भगवान विष्णु, हिन्दु धर्म के सर्वाधिक लोकप्रिय देवी-देवताओं में से एक हैं। भगवान विष्णु त्रिमूर्ति अर्थात् भगवान ब्रह्मा, विष्णु तथा महेश में से एक हैं, जिन्हें सृष्टि के रचयिता, पालनकर्ता एवं संहारकर्ता के रूप में वर्णित किया गया है। भगवान विष्णु समय-समय पर अधर्म के नाश एवं धर्म की स्थापना हेतु भूलोक पर अवतरित होते रहते हैं।
मत्स्य अवतार भगवान विष्णु का प्रथम अवतार है। मत्स्य का शाब्दिक अर्थ मछली होता है। अतः मछली का रूप धारण करने के कारण, इस अवतार को मत्स्य अवतार के रूप में जाना जाता है। मत्स्यपुराण में वर्णित कथा के अनुसार भगवान विष्णु ने हयग्रीव नामक दैत्य का वध करने तथा प्रलय से सृष्टि की रक्षा एवं पुनः सृष्टि रचना के उद्देश्य से मत्स्य अवतार धारण किया था। मत्स्य अवतार को मत्स्यावतार के रूप में भी लिखा जाता है।
कालान्तर में हयग्रीव नामक एक दैत्य हुआ, जिसे हयग्रीवासुर के नाम से भी जाना जाता था। हयग्रीव दैत्य, महर्षि कश्यप एवं देवी दिति का पुत्र था। हिरण्याक्ष, रक्तबीज, धूम्रलोचन तथा हिरण्यकशिपु जैसे दुर्गम राक्षस, हयग्रीव के अनुज भ्राता थे तथा वज्रङ्गासुर एवं अरुणासुर उसके ज्येष्ठ भ्राता थे। राक्षसी होलिका उसकी बहन थी। धर्मग्रन्थों में प्राप्त वर्णन के अनुसार हयग्रीवासुर अत्यन्त शक्तिशाली दैत्य था तथा वह जल, थल, नभ तीनों में निवास कर सकता था। उसका मुख अश्व के समान था। अश्व को हय भी कहा जाता है तथा ग्रीवा का अर्थ गर्दन होता है। इसीलिये वह दैत्य समस्त लोकों में हयग्रीव के रूप में कुख्यात हुआ, जिसका शाब्दिक अर्थ है घोड़े की गर्दन वाला।
एक समय हयग्रीव ने देवताओं को दुर्बल करने के उद्देश्य से ब्रह्मा जी के चारों वेद हर लिये तथा उन्हें ले जाकर समुद्रतल में छुपा दिया। वेदों के विलुप्त होने से सम्पूर्ण सृष्टि अज्ञानता के अन्धकार में विलीन हो गयी तथा चारों दिशाओं में हाहाकार होने लगा।
तदुपरान्त भगवान ब्रह्मा सहित समस्त देवताओं ने भगवान विष्णु से प्रार्थना की। जब भगवान विष्णु को हयग्रीव के दुष्कृत्य के विषय में ज्ञात हुआ तब उन्होनें हयग्रीव का वध करने का निश्चय किया।
कालान्तर में भूलोक पर सत्यव्रत नाम के मनु हुये। वे परम धर्मपारायण एवं भगवान विष्णु के अनन्य भक्त थे। एक समय राजा सत्यव्रत कृतमाला नदी में स्नान कर रहे थे। स्नानोपरान्त वे भगवान सूर्य नारायण को जलाञ्जलि अर्पित कर रहे थे। उसी समय उनकी दृष्टि अपनी अञ्जलि पर गयी, उन्होंने देखा कि एक छोटी सी मछली उनकी अञ्जलि में आ गयी है। राजा सत्यव्रत उस मछली को नदी में पुनः प्रवाहित कर ही रहे थे कि सहसा ही वह मछली बोली - "हे राजन्, मुझे अपनी शरण में रख लो अन्यथा इस जल के विशाल जीव मेरा भक्षण कर लेंगे।"
राजा सत्यव्रत अत्यन्त धर्मात्मा थे एवं शरण में आये जीव की रक्षा करना अपना धर्म समझते थे। अतः उन्होनें उस मछली को अपने कमण्डलु में रख लिया और महल को लौट आये।
महल आकर राजा ने देखा कि मछली के आकार में वृद्धि हो चुकी है और वह कमण्डलु उसके लिये छोटा पड़ रहा है। राजा ने मछली को एक अन्य बड़े पात्र में डाल दिया, किन्तु कुछ समय पश्चात् वह पात्र भी छोटा पड़ गया। राजा को आश्चर्य हुआ तथा उसने मछली को महल में स्थित कुण्ड में डाल दिया। प्रातः राजा ने देखा की मछली के आकार में अप्रत्याशित वृद्धि होने के कारण वह कुण्ड भी उसके लिये छोटा प्रतीत होने लगा। अन्ततः राजा ने उस मछली को समुद्र में प्रवाहित कर दिया, किन्तु कुछ समय पश्चात् ही उस मछली ने समुद्र से भी विशाल रूप धारण कर लिया, जिसके पश्चात् राजा सत्यव्रत को यह विश्वास हो गया कि यह कोई साधारण मछली नहीं है, अपितु कोई दैवीय शक्ति है। राजा सत्यव्रत ने उस मछली से अपने वास्तविक रूप के दर्शन देने का निवेदन किया - "हे प्रभो! आप कौन हैं? कृपया अपना परिचय एवं इस प्रकार लीला करने का कारण बतलायें।"
राजा सत्यव्रत की प्रार्थना सुनकर भगवान विष्णु मत्स्य अवतार के रूप में प्रकट हुये तथा वे राजा को आदेशित करते हुये बोले - हे राजन्! ध्यानपूर्वक सुनो! हयग्रीव नामक दैत्य ने वेदों का हरण कर उन्हें समुद्रतल में बन्दी बना लिया है। अतः आज से सात दिवस उपरान्त महासागर में भीषण प्रलय का आगमन होगा, जिसके कारण समस्त सृष्टि जलमग्न हो जायेगी एवं समस्त प्राणियों का अन्त हो जायेगा। सर्वत्र जल ही जल दृष्टिगोचर होगा। तत्पश्चात् नवीन सृष्टि का सृजन होगा। जिस समय सम्पूर्ण सृष्टि जलमग्न होगी, तुम्हारे समीप एक नौका प्रकट होगी। अतः तुम समस्त प्रजापतियों को औषधि, जड़ी-बूटी, अनाजों के बीज, पशुओं तथा सप्त ऋषियों को उस नौका में बिठा लेना, मैं स्वयं तुम्हें दर्शन दूँगा। तुम वासुकि नाग की रस्सी मेरे श्रृङ्ग (सींग) में बाँध देना, मैं तुम्हारी नौका को निर्देशित करूँगा और उस नौका को इस जल प्रलय से सुरक्षित स्थान पर ले जाऊँगा ताकि नवीन सृष्टि का सृजन हो सके।
तदनन्तर मत्स्यरूपी भगवान विष्णु ने समुद्र में हयग्रीवासुर के राज्य में प्रवेश किया। हयग्रीवासुर के सैनिकों ने मत्स्यरूपी भगवान विष्णु पर आक्रमण किया, जिसके उत्तर में मत्स्य भगवान ने उन सभी दैत्यों का वध कर दिया। अन्ततः हयग्रीवासुर एवं भगवान मत्स्य के मध्य भीषण युद्ध हुआ। परिणामस्वरूप भगवान मत्स्य ने हयग्रीव का संहार कर दिया।
नियत तिथि पर जल प्रलय आरम्भ हो गया तथा राजा सत्यव्रत भगवान के निर्देशानुसार समस्त सामग्री एकत्र कर सप्त ऋषियों एवं प्रजापतियों सहित नौका में बैठ गये। प्रलय के समय चारों ओर जल ही जल विद्यमान था। प्रलय सागर के मध्य नौका में बैठे सत्यव्रत एवं प्रजापति अत्यन्त भयभीत हो रहे थे, किन्तु सप्त ऋषियों ने राजा को शान्त किया एवं भगवान नारायण की प्रतीक्षा करने को कहा। सप्त ऋषियों का कथन सुनकर नौका में उपस्थित सभी जन भगवान नारायण से प्रार्थना करने लगे - "हे प्रभो! आप ही सृष्टि के पालक एवं संरक्षक हैं। हम सभी आपकी शरण में हैं, कृपया दया करके हमारी रक्षा करें।"
उन सभी की प्रार्थना से द्रवित होकर मत्स्य भगवान वेदों को मुक्त करवाकर उन्हें अपने मुख में लेकर समुद्रतल से बाहर आ गये, जहाँ राजा सत्यव्रत नौका में उनकी प्रतीक्षा कर रहे थे। सत्यव्रत मनु ने देखा कि एक अत्यन्त विशाल मछली नौका के चारों ओर चक्कर लगाने लगी, उसके मस्तक पर एक विशाल श्रृङ्ग (सींग) दृष्टिगोचर हो रहा था। राजा ने भगवान विष्णु के निर्देशानुसार वासुकि नाग की रस्सी को उस सींग पर बाँध दिया, तत्पश्चात् वह मछली नौका को भीषण जल प्रलय में इधर-उधर घुमाती रही तथा राजा सत्यव्रत मनु ने मत्स्य रूपी भगवान विष्णु से अनेक प्रश्न किये, जिनके उत्तर भगवान मत्स्य प्रलय के समय देते रहे। इस भीषण प्रलयकाल के समय ही मत्स्य भगवान ने राजा सत्यव्रत, प्रजापतियों एवं सप्त ऋषियों को आत्मज्ञान प्रदान किया। राजा सत्यव्रत द्वारा सृष्टि के सृजन एवं संहार का रहस्य उजागर करने की प्रार्थना पर मत्स्य रूपी भगवान विष्णु ने उन्हें बतलाया कि - "समस्त प्राणियों में मैं ही निवास करता हूँ। न कोई उत्तम है, न ही कोई अधम है। सभी प्राणी एक समान नाशवान हैं। इस नाशवान सृष्टि में मेरे अतिरिक्त कहीं कुछ भी सनातन नहीं है। जो प्राणी मुझमें समस्त सृष्टि का एवं समस्त सृष्टि में मेरा दर्शन करता है, वह अन्ततोगत्वा मुझमें ही विलीन हो जाता है।"
मत्स्य भगवान एवं राजा सत्यव्रत के मध्य का यह सम्वाद मत्स्यपुराण में वर्णित किया गया है। मत्स्यपुराण में ही भगवान विष्णु द्वारा हयग्रीव नामक दानव से वेदों के उद्धार, हयग्रीव वध तथा पुनः परमपिता ब्रह्मा जी को वेद प्रदान करने की लीला का विस्तृत वर्णन किया गया है। इस प्रकार भगवान विष्णु ने मत्स्य अवतार धारण कर वेदों की रक्षा एवं सृष्टि की पुनर्स्थापना की थी एवं राजा सत्यव्रत के माध्यम से संसार को आत्मज्ञान से अवगत कराया था।
भगवान मत्स्य भगवान विष्णु के प्रथम अवतार हैं। इस अवतार में विष्णु जी स्वयं ही एक मछली के रूप में प्रकट हुये थे तथा उनके कोई माता-पिता एवं पत्नी आदि का वर्णन प्राप्त नहीं होता है। अतः भगवान मत्स्य कोई पृथक कुटुम्ब नहीं है।
भगवान मत्स्य से सम्बन्धित विभिन्न चित्रों में उन्हें नीलवर्ण का दर्शाया जाता है। वे अर्ध मत्स्य, अर्थात् मछली तथा अर्ध मनुष्य देह वाले हैं। भगवान मत्स्य चतुर्भुज रूप में विशाल जलसमुद्र के मध्य में विराजमान हैं। वे अपनी चार भुजाओं में सुदर्शन चक्र, पाञ्चजन्य शङ्ख, कमल पुष्प एवं कौमोदकी गदा धारण किये हुये हैं।
भगवान मत्स्य के कुछ अन्य स्वरूपों में उन्हें चारों वेदों को शिशुओं के रूप में अपनी गोद में लिये हुये दर्शाया जाता है।
सामान्य मन्त्र -
ॐ मत्स्याय मनुकल्पाय नमः।
मत्स्य विष्णु मन्त्र -
ॐ दं मत्स्यरूपाय नमः।
मत्स्य गायत्री मन्त्र -
ॐ तत्पुरुषाय विद्महे महामीनाय धीमहि।
तन्नो विष्णुः प्रचोदयात्॥