महासती वृन्दा के सतीत्व से सुरक्षित दैत्य जालन्धर अपराजेय हो गया था। तब देवताओं के अनुरोध पर क्षीराब्धिशायी भगवान विष्णु ने लीलापूर्वक वृन्दा के साथ छल किया। वृन्दा के सतीत्व भङ्ग होने पर भगवान विष्णु के शुक्र से 'कामासुर' की उत्पत्ति हुयी। जिसने दैत्य-शुभाकांक्षी शुक्राचार्य से शिक्षा ग्रहण की। शुक्राचार्य महान शिवभक्त थे अतएव उन्होंने कामासुर को भगवान शिव के 'पञ्चाक्षरी मन्त्र' की दीक्षा दी। उसने अपने गुरु को प्रणाम किया और तपश्चर्या के लिये वन को चला गया।
तब उसने भगवान आशुतोष को प्रसन्न करने के लिये अन्न, जल और फलादि का सर्वथा त्याग कर तपस्या आरम्भ कर दी। दिव्य सहस्रों वर्षों की तपस्या से भगवान शिव प्रसन्न हुये और उसके समक्ष प्रकट हो गये। कामासुर अपने सामने भक्तवत्सल भगवान शिव को देख प्रसन्न हो गया और भक्तिपूर्वक उनके चरणों में स्तुति करने लगा। इसके पश्चात उसने भोलेनाथ से वर की याचना की - "हे भोलेनाथ! आप मुझे अपने चरणों की भक्ति और ब्रह्माण्ड का राज्य प्रदान कीजिये। मैं बलवान, निर्भय और मृत्युञ्जयी हो जाऊँ।"
करुणामय भगवान शिव ने कहा, "यद्यपि तुमने अत्यन्त दुर्लभ और देवताओं को दुःख प्रदान करने वाला वर माँगा है, किन्तु तुम्हारी कठिन साधना और तपस्या के कारण मैं तुम्हारी कामना अवश्य ही पूर्ण करूँगा।" ऐसा वर देकर भगवान शिव अन्तर्धान हो गये। कामासुर भी अत्यन्त प्रसन्न होकर अपने नगर की ओर चला गया। वहाँ पहुँचकर वह सर्वप्रथम दैत्यगुरु के पास पहुँचा और उन्हें शिव जी के द्वारा दिये हुये वर का वृत्तान्त बताया।
कुछ समय पश्चात शुक्राचार्य ने महिषासुर की पुत्री तृष्णा से कामासुर का विवाह करवा दिया। इस अवसर के दौरान ही शुक्राचार्य ने कामासुर को दैत्याधिपति घोषित कर दिया। सभी दैत्यों ने कामासुर के अधीन रहना स्वीकार कर लिया। कामासुर ने 'रतिदनगर' को अपनी राजधानी बना ली। उसके रावण, शम्भर, महिष, बलि और दुर्मद ये पाँच असुर प्रधान थे। अपने दैत्य सेनापतियों से परामर्श कर कामासुर ने पृथ्वी पर आक्रमण कर दिया। उसके तीव्र बाणों से पृथ्वीवासी घायल होकर उसके वशीभूत हो गये। पृथ्वी विजय के बाद उसने स्वर्ग पर भी अधिकार कर लिया। देवता भी उसके वश में हो गये।
कामासुर ने तीनों लोकों पर अधिकार कर के धर्म-कर्म की व्यवस्था को नष्ट कर दिया। स्वाहा, स्वधा और वषट्कार लुप्तप्राय होने लगे। वर्णाश्रम धर्म छिन्न-भिन्न हो गया, झूठ और कपट सर्वत्र व्याप्त होने लगे। देवता, मुनि और धर्मपरायण जन अतिशय कष्ट पाने लगे। देवताओं ने योगीराज मुद्गल से इस विपत्ति का निवारण पूछा। तब महर्षि मुद्गल ने कहा- "आप लोग सिद्ध क्षेत्र मयूरेश में जाकर तपस्या करें। जिससे प्रसन्न होकर विघ्नहर्ता गणपति स्वयं प्रकट होकर आप सबके संकटों का निवारण करेंगे।"
सभी देवताओं ने एकाक्षरी विधान से भगवान गणेश की उपासना की। इससे प्रसन्न होकर पाश-अङ्कुश धारी मयूर-वाहन महाविकट गजानन भगवान प्रकट हुये। उन्होंने देवताओं से कहा- "वर माँगो, मैं प्रसन्न हूँ।" देवताओं ने गणेश जी से प्रार्थना कर कहा कि, "हे प्रभो! कामासुर के आतङ्क से देवता स्थानभ्रष्ट और मुनिगण कर्मरहित हो गये हैं। आप हमारी रक्षा कीजिये।" देवताओं की प्रार्थना पर भगवान गणेश ने देवताओं को वचन दिया कि वे कामासुर को पराजित करेंगे। इससे देवताओं में उत्साह भाव बढ़ा और वे युद्ध के लिये प्रस्थान करने लगे। कामासुर की सेना और देवताओं के बीच भीषण संग्राम हुआ। इस युद्ध में कामासुर के दो पुत्र शोषण और दुष्पूर मारे गये। इससे क्रुद्ध होकर कामासुर ने भगवान गजानन से कहा, "तुम्हारे वीर देवगण मेरे प्रभाव से मूर्छित पड़े हुये हैं। त्रिलोक को मैंने जीता हुआ है, यदि प्राणरक्षा चाहते हो तो यहाँ से भाग जाओ।"
तब भगवान विकट ने कामासुर से कहा, "तुमने भगवान शिव से प्राप्त वर का दुरुपयोग कर बड़ा अधर्म किया है। मैं सृष्टि-स्थिति-संहारकर्ता और जन्म-मृत्यु से रहित हूँ। तू मुझे किसी स्थिति में भी नहीं मार सकता है। अपने गुरु शुक्राचार्य के उपदेश का स्मरण कर मेरे स्वरूप को समझ। यदि जीवित रहना चाहते हो तो मेरी शरण में आ जाओ। अन्यथा तू निश्चित ही मृत्यु को प्राप्त होगा।"
भगवान विकट के ऊपर उसने गदा से प्रहार करने का प्रयास किया, किन्तु वह तत्काल मूर्छित हो गया। मूर्च्छा टूटने पर उसे भयङ्कर पीड़ा का अनुभव हुआ। इस पर उसे यह समझ में आ गया कि वह भगवान विकट की शरण में गये बिना जीवित नहीं रह सकता है। बिना शस्त्र के यदि वह इतनी पीड़ा दे सकता है तो युद्ध में तो वह निश्चित ही उसे नष्ट कर देगा। भगवान विकट के विषय में उसे बहुत सी शङ्का थी, जिसका समाधान उसने भगवान विकट से पूछा। कामासुर समझ गया कि ये सर्वसमर्थ पूर्ण ब्रह्म हैं। उसने भगवान विकट से क्षमा माँगी और तत्काल ही शान्तिपूर्वक जीवन व्यतीत करने को प्रस्थित हुआ। देवताओं और मुनियों के संकट का निवारण हुआ और सर्वत्र धर्म-प्रधान आचरण होने लगे।