हिन्दु धर्म ग्रन्थों में प्राप्त वर्णन के अनुसार, समुद्रमन्थन एक अत्यन्त दुर्गम कार्य था। यह कठिन कार्य असुरों की सहायता के बिना सम्भव नहीं था। अतः समस्त देवगण, असुरों के समक्ष यह समझौता करने हेतु गये कि, समुद्रमन्थन से प्राप्त होने वाले सभी दिव्य रत्न देव एवं दानवों में समान मात्रा में वितरित किये जायेंगे। उन रत्नों में दिव्य अमृत भी सम्मिलित था। समुद्रमन्थन से अमृत कुम्भ प्रकट होते ही देवताओं एवं दानवों में अमृत कुम्भ पर एकाधिकार करने हेतु युद्ध होने लगा।
हिन्दु धर्मग्रन्थों के अनुसार, देवताओं ने निरन्तर बारह वर्षों तक दानवों से युद्ध किया। इस युद्ध के दौरान, अमृत कलश को दानवों से सुरक्षित रखने हेतु विभिन्न स्थानों पर ले जाया गया। अमृत कलश को एक स्थान से दूसरे स्थान पर ले जाते समय अमृत की कुछ बूँदें छलककर बारह भिन्न-भिन्न स्थानों पर टपकीं। उन बारह स्थानों में से चार पृथ्वीलोक पर तथा शेष आठ स्वर्गलोक में अवस्थित हैं।
पृथ्वी पर जिन चार स्थानों पर अमृत की बूँदे टपकीं थीं, वे प्रयागराज, नासिक, हरिद्वार तथा उज्जैन हैं। अमृत की दिव्य बूँदों के प्रभाव से पृथ्वीलोक पर स्थित यह चार स्थान अत्यन्त पवित्र एवं दिव्य हो गये हैं। अतः मात्र इन चार स्थानों पर ही कुम्भ मेला का आयोजन होता है।
कथानुसार राक्षसों से अमृत कलश की सुरक्षा करने में, सूर्य, चन्द्र तथा बृहस्पति ने महत्वपूर्ण योगदान दिया था। अतः जिस समय यह तीन ग्रह एक विशिष्ट राशी में विशेष योग का निर्माण करते हैं, उस अवसर पर कुम्भ महापर्व का आयोजन किया जाता है।