हिन्दु धर्म में बृहस्पति को देवगुरु की सँज्ञा प्रदान की गयी है। देवगुरु, बृहस्पति मण्डल में निवास करते हैं, जिसे बृहस्पति लोक के नाम से भी जाना जाता है। देव गुरु बृहस्पति समस्त देवताओं द्वारा सम्मानीय हैं। धर्मग्रन्थों के अनुसार, देवगुरु के माध्यम से ही देवताओं को हवि आदि प्राप्त होते हैं। देवगुरु बृहस्पति गुरु के नाम से भी जाने जाते हैं। वह सप्तवारों में गुरुवार के स्वामी हैं, जिसे बृहस्पतिवार भी कहा जाता है। पुराणों में बृहस्पति देव को देवताओं के पुरोहित के रूप में वर्णित किया गया है। गुरु को वाक्पटुता एवं ज्ञान का देवता माना जाता है। नवग्रह मण्डल में सभी ग्रहों का नायक होने कारण वह गणपति भी कहलाते हैं। बृहस्पति देव को ग्रह पुरोहित भी कहा गया है, अर्थात इनकी अनुपस्थिति में यज्ञ सफल नहीं होते हैं।
देवगुरु बृहस्पति ने धर्मशास्त्र, नीतिशास्त्र, वास्तुशास्त्र तथा अर्थशास्त्र आदि विषयों से सम्बन्धित अनेक ग्रन्थों की रचना की। बार्हस्पत्य सूत्र के रचनाकार भी देवगुरु बृहस्पति ही हैं। बृहस्पति देव सृष्टि में अत्यन्त महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वहन करते हुये देवताओं को उनके अधिकार का हव्यादि पहुँचा देते हैं। निरन्तर नाना प्रकार की आसुरी शक्तियॉं यज्ञ आदि धार्मिक कृत्यों में विघ्न उत्पन्न करके देवताओं को पराजित करने का प्रयास करती रहती हैं। किन्तु देवगुरु बृहस्पति दिव्य रक्षोघ्न मन्त्रों के माध्यम से देवताओं की सुरक्षा एवं पालन करते हैं।
स्कन्दपुराण में आये वर्णन के अनुसार, एक समय बृहस्पति ने प्रभास तीर्थ में निवास करके भगवान शिव के निमित्त कठिन तपस्या की, जिसके फलस्वरूप भगवान शिव ने प्रसन्न होकर उन्हें दर्शन दिये तथा बृहस्पति को देवगुरु का पद तथा ग्रहत्व प्रदान किया था।
विभिन्न धर्म ग्रन्थों में बृहस्पति का अनेक स्थानों पर उल्लेख प्राप्त होता है। बृहस्पति एक तपस्वी ऋषि थे, जिन्हें तीक्ष्णशृङ्ग के नाम से भी वर्णित किया गया है। वह धनुष बाण तथा स्वर्ण परशु धारण करते थे तथा ताम्र वर्ण के अश्व इनका रथ खींचते थे। शौर्यशाली होने के कारण योद्धा भी बृहस्पति उपासना करते थे। बृहस्पति ने एक बार इन्द्र को पराजित कर करके गायों को मुक्त किया था। मान्यताओं के अनुसार, वे अत्यधिक दयालु एवं परोपकारी देवता हैं तथा सदैव धर्माचरण का पालन करने वाले सदाचारियों की रक्षा करते हैं।
ऋषि अङ्गिरा देवगुर बृहस्पति के पिता तथा देवी सुरूपा उनकी माता थीं। बृहस्पति देव की तीन धर्मपत्नियाँ हैं, ज्येष्ठ पत्नी का नाम शुभा तथा कनिष्ठ पत्नी का नाम तारा अथवा तारका तथा तीसरी का नाम ममता है। ज्येष्ठपत्नी शुभा के गर्भ से सात कन्याओं का जन्म हुआ जो भानुमती, राका, अर्चिष्मती, महामती, महिष्मती, सिनीवाली तथा हविष्मती के नाम से विख्यात हुयीं। दूसरी पत्नी तारा ने सात पुत्र एवं एक पुत्री को जन्म दिया। बृहस्पति देव को अपनी तीसरी पत्नी ममता द्वारा कच एवं भारद्वाज नाम के दो पुत्रों की प्राप्ति हुयी।
पौराणिक कथाओं के अनुसार, एक समय चन्द्रमा ने तारा से बलपूर्वक सम्बन्ध बनाये, जिसके परिणाम स्वरूप तारा ने गर्भ धारण किया। तारा ने एक पुत्र को जन्म दिया, जो सम्पूर्ण जगत में बुध के नाम से विख्यात हुआ तथा चन्द्रवंश की स्थापना की। बृहस्पति बुध के प्रति पुत्र भाव रखते हैं। महाभारत में प्राप्त वर्णन के अनुसार बृहस्पति के सम्वर्त एवं उतथ्य नाम के दो भ्राता थे। सम्वर्त एवं बृहस्पति के मध्य सदैव विवाद होता रहता था।
बृहस्पति को सुवर्ण एवं पीत वर्ण का दर्शाया गया है। वे नाना प्रकार के तेजपूर्ण स्वर्णाभूषण धारण किये रहते हैं। बृहस्पति पीत वस्त्र धारण किये चतुर्भुज रूप में कमल पुष्प पर विराजमान रहते हैं। बृहस्पति चार भुजाओं में स्वर्ण दण्ड, कमल, रुद्राक्ष जपमाला तथा वरद मुद्रा धारण करते हैं। देवगुरु से सम्बन्धित अन्य रूपों में उन्हें कमण्डल धारण किये हुये भी चित्रित किया गया है।
ऋग्वेद के अनुसार देवगुरु बृहस्पति अत्यन्त रूपवान हैं। वे स्वर्ण निर्मित महल में निवास करते है तथा स्वर्ण निर्मित रथ पर आरूढ़ रहते हैं। उनका रथ सूर्य के समान दीप्तिमान है तथा समस्त सुख-सुविधाओं से सम्पन्न है। उस रथ को वायु वेग से चलने वाले पीतवर्णी आठ अश्व खींचते हैं।
वैदिक ज्योतिष में देवगुरु को बृहस्पति (ग्रह) का स्वामी कहा जाता है। बृहस्पति के अधिदेवता इन्द्र तथा प्रत्यधिदेवता ब्रह्मा हैं। भचक्र में बृहस्पति धनु एवं मीन राशि के स्वामी हैं। जन्म कुण्डली में बृहस्पति ग्रह की शान्ति हेतु प्रत्येक अमावस्या तिथि, बृहस्पतिवार के दिन व्रत करने एवं पीला पुखराज धारण करने का सुझाव दिया जाता है। गुरु की महादशा 16 वर्ष होती है।
ज्योतिष में बृहस्पति को अत्यधिक शुभ ग्रह माना गया है। बृहस्पति ग्रह कर्क राशि में उच्च तथा मकर राशि में नीच माना जाता है। सूर्य, चन्द्रमा तथा मंगल ग्रह बृहस्पति के लिये मित्र ग्रह हैं। बृहस्पति के शत्रु ग्रह के रूप में बुध को वर्णित किया गया है। शनि के साथ यह सामान्य फलदायी होता है। पुनर्वसु, विशाखा तथा पूर्वा भाद्रपद नक्षत्र बृहस्पति के स्वामित्व में होते हैं। पीला रँग, स्वर्ण धातु, पुखराज, शीत ऋतु, पूर्व दिशा, अन्तरिक्ष एवं आकाश तत्त्व आदि को बृहस्पति से सम्बन्धित बतलाया गया है।
सामुद्रिक शास्त्र के अनुसार, तर्जनी अँगुली के मूल में स्थित उभार को गुरु पर्वत कहा जाता है। गुरु पर्वत का अवलोकन कर जातक की नेतृत्व क्षमता, ऊर्जा तथा भाग्य आदि का विचार किया जाता है।
अङ्कशास्त्र के अनुसार, 3 अङ्क का स्वामी देवगुरु बृहस्पति को माना जाता है। किसी भी माह की 3, 13, 21 तथा 30 दिनाँक को जन्म लेने वाले जातकों का मूलाँक 3 होगा। मूलाँक 3 के अन्तर्गत आने वाले जातक बृहस्पति से प्रभावित रहते है।
सामान्य मन्त्र-
ॐ बृं बृहस्पतये नमः।
बीज मन्त्र-
ॐ ग्रां ग्रीं ग्रौं सः गुरवे नमः।
गुरु गायत्री मन्त्र-
ॐ आंगिरसाय विद्महे, दण्डायुधाय धीमहि, तन्नो जीवः प्रचोदयात्॥