अहोई अष्टमी उत्तर भारत का एक महत्वपूर्ण त्यौहार है। यह व्रत भारत के ग्रामीण क्षेत्रों प्रमुखता से मनाया जाता है। अहोई अष्टमी के दिन, अधिकांश मातायें अपने बालकों की कुशलता की कामना से एक दिवसीय उपवास का पालन करती हैं तथा अहोई माता की पूजा अर्चना करती हैं। अहोई अष्टमी का व्रत करवा चौथ के चार दिवस पश्चात् किया जाता है।
एक समय की बात है, घने वन के समीप स्थित एक गाँव में एक दयालु एवं धर्म परायण स्त्री निवास करती थी। उसके सात पुत्र थे। कार्तिक का महिना था तथा दीवाली का उत्सव आने ही वाला था। इसीलिये दीवाली उत्सव से पूर्व महिला ने घर में लीपने-पोतने एवं साज-सज्जा का कार्य करने का निर्णय किया। अपने घर को लीपने के लिये, वह मिट्टी लेने वन में पहुँची। वन में उस महिला की दृष्टि मिट्टी के एक टीले पर पड़ी। वह कुदाल लेकर उस टीले से मिट्टी निकालने लगी। वह कुदाल की सहायता से मिट्टी निकाल ही रही थी, सहसा ही उसकी दृष्ठि कुदाल पर लगे रक्त पर गयी तथा जैसे ही उसने मिट्टी हटा कर देखा, तो पाया कि सेही, अर्थात काँटेदार मूषक के कुछ बच्चे रक्तरँजित पड़े हुये हैं। कुछ ही क्षणों में वह सभी शावकों की मृत्यु हो गयी। यह दृश्य देख, भयभीत होकर वह, मिट्टी लिये बिना ही घर लौट आयी। महिला उन निर्दोष शावकों के साथ हुयी दुर्घटना को लेकर अत्यन्त व्यथित थी तथा मन ही मन स्वयं को उसका दोषी एवं उत्तरदायी समझ रही थी।
उधर कुछ समय पश्चात, सेही अपनी बाम्बी (माँद) पर आयी, तो अपने शिशुओं को मृत पाकर नाना प्रकार से विलाप करने लगी तथा उसने क्रोधवश श्राप दिया कि, "जिसने भी मेरे निर्दोष शिशुओं की हत्या की है, उसे भी मेरे समान घोर कष्ट एवं सन्तान का वियोग भोगना पड़े"।
अतः उस सेही के श्राप के प्रभाव से, इस घटना के एक वर्ष की समयावधि में उस स्त्री के सभी सात पुत्र कहीं चले गये और कभी लौट कर नहीं आये। उन सात पुत्रों के विषय में किसी भी प्रकार की कोई सूचना प्राप्त ना होने पर, अन्ततः ग्रामीणों ने उन सभी पुत्रों को मृत मान लिया। ग्राम के निवासियों ने अनुमान लगाया कि, वन के कुछ हिंसक पशुओं ने उस स्त्री के पुत्रों को मार दिया होगा अथवा किसी लुटेरों के समूह ने धन के लोभ में उनकी हत्या कर दी होगी। वह स्त्री अत्यन्त व्यथित थी तथा उसने मन ही मन यह विचार कर किया कि, उसके द्वारा सेही के शावकों की हत्या के कारण ही, उसके जीवन में यह घोर संकट आया है।
एक समय ऐसा आया कि, उन सात पुत्रों की माता भी अपने पुत्रों की लौटने की प्रतीक्षा करते-करते थक गयी तथा आशा की कोई किरण ना दिखायी देने के कारण उसने अपनी जीवन लीला समाप्त करने का निश्चय किया। वह नदी की ओर जा ही रही थी कि, मार्ग में उसकी भेंट ग्राम की ही एक अन्य वृद्ध महिला से हुयी। वृद्धा ने महिला से इस प्रकार रोने का कारण पूछा, तो महिला ने उसको अपनी पीड़ा एवं व्यथा सुनाई। उसने सम्पूर्ण घटना का विस्तार से वर्णन किया तथा अपने द्वारा भूलवश सेही के शावकों की हत्या के पाप के विषय में भी वृद्धा को अवगत करवाया।
वृद्धा ने उस महिला को सुझाव दिया कि, अपने पाप के प्रायश्चित के रूप में, उसे दीवार पर सेही का चित्र बनाकर, देवी अहोई भगवती की पूजा करनी चाहिये। वृद्धा ने कहा, "पुत्री! यदि तू पूर्ण विधि-विधान से देवी का व्रत एवं पूजन करेगी, गौ सेवा करेगी तथा स्वप्न में भी किसी का अहित नहीं सोचेगी, तो देवी माँ की कृपा से तेरी सन्तान तुझे अवश्य ही पुनः प्राप्त हो जायेगी।" देवी अहोई, देवी पार्वती का ही अवतार स्वरूप हैं। देवी अहोई को समस्त जीवित प्राणियों की सन्तानों की रक्षक माना जाता है, इसीलिये वृद्धा ने उस महिला को देवी अहोई के निमित्त व्रत रखने तथा पूजा करने का सुझाव दिया।
महिला ने अष्टमी के दिन देवी अहोई की पूजा करने का निर्णय किया। जब अष्टमी का दिन आया, तो महिला ने सेही के मुख का चित्र बनाया तथा व्रत का पालन करते हुये अहोई माता की पूजा अर्चना की। महिला ने अपने द्वारा हुये पाप के लिये शुद्ध हृदय से पश्चाताप किया। देवी अहोई उस स्त्री की भक्ति एवं निर्मलता से प्रसन्न होकर उसके समक्ष प्रकट हो गयीं तथा महिला को पुत्रों की दीर्घायु का वरदान प्रदान किया। शीघ्र ही उसके सभी सात पुत्र सकुशल जीवित घर लौट आये। उस दिन से प्रति वर्ष कार्तिक कृष्ण अष्टमी के दिन देवी अहोई भगवती की पूजा करने का प्रचलन आरम्भ हो गया। इस दिन मातायें अपनी सन्तानों की प्रसन्नता के लिये प्रार्थना एवं उपवास करती हैं तथा अहोई माता का आशीष ग्रहण करती हैं।