हिन्दु धर्म में राहु को एक नकारात्मक तथा क्लेशकारी ग्रह के रूप में वर्णित किया जाता है। राहु सूर्य एवं चन्द्रमा पर ग्रहण करता है। यद्यपि यह ग्रह नहीं बल्कि एक तरह से छाया है। फिर भी अपने महत्वपूर्ण प्रभाव के कारण इसे बहुत महत्व दिया जाता है। महाभारत के भीष्मपर्व में प्राप्त वर्णन के अनुसार, राहु ग्रह मण्डलाकार है तथा अन्य ग्रहों सहित राहु भी भगवान ब्रह्मा की सभा में उपस्थित रहता है। नवग्रह मण्डल में वायव्य कोण में स्थित काला ध्वज राहु का प्रतीक होता है। राहु के अधिदेवता काल तथा प्रत्यधिदेवता भगवान सूर्य हैं।
ऋग्वेद के अनुसार, जिस समय सिंहिका पुत्र राहु सूर्य एवं चन्द्र को अपने अन्धकार में विलीन कर लेता है, उस समय इतना अन्धकार हो जाता है कि प्राणियों के लिये अपने स्थान को भी पहचानना असम्भव हो जाता है। राहु को सामान्यतः व्याधियों, व्यवधानों तथा दुर्घटनाओं के उत्पत्ति कारक के रूप में माना जाता है। मत्स्य पुराण के अनुसार राहु छाया का अधिष्ठातृ देवता है।
पौराणिक समुद्र मन्थन के समय अमृत प्रकट होने पर, जिस समय भगवान श्री हरि विष्णु मोहिनी रूप धारण करके देवताओं को अमृतपान करवा रहे थे, उस समय स्वरभानु नाम के एक राक्षस ने भगवान विष्णु का सत्य जान लिया तथा देवताओं की पँक्ति में माया से देव रूप धारण करके अमृतपान करने लगा। भगवान विष्णु स्वरभानु को अमृत पिला ही रहे थे कि सूर्यदेव एवं चन्द्रदेव ने स्वरभानु को पहचान लिया तथा मोहिनी रूप धारी भगवान विष्णु को स्वरभानु के विषय में बता दिया।
भगवान विष्णु ने तत्क्षण अपने सुदर्शन चक्र का प्रयोग करते हुये स्वरभानु का शीश काट दिया। किन्तु उस समय तक अमृत स्वरभानु के कण्ठ के नीचे उतार चुका था, जिसके कारण उसका शीश तथा कबन्ध (धड़) दोनों ही पृथक होकर राक्षस रूप में परिवर्तित हो गये। स्वरभानु का कटा हुआ शीश राहु तथा तथा धड़ केतु के रूप में विख्यात हुआ। सूर्य एवं चन्द्र देव द्वारा पहचाने जाने के कारण राहु-केतु उनसे शत्रुता मानते हैं तथा सूर्य तथा चन्द्र को ग्रहण करने का प्रयास करते हैं।
खगोलीय दृष्टिकोण से यह ग्रहण हमें सूर्य और पृथ्वी की सीध मे चन्द्रमा के भ्रमण से पृथ्वी पर सूर्यग्रहण के रूप में आभासित होता है। इसी तरह जब चन्द्रमा पर पृथ्वी की छाया पड़ने लगती है तो चन्द्रग्रहण का आभास होता है। सूर्यग्रहण सदैव अमावस्या को तथा चन्द्रग्रहण पूर्णिमा तिथि को ही होता है।
राहु की माता का नाम सिंहिका है तथा उन्हें असूया के नाम से भी जाना जाता है। सिंहिका हिरण्यकशिपु की पुत्री थीं। राहु के पिता का नाम विप्रचित्ति है। श्रीमद्भागवत के अनुसार, राहु के सौ अन्य भ्राता भी थे, जिनमें से राहु सभी से ज्येष्ठ हैं। राहु का विवाह कराली नाम की कन्या से हुआ था।
धर्मग्रन्थों में राहु को कबन्ध रहित नाग के रूप में वर्णित किया गया है। राहु का स्वरूप अति भयङ्कर है। वह काले रँग के वस्त्र धारण करते हैं। राहु को चतुर्भुज रूप में सिंह पर आसीन दर्शाया जाता है। राहु एक रथ पर आरूढ़ रहता है, राहु के रथ को आठ श्याम वर्ण वाले कुत्ते खींचते हैं।
वैदिक ज्योतिष में राहु का अत्यन्त महत्वपूर्ण स्थान है। दिन में राहुकाल की अवधि दिनमान के आठवें भाव के बराबर होती है (सामान्य तौर पर लगभग डेढ़ घण्टे) जो माँगलिक कार्यों हेतु अशुभ मानी जाती है। धर्मग्रन्थों में राहु को अधर्म, मलिनता, छल-कपट, व्यभिचार, निर्वासन, विदेशी भूमि में सम्पदा, मादक द्रव्य, विष विक्रेता, अनैतिक कृत्यों एवं मिथ्या भाषणकर्त्ताओं आदि के प्रतीक के रूप में वर्णित किया है। राहु के अशुभ प्रभाव के कारण पेट में अल्सर, अस्थियों तथा स्थानान्तरगमन सम्बन्धी समस्याओं का सामना करना पड़ता है। किन्तु यदि कुण्डली में राहु अनुकूल स्थिति में है, तो वह शक्तिवर्धन तथा शत्रुओं से मित्रता भी कराता है। राहु की महादशा 18 वर्ष की होती है।
सामुद्रिक शास्त्र के अनुसार, राहु पर्वत हथेली के ठीक मध्य में, मस्तिष्क रेखा के मूल में स्थित होता है। राहु पर्वत पर अङ्कित रेखाओं को राहु रेखा कहा जाता है। राहु पर्वत का अवलोकन करके जातक की धार्मिक प्रवृत्ति, व्यवहार तथा धन-सम्पत्ति आदि पर विचार किया जाता है।
अङ्कशास्त्र के अनुसार, अङ्क 4 राहु ग्रह द्वारा शासित होता है। प्रत्येक माह की 4, 13 एवं 22 दिनाँक को जन्म लेने वाले जातकों का मूलाङ्क 4 होता है। मूलाङ्क 4 से सम्बन्धित जातकों के जीवन को राहु प्रभावित करता है।
सामान्य मन्त्र-
ॐ रां राहवे नमः।
बीज मन्त्र-
ॐ भ्रां भ्रीं भ्रौं सः राहवे नमः।
राहु गायत्री मन्त्र-
ॐ शिरोरूपाय विद्महे, अमृतेशाय धीमहि, तन्नो राहुः प्रचोदयात्॥