि, एक वर्ष में उसकी आयु क्षीण हो जायेगी तथा वह देह त्याग कर देगा।"

देवर्षि नारद के श्री मुख से यह सुनकर अश्वपति बोल पड़े, "हे पुत्री सावित्री! तेरा कल्याण हो, तू किसी अन्य वर से विवाह कर ले, हे शुभलोचने! यही तेरे विवाह का अनुकूल समय है।"

इस पर सावित्री ने कहा कि "हे तात! मैं मन से भी किसी को नहीं चाहती, जिसका मैं वरण किया है, वही मेरा पति होगा। पहले मन से विचारकर तदोपरान्त शुभ-अशुभ का विचार करना मनुष्य को पीछे करता है। इस कारण मैं मन से भी किसी अन्य पुरुष का वरण नही कर सकती।

सकृज्जल्पन्ति राजनसकृज्जल्पन्ति पण्डिताः।
सकृत्कन्याः प्रदीयन्ते त्रीण्येतानि सकृत्सकृत्॥

अर्थात, राजा की आज्ञा, पण्डित के वचन तथा कन्यादान एक ही बार किया जाता है। सज्जनों की यह तीन बातें एक ही बार होती हैं।

यह ज्ञात कर मेरा मन किसी भी प्रकार से विचलित नहीं होगा। सगुण, निर्गुण, मूर्ख, पण्डित, दीर्घायु तथा अथवा अल्पायु आदि कुछ भी हो परन्तु मेरा पति सत्यवान् ही होगा। चाहे इन्द्र ही क्यों न प्राप्त हो पर मैं किसी अन्य का वरण नहीं करूँगी। अतः आपकी जो इच्छा है कहिये।" यह सुनकर देवर्षि नारद ने कहा, "हे राजन्! सावित्री ने सत्यवान से विवाह करने का दृढ़ निश्चय कर लिया है। अतः आप शीघ्र ही इसका विवाह करके पति के साथ भेज दें।" यह कहकर देवर्षि नारद वहाँ से अन्तर्धान हो गये।

भगवान शिव बोले कि, सावित्री के अचल, स्थिरबुद्धि एवं निश्चल हृदय को देखकर राजा सावित्री तथा नाना प्रकार की धन-सम्पदा सहित वन में निवास कर रहे द्युमत्सेन के समक्ष पहुँचा एवं भेंट की। राजा के साथ वृद्ध मन्त्री एवं कुछ अनुयायी थे। द्युमत्सेन वृद्ध एवं दृष्टिहीन था तथा एक वृक्ष के तले बैठा हुआ था। सावित्री एवंअश्वपति ने उसका चरण स्पर्श किया तथा अपना परिचय देते हुये समीप में ही खड़े हो गये। द्युमत्सेन ने राजा से पधारने का कारण पूछा तथा वन के कन्द-मूल फल आदि से स्वागत-सत्कार किया। तदोपरान्त द्युमत्सेन ने राजा अश्वपति से कुशल-क्षेम समाचार पूछे तो अश्वपति ने कहा कि, "आपके दर्शन मात्र से मेरा मंगल हो गया है। मेरी सावित्री नाम की पुत्री आपके पुत्र से प्रेम करती है। इसने स्वयं ही आपके पुत्र को अपने पति के रूप में वरा है। यह निष्पाप आपके पुत्र को अपना पति स्वीकार कर ले तथा मेरा और आपका सम्बन्ध स्थापित हो यही कामना लेकर मैं यहाँ उपस्थित हुआ हूँ।"

द्युमत्सेन ने कहा कि, "हे राजन्! मैं वृद्ध एवं दृष्टिहीन हूँ। मेरा भोजन कन्द-मूल फल आदि है। राज्य से त्यक्त हूँ। मेरा पुत्र भी वन्य संसाधनों पर ही निर्वाह करता है। आपकी पुत्री वन्यजीवन के कष्टों को कैसे सहन करेगी? भला इसे इन दुखों का अर्थ कहाँ ज्ञात होगा। अतः यही कारण है कि मैं इस विवाह प्रस्ताव को स्वीकार नहीं कर सकता।"

द्युमत्सेन के मन की दुविधा को समझते हुये राजा अश्वपति ने कहा, "मेरी पुत्री ने इन सभी तथ्यों को ज्ञात कर ही सत्यवान् का वरण किया है। हे मान के देने वाले! निःसन्देह आपके पुत्र का सानिध्य मेरी पुत्री को स्वर्ग के समान प्रतीत होगा।" अश्वपति के वचनों को सुन उस द्युमत्सेन राजर्षि ने सावित्री एवं सत्यवान् के विवाह हेतु समर्थन दे दिया। विवाहोपरान्त अश्वपति ने अनेक प्रकार से राजर्षि द्युमत्सेन का अभिवादन किया तथा अपनी राजधानी को प्रस्थान किया।

सत्यवान को पति के रूप में प्राप्त कर सावित्री उसी प्रकार आनन्द विभोर हो गयी जिस प्रकार इन्द्र को प्राप्त कर शची आनन्दित होती है। सत्यवान भी सावित्री को पत्नी रूप में प्राप्त कर अत्यधिक हर्षित एवं आनन्दित हो रहा था। सावित्री के मन में अभी भी देवर्षि नारद द्वारा कहे वचन गुँजायमान हो रहे थे, इसीलिये उसने वटसावित्री व्रत करने का सँकल्प ग्रहण किया। वह दिनों की गिनती करती रहती थी तथा सत्यवान का अन्त समय निकट आने की चिन्ता में गृहस्थ जीवन का आनन्द भी नहीं ग्रहण कर पा रही थी। सावित्री दिन-रात व्रत में ही लीन हो गयी। तीन रात्रि पूर्ण कर पितृ देवताओं का तर्पण किया तथा सास-श्वसुर की चरण वन्दना कर पूजन किया।

तदोपरान्त सत्यवान एक विशाल कठोर कुठार लेकर वन की ओर प्रस्थान करने लगा। किसी अनहोनी की आशंका से सावित्री ने सत्यवान से आग्रह किया कि, "कृपया आप इस समय वन न जायें, यदि जाने के इच्छुक ही हैं, तो मुझे भी साथ आने की आज्ञा दें। इस आश्रम में निवास करते हुये एक वर्ष व्यतीत हो गया है, मैंने आज तक वन का दर्शन नहीं किया, मेरी भी वन भ्रमण की कामना है, हे स्वामिन्! हे मेरे नाथ! मुझे अपने साथ लेकर चलें।"

सत्यवान ने कहा, "हे प्रेयसी! मैं स्वतन्त्र नहीं हूँ! मेरे माता-पिता से आज्ञा ले और यदि वे कहते हैं, तो हे मेरी प्राणप्रिय तू अवश्य ही मेरे साथ वन को चल।" सत्यवान के वचन सुनकर सवित्री सास-श्वसुर के चरणों में प्रणाम करते हुये बोली, "मैं वन भ्रमण करना चाहती हूँ, कृपया मुझे आज्ञा दें, मेरा हृदय अपने पति के साथ वन भ्रमण हेतु अधीर हो रहा है।"

यह सुनकर द्युमत्सेन ने कहा, "हे कल्याणि! आपने व्रत किया है, अतः उसका पारण कर लीजिये, तत्पश्चात वन चली जाना।" सावित्री बोली।, "मैंने यह यह अनुष्ठान कर पूर्ण कर लिया है तथा चन्द्रोदय के उपरान्त भोजन ग्रहण करुँगी। इस समय मेरा मन पति के साथ वन भ्रमण हेतु लालायित है। हे राजन्! मुझे मेरे प्रिय पति के सामीप्य में किसी प्रकार का कष्ट नहीं होगा।"

यह सुनकर द्युमत्सेन ने कहा, "जैसा आपको उचित लगे प्रसन्नतापूर्वक वैसा ही करें।" सावित्री ने सास-श्वसुर की चरण-वन्दना की तथा सत्यवान के साथ वन को प्रस्थान किया।

पति की मृत्यु का समय निकट था, अतः सावित्री निरन्तर उसे ही निहार रही थी। सम्पूर्ण वन विविध प्रकार के सुन्दर पुष्पों से सुसज्जित था। सुन्दर हिरण वायुवेग से यहाँ-वहाँ दौड़ रहे थे। सावित्री इस मनोरम दृश्य को देखते हुये वन में चली जा रही थी, किन्तुे मन में सत्यवान की मृत्यु के विषय में विचार कर भयकम्पित भी हो रही थी। सत्यवान कठिन परिश्रम करते हुये शीघ्रता से लकड़ी तथा फल आदि सञ्चित करने लगा। परम पतिव्रता, महासती सावित्री वट वृक्ष के मूल में बैठी हुयी थी। उसी समय लकड़ी का भार उठाते हुये सत्यवान के मस्तक में पीड़ा होने लगी तथा सत्यवान को भारी कष्ट का अनुभव होने लगा। उसी देह कम्पित होने लगी। वह वट वृक्ष के समीप आकर सावित्री से बोला, "मेरी देह में कम्पन हो रहा है, मेरे मस्तक में पीड़ा हो रही है, ऐसा प्रतीत होता है जैसे मेरे मस्तक में शूल के समान काँटे चुभ रहे हैं। हे सुव्रते! हे प्राणप्रिय! मैं तेरी गोद में विश्राम करना चाहता हूँ।"

सावित्री सत्यवान की मृत्यु के समय से अवगत थी। उसे यह ज्ञात हो गया था कि, काल का आगमन हो गया है, अतः वह उसी स्थान पर बैठ गयी और सत्यवान भी उसकी गोद में मस्तक रखकर शयन करने लगा। उसी क्षण वहाँ एक कृष्ण-पिङ्गल अर्थात काला एवं भूरे वर्ण का व्यक्ति उपस्थित प्रकट हुआ। उसकी देह से तीव्र तेज देदीप्यमान हो रहा था। वह व्यक्ति सावित्री से बोला- छोड़ दे इसे! सावित्री ने प्रश्न किया कि, संसार को भयभीत करने वाले आप कौन हैं? मुझे कोई भी पुरुष भयभीत नहीं कर सकता।

यह सुनकर लोकों में भयङ्कर यम ने कहा, "हे वरारोहे! तेरे पति की आयु समाप्त हो गयी है। इसे अपने पाश में बाँधकर कर ले जाने की मेरी कामना है।" यमराज के मुख से ऐसे वचन सुन सावित्री बोली, "हे प्रभु! मैंने तो यह सुना कि आपके दूत अर्थात यमदूत प्राणी को हेतु आते हैं। किन्तु आपके स्वयं उपस्थित होने का क्या कारण है? "यम ने कहा कि, "सत्यवान अत्यन्त धर्मात्मा तथा सद्गुणी है। अतः वह मेरे दूतों द्वारा ले जाने योग्य नहीं है। इसीलिये में स्वयं ही आया हूँ।" इतना कहते हुये यमदेव ने सत्यवान के शरीर में पाशों के बन्धन में बँधे अगुंष्ट मात्र के प्राण पुरुष को बलपूर्व खींच लिया। तदोपरान्त सत्यवान का शरीर निःश्वास, निष्प्राण, तेज रहित, चेष्टा रहित हो गया तथा यम उसे बाँधकर दक्षिण दिशा की ओर प्रस्थान किया।

Vat Savitri
सावित्री एवं सत्यवान के समक्ष यमराज

अपने पति की मृत्यु से व्याकुल सावित्री भी यम के पीछे-पीछे चल लगी। सावित्री अपने व्रत-नियम आदि से सिद्ध हो चुकी थी एवं परम पतिव्रता थी, अतः यम के पीछे जाना उसके लिये सुलभ था। यम सावित्री को अपने पीछे आता देखा तो कहा, "जा इसका अन्त्योष्टि संस्कार सम्पन्न कर, पति के प्रति जो तेरा कर्तव्य था, वह तूने पूर्ण किया, जहाँ तक जाना सम्भव था वहाँ तक गयी।" सावित्री ने कहा, "जहाँ मेरे पति को ले जाया जाये अथवा वह स्वयं जाये वहीं मैं भी रहूँ, यह सनातन धर्म है। पति प्रेम, गुरुभक्ति, जप-तप तथा आपकी कृपा के फलस्वरूप मैं कहीं नहीं रुक सकती। तत्वदर्शियों ने सात आधारों पर मित्रता बतलायी है, मैं उसी मैत्री की दृष्टि से कहती हूँ ध्यानपूर्वक सुनो!

नानात्मवन्तस्तु वने चरन्ति धर्मं च वासं च परिश्रमं च।
विज्ञानतो धर्ममुदाहरन्ति तस्मात्सन्तो धर्ममाहुः प्रधानम्॥

अर्थात, लोलुप वनवास करके भी धर्म का आचरण नही कर सकते, न ब्रह्मचारी, न सन्यासी हो सकते हैं, बुद्धिमान ज्ञानीजन मात्र धर्म में ही सुख मानते हैं, इसीलिये सन्त धर्म को ही प्रधान मानते हैं। सज्जनों द्वारा स्वीकार्य एक ही धर्म के माध्यम से हम दोनों ने एक ही मार्ग प्राप्त किया है। इसीलिये मैं गुरुकुल वास एवं सन्यास कि इच्छुक नहीं हूँ, इस गार्हस्थ्य धर्म को ही सज्जनों ने सर्वोच्च कहा है।"

यम बोले, हे अनिन्दिते! "तेरे द्वारा कहा प्रत्येक शब्द व्यङ्ग से परिपूर्ण हैं। मैं परम प्रसन्न हूँ, सत्यवान के जीवनदान के अतिरिक्त तुझे जो भी वरदान चाहिये माँग ले, मैं तेरी मनोकामना अवश्य पूर्ण करूँगा।"

सावित्री बोली, "मेरे श्वसुर राज्य विहीन होकर वनवास कर रहे हैं, वह दृष्टि हीन हो गये हैं, उन्हें नेत्र प्राप्त हो जायें तथा वह सूर्य के सामान तेजस्वी एवं बलशाली हों।" यम ने कहा, "जैसे तूने कहा है वैसा ही होगा। मैं आपके मार्ग का परिश्रम देख रहा हूँ, आप अपने आश्रम के लिये प्रस्थान करें।" सावित्री बोली, "आप जहाँ मेरे पति को ले कर चलेंगे, मैं भी वहीं चलूँगी, इसमें मुझे कोई कष्ट नहीं होगा।"

सतां सकृत्सङ्गतमिप्सितं परं ततः परं मित्रमिति प्रचक्षते।
न चाफलं सत्पुरुषेण सङ्गतं ततः सतां संनिवसेत्समागमे॥

अर्थात, सज्जनों के सानिध्य की कामना सभी करते हैं, सज्जनों का संग कभी निष्फल नहीं होता है, अतः सदैव सज्जनों की सङ्गति करनी चाहिये।

यम ने कहा, "आपका कथन मेरे मनोनुकूल, बुद्धि-बल में वृद्धि करने वाला तथा अत्यन्त हितकारी है। हे भामिनि! सत्यवान के जीवन के अतिरिक्त कोई अन्य दूसरा वर माँग लें।"

सावित्री बोली, मेरा दूसरा वरदान यह है कि, "मेरे श्वशुर का छीना हुआ राज्य पुनः उन्हें प्राप्त हो जाये तथा वह धर्म कर्म कभी न त्यागें।" यम ने कहा, "कुछ ही समय में आपके श्वशुर को उसका राज्य प्राप्त हो जायेगा तथा वह कभी धर्म से विमुख नहीं होगा। तेरी मनोकामना पूर्ण हुयी, अब घर को लौट जा, व्यर्थ कष्ट क्यों करती है?"

सावित्री बोली, मुझे ज्ञात है कि, "आपने प्रजा को नियम के बन्धन में बाँधा हुआ है, इसीलिये यम के रूप में विख्यात हैं।

अद्रोहः सर्वभूतेषु कर्मणा मनसा गिरा।
अनागग्रहश्च दानं च सतां धर्मः सनातनः॥

मन, वाणी, अन्तःकरण से किसी से शत्रुता न करना, दान करना, आग्रह का परित्याग करना यह सज्जनों का सनातन धर्म है। इसी प्रकार यह लोक है, यहाँ शक्तिशाली सज्जन मनुष्य शत्रुओं पर भी दया करते हैं।"

यम बोले, "आपके वचन मुझे ठीक उसी प्रकार प्रतीत होते हैं, जैसे प्यासे को जल। सत्यवान के प्राणों के अतिरिक्त जो उचित लगे माँग ले।" सावित्री ने कहा, "मेरा तीसरा वरदान यह है कि, मेरे पुत्रहीन पिता को सौ कुलवर्धक औरस पुत्र प्राप्त हों।" यम ने कहा, "तेरे पिता को शुभ लक्षणों से युक्त सौ पुत्र प्राप्त होंगे। हे भामिनि! तुम्हारी समस्त कामनायें पूर्ण हुयीं, अब लौट जाओ, बहुत दूर आ चुकी हो।" सावित्री बोली, "पति समक्ष मेरे लिये कुछ दूर नहीं है, मेरा मन पति समीप बहुत दूर तक भी पहुँच जाता है।

मुझे कुछ स्मरण हो आया, उसे भी सुनिये, आप आदित्य के प्रति पुत्र हैं, इसीलिये ज्ञानीजन आपको वैवस्वत कहते हैं, आप प्रजा से समान व्यवहार करते हैं, इसीलिये आपको धर्मराज कहते हैं। संसार में व्यक्तियों को स्वयं से अधिक सज्जनों पर विश्वास होता है, इसी कारण सज्जन सभी को प्रिय होते हैं।"

यम ने कहा, "जो जैसा वर्णन किया है, ऐसा मैंने पूर्व में कभी नहीं सुना। मैं तेरे वचनों से अति प्रसन्न हूँ। सत्यवान के जीवन के अतिरिक्त जो कामना हो माँग ले।" सावित्री बोली, "मुझे सत्यवान से ही औरस पुत्र हों, हम दोनों का बलशाली, वीर्यशाली सौ पुत्रों का कुल हो, यही मेरा चतुर्थ वरदान है।" यम ने कहा, "तथास्तु! तेरा और सत्यवान का सौ पुत्रों से युक्त परिवार होगा। अब वापस लौट जायें, बहुत दूर आ चुकी हैं।"

सावित्री ने कहा, "सज्जनों की वृद्धि सदा धर्म में ही रहती है, न तो सत्पुरुष उसमें दुखी होते हैं तथा न ही विचलित होते हैं, सज्जनों का सज्जनों से संग कभी व्यर्थ नहीं होता, उन्हें किसी प्रकार का भय नहीं होता। सन्त ही सत्य से सूर्य को संचालित कर रहे हैं, तप से पृथ्वी को धारण कर रहे हैं। हे राजन्! सत्य ही भूत-भविष्य की गति है। सज्जनों के मध्य सज्जन दुखी नहीं होते। सज्जनों का यही व्यवहार है, सज्जन किसी का कार्य करते हुये किस फल की अपेक्षा नहीं रखते। सज्जनों की कृपा कभी व्यर्थ नहीं जाती, न उनके संग में धन एवं मान का नाश होता है, इसीलिये सज्जन रक्षक होते हैं।"

यम ने कहा, "तेरे द्वारा कहे मनोनुकूल, धर्मानुकूल तथा अर्थयुक्त वचनों को सुनकर तेरे प्रति मेरी भक्ति बढ़ती ही जाती है। अतः हे सच्चरित्रा! और वर माँग।"

सावित्री बोली, "मैंने आपसे औरस पुत्र अर्थात दाम्पत्य सुख के साथ पुत्र का वरदान माँगा है तथा न ही मैंने किसी अन्य रीति से पुत्र प्राप्ति की कामना की है। अतः आप मुझे यह वरदान दें कि मेरा पति जीवित हो जाये, क्योंकि इसके बिना मैं भी मृत समान हूँ। पति के आभाव में मुझे स्वर्ग, श्री, तथा जीवन आदि सुख कुछ नहीं चाहिये। आपने मुझे सौ औरस पुत्रों का वरदान दिया और आप स्वयं ही मेरे पति के प्राणों का हरण कर रहे हैं, इस कारण आपका वरदान कैसे फलीभूत होगा? मैं वरदान माँगती हूँ कि, सत्यवान के प्राण पुनः लौट आयें। ऐसा करने से आपके ही वचन सत्य होंगें।"

यम ने तथास्तु कहकर सत्यवान के प्राणों को पाश से मुक्त कर दिया तथा प्रसन्नतापूर्वक बोला, "हे कुलनन्दिनी! मैंने आपके पति को मुक्त कर दिया है। यह निरोग एवं सिद्धार्थ होगा, आप इसे ले जायें, यह आपके साथ चार सौ वर्ष की आयु प्राप्त करेगा।" सावित्री वट वृक्ष के समीप आ गयी तथा सत्यवान के सिर को गोदी में रखकर बैठ गयी।

भगवान शिव ने कहा, हे ब्रह्मन्! सत्यवान की चेतना लौट आयी और वह बोला, "हे वरारोहे! हे प्राणप्रिय! अभी मैने एक स्वप्न देखा" तदोपरान्त सम्पूर्ण वृत्तान्त उसने सावित्री को सुनाया। सावित्री ने भी यम के साथ हुयी अपनी वार्ता के विषय में सत्यवान को बताया।

द्युमत्सेन अपने पुत्र के आगमन की प्रतीक्षा कर रहा था, किन्तु साँयकाल का समय होते ही वह व्याकुल हो उठा और यहाँ से वहाँ चारों दिशाओं में भागने लगा। द्युमत्सेन पुत्र की खोज में एक आश्रम से दूसरे आश्रम जाता और सभी से प्रश्न करता कि, हम दोनों नेत्रहीनों की लकड़ी, मेरा प्रिय पुत्र चित्राश्व कहाँ गया? तथा हे पुत्र, हे पुत्र कहकर दुखी होने लगा। उसी समय अकस्मात् ही राजा के नेत्र खुल गये एवं उसकी दृष्टि लौट आयी। इस चमत्कार को देखकर आश्रम के द्विजगण बोले, "हे राजन्! आपके तप के फलस्वरूप आपको आपकी दृष्टि पुनः प्राप्त हो गयी है, अतः यह नेत्र प्राप्ति का सङ्केत है कि आपका पुत्र भी शीघ्र ही प्राप्त हो जायेगा।"

भगवान शिव बोले, द्विजगण चर्चा कर ही रहे थे कि, उसी समय सावित्री सहित सत्यवान वहाँ उपस्थित हो गया तथा समस्त ब्राह्मणों एवं माता-पिता को प्रणाम किया। वहाँ उपस्थित द्विजगणों ने प्रश्न किया, "हे शुभानने सावित्री! क्या तुम्हें अपने वृद्ध श्वशुर के नेत्रों की पुनः प्राप्ति का कारण ज्ञात है?"

सावित्री बोली कि, "हे पूजनीय द्विजगणों! मुझे उनकी दृष्टि प्राप्ति का वास्तविक कारण तो ज्ञात नहीं है, किन्तु मेरे पति चिरनिद्रा में लीन हो गये थे, इस कारण विलम्ब हो गया।" सत्यवान बोला, "हे मुनिगणों! यह सब इस सावित्री के व्रत के प्रभाव से ही हुआ है, मुझे कोई अन्य कारण नहीं प्रतीत होता, अतः यह सावित्री के तप का ही शुभ परिणाम है। मैने स्वयं सावित्री के व्रत का यह माहात्म्य देखा है।"

शिवजी बोले, सत्यवान यह कह ही रहा होता है कि, उसी क्षण उसकी राजधानी के प्रधान पुरुषों ने आकर यह सूचना दी कि, "जिस दुष्ट मन्त्री ने आपका राज्य बलपूर्वक छीन लिया था, उसका वध भी उसके मन्त्री ने ही कर दिया। इसीलिये हम आपके समक्ष उपस्थित हुये हैं, हे राज-शार्दुल! अपने राज्य का पालन करने चलें। हे राजन्! आप मन्त्री एवं पुरोहितों द्वारा अपना राज्याभिषेक करवायें।" राजा उनका आग्रह स्वीकार कर उन प्रधान पुरुषों सहित अपने नगर पहुँचा अपने कुल क्रमागत राज्य को प्राप्त कर अति आनन्दित हुआ। सावित्री एवं सत्यवान भी अत्यन्त हर्षित हुये। इसी व्रत के माहात्म्य से सावित्री ने सौ वीर पुत्रों को जन्म दिया। यमराज के वरदान के अनुसार ही सावित्री के पिता के भी परम बलवान सौ पुत्र हुये।

हे ब्रह्मन्! यह हमने इस वट सावित्री व्रत का उत्तम महत्त्व सुना दिया है। इस व्रत के प्रभाव से आयु क्षीण होने पर भी पति जीवित हो उठता है। समस्त स्त्रियों को इस सौभाग्यदायक व्रत को करना चाहिये।"

Kalash
कॉपीराइट नोटिस
PanditJi Logo
सभी छवियाँ और डेटा - कॉपीराइट
Ⓒ www.drikpanchang.com
प्राइवेसी पॉलिसी
द्रिक पञ्चाङ्ग और पण्डितजी लोगो drikpanchang.com के पञ्जीकृत ट्रेडमार्क हैं।
Android Play StoreIOS App Store
Drikpanchang Donation