एकादशी व्रत करने वाले स्त्री-पुरुष को दशमी वाले दिन माँस, प्याज तथा मसूर की दाल आदि का सेवन कदापि नहीं करना चाहिये। एकादशी वाले दिन प्रातः पेड़ से तोड़ी हुयी लकड़ी की दातुन नहीं करनी चाहिये। इसके स्थान पर नीबू, जामुन या आम के पत्तों को चबाकर मुख शुद्ध कर लेना चाहिये। उँगली से कण्ठ शुद्ध करना चाहिये।
इस दिन ध्यान रखें वृक्ष से पत्ता तोड़ना वर्जित है, अतः स्वयं गिरे हुये पत्तो का ही उपयोग करें। पत्ते उपलब्ध न होने पर बारह बार शुद्ध जल से कुल्ले कर मुख शुद्धि करनी चाहिये।
फिर स्नानादि कर मन्दिर में जाकर, गीता-पाठ करना चाहिये या पुरोहितादि से सुनना चाहिये। भगवान के सम्मुख इस प्रकार प्रण करना चाहिये - "आज मैं दुराचारी, चोर व पाखण्डी व्यक्ति से वार्ता-व्यवहार नहीं करूँगा। किसी से कड़वी बात कर उसका दिल नहीं दुखाऊँगा। गाय, ब्राह्मण आदि को फलाहार व अन्नादि देकर प्रसन्न करूँगा।
रात्रि जागरण कर कीर्तन करूँगा। ॐ नमो भगवते वासुदेवाय इस द्वादश अक्षर मन्त्र का जाप करूँगा। राम, कृष्ण इत्यादि विष्णु सहस्रनाम को कण्ठ का आभूषण बनाऊँगा।"
इस प्रकार प्रण करने के पश्चात् श्रीहरि भगवान विष्णु का स्मरण कर प्रार्थना करनी चाहिये - "हे तीनों लोकों के स्वामी! मेरे प्रण की रक्षा करना। मेरी लाज आपके हाथ है, अतः इस प्रण को पूरा कर सकूँ, ऐसी शक्ति मुझे देना प्रभु!"
यदि अज्ञानवश किसी निन्दक से बात कर बैठें तो इस दोष के निवारण के लिये भगवान सूर्य नारायण के दर्शन करके, धूप-दीप से श्रीहरि की पूजा-अर्चना कर क्षमा याचना करें।
इस दिन घर में झाडू नहीं लगानी चाहिये, चींटी आदि सूक्ष्म जीवों की मृत्यु का भय रहता है। एकादशी के दिन बाल नहीं कटवाने चाहिये और न ही अधिक बोलना चाहिये। अधिक बोलने से न बोलने योग्य वचन भी मुख से निकल जाते हैं। एकादशी वाले दिन यथाशक्ति अन्नदान करना चाहिये, परन्तु स्वयं किसी का दिया अन्न हुआ कदापि न लें। असत्य वचन व कपटादि कुकर्मों से दूर रहना चाहिये।
दशमी के साथ मिली हुयी एकादशी वृद्ध मानी गयी है, शिव उपासक तो इसको मान लेते हैं, परन्तु वैष्णव योग्य द्वादशी से मिली हुयी एकादशी का ही व्रत करें और त्रयोदशी आने से पूर्व व्रत का पारण कर लें। फलाहारी को गोभी, गाजर, शलजम, पालक, कुलफा का साग इत्यादि का सेवन नहीं करना चाहिये, बल्कि आम, अँगूर, केला, बादाम, पिस्ता इत्यादि अमृत फलों का सेवन करना चाहिये। जो भी फलाहार लें, भगवान को भोग लगाकर तथा तुलसीदल छोड़कर ग्रहण करना चाहिये। द्वादशी के दिन ब्राह्मणों को मिष्ठान्न, दक्षिणादि देकर प्रसन्न कर परिक्रमा लेनी चाहिये। किसी सम्बन्धी की मृत्यु होने पर उस दिन एकादशी व्रत रखकर उसका फल उसे संकल्प कर देना चाहिये और श्री गंगाजी में पुष्प (अस्थि) प्रवाह करने पर भी एकादशी व्रत रखकर फल प्राणी के निमित्त दे देना चाहिये।
प्राणी मात्र को प्रभु का अवतार समझकर किसी प्रकार का छल-कपट नहीं करना चाहिये। मीठे वचन बोलने चाहिये। अपना अपमान करने या कड़वे शब्द बोलने वाले को भी आशीर्वाद देना चाहिये। किसी भी प्रकार क्रोध नहीं करना चाहिये। क्रोध चाण्डाल का रूप होता है। देव रूप हो सन्तोष कर लेना चाहिये।
सन्तोष का फल सदैव मीठा होता है। सत्य वचन बोलने चाहिये तथा मन में दया भाव रखना चाहिये। इस विधि से व्रत करने वाला मनुष्य दिव्य फल को प्राप्त करता है।