गर्भाधान एक महत्वपूर्ण हिन्दु संस्कार है। इस संस्कार का आयोजन एक सौभाग्यशाली और गुणवान सन्तान की प्राप्ति हेतु, गर्भ-धारण के लिये शुभ समय पर किया जाता है। यह हिन्दु शास्त्रों में वर्णित सोलह महत्वपूर्ण संस्कारों में से प्रथम संस्कार भी है। यह संस्कार सुनिश्चित करता है कि गर्भाधान, आकस्मिक क्रिया होने की जगह, शुभ समय पर धार्मिक शुद्धता के साथ एक पूर्व नियोजित शुभ कार्य होना चाहिये। पति-पत्नी का मिलन एक गुणवान और सौभाग्यशाली सन्तान प्राप्त करने के उद्देश्य से होना चाहिये।
टिप्पणी: सभी समय २४-घण्टा प्रारूप में Fairfield, संयुक्त राज्य अमेरिका के स्थानीय समय और डी.एस.टी समायोजित (यदि मान्य है) के साथ दर्शाये गए हैं।
आधी रात के बाद के समय जो आगामि दिन के समय को दर्शाते हैं, आगामि दिन से प्रत्यय कर दर्शाये गए हैं। पञ्चाङ्ग में दिन सूर्योदय से शुरू होता है और पूर्व दिन सूर्योदय के साथ ही समाप्त हो जाता है।
सभी समय अन्तरालों को तीन भागों में वर्गीकृत किया गया है -
नक्षत्र: सभी स्थिर नक्षत्र, रोहिणी (4), उत्तराफाल्गुनी (12), उत्तराषाढा (21), उत्तर भाद्रपद (26), चल नक्षत्र, स्वाती (15), श्रवण (22), धनिष्ठा (23), शतभिषा (24), सौम्य और मैत्रीपूर्ण नक्षत्र, मृगशिरा (5), अनुराधा (17) और लघु नक्षत्र, हस्त (13) गर्भाधान के लिये शुभ माने जाते हैं।
गर्भाधान के लिये अश्विनी (1), पुष्य (8), पुनर्वसु (7) और चित्रा (14) नक्षत्रों को मध्यम माना जाता है।
तिथि: शुक्ल प्रतिपदा (1), शुक्ल द्वितीया (2), शुक्ल तृतीया (3), शुक्ल पञ्चमी (5), शुक्ल सप्तमी (7), शुक्ल दशमी (10), शुक्ल द्वादशी (12), शुक्ल त्रयोदशी (13), कृष्ण प्रतिपदा (16), कृष्ण द्वितीया (17), कृष्ण तृतीया (18), कृष्ण पञ्चमी (20), कृष्ण सप्तमी (22), कृष्ण दशमी (25), कृष्ण द्वादशी (27), कृष्ण त्रयोदशी (28) तिथियों को गर्भाधान के लिये शुभ माना जाता है।
दिन: गर्भाधान के लिये सोमवार, बुधवार, गुरुवार और शुक्रवार को शुभ माना जाता है।
लग्न: अधिकांश विद्वान मेष (1) और मकर (10) लग्न को गर्भाधान के लिये शुभ नहीं मानते हैं।
कुण्डली: लग्न में पुरुष ग्रह अर्थात सूर्य, मंगल या बृहस्पति की दृष्टि को गर्भाधान के लिये शुभ माना जाता है। लग्न में किसी दुष्ट ग्रह की उपस्थिति को गर्भाधान के लिये अशुभ माना जाता है। राहु और केतु भी दुष्ट ग्रहों में सम्मिलित हैं।
सामान्य: गर्भाधान, मासिक धर्म के दिन से चौथी और सोलहवीं रात्रि के मध्य करना चाहिये। मासिक धर्म के दिन से गणना करें तो सम रात्रियों, अर्थात चौथी, छठवीं, आठवीं, दसवीं, बारहवीं, चौदहवीं और सोलहवीं रात्रि को गर्भाधान होने से पुत्र सन्तान की प्राप्ति होती है और विषम रात्रियों, अर्थात पाँचवीं, सातवीं, नौवीं, ग्यारहवीं, तेरहवीं और पन्द्रहवीं रात्रि को गर्भाधान होने से कन्या सन्तान की प्राप्ति होती है।
चन्द्र और तारा शुद्धि: गर्भाधान के समय, स्त्री और पुरुष दोनों की उचित चन्द्र और तारा शुद्धि होनी चाहिये। पति और पत्नी दोनों के ही जन्म नक्षत्र का त्याग करना चाहिये। मुहूर्त चिन्तामणि द्वारा सलाह दी जाती है कि स्त्री और पुरुष दोनों के ही जन्म राशि और जन्म लग्न से अष्टम लग्न को त्यागना चाहिये।
विवाह के पश्चात पति-पत्नी का प्रथम सहवास को निषेक कहा जाता है जो कि गर्भाधान से ही सम्बन्धित एक आयोजन है।