चन्द्र देव हिन्दु धर्म के लोकप्रिय देवताओं में से एक हैं। चन्द्रदेव को रोहिणीनाथ, अत्रिपुत्र, सोम, अनुसूयानन्दन तथा मयन्क आदि नामों से भी सम्बोधित किया जाता है। धर्म ग्रन्थों के अनुसार, चन्द्रदेव का निवास स्थान चन्द्र लोक है। ज्योतिष शास्त्र में चन्द्रमा के विषय में कहा गया है - चन्द्रमा मानसो जातः, अर्थात चन्द्रमा मन का कारक है।
चन्द्रोपासना करने से मानसिक समस्याओं का निवारण होता है तथा आत्मबल में वृद्धि होती है। हिन्दु धर्म ग्रन्थों के अनुसार, जिस समय रात्रिकाल में पापकर्म बढ़ते ही जा रहे थे, उस क्षण उन्हें रोकने हेतु भगवान ब्रह्मा ने चन्द्रमा का स्वरूप धारण किया था। चन्द्रमा जल तत्व के अधिष्ठात्र देवता भी हैं।
एक समय त्रिदेवियों को अपने सतीत्व पर अहम् हो गया। उन्हें यह अभिमान हो गया कि, उनके समान पतिव्रता सम्पूर्ण सृष्टि में कोई नहीं हैे। कुछ समय बाद भगवान विष्णु के परम भक्त देवर्षि नारद का वहाँ आगमन हुआ। देवर्षि नारद को त्रिदेवियों के मन में सतीत्व पर अभिमान का अनुभव हुआ। देवर्षि नारद ने त्रिदेवियों को महर्षि अत्रि की धर्मपत्नी अनुसूया तथा उनके सतीत्व के विषय में बताया। देवर्षि नारद के श्री मुख से अनुसूया जी के सतीत्व की प्रशन्सा सुनकर त्रिदेवियों के अहम् को बहुत ठेस पहुँची।
त्रिदेवियों ने अपने-अपने पतियों अर्थात त्रिदेवों (ब्रह्मा, विष्णु, महेश) से अनुसूया के सतीत्व की परीक्षा लेने का आग्रह किया। पहले तो त्रिदेवों ने ऐसा करने से मना किया, किन्तु तीनों देवियों के मन में उठे अभिमान का शमन करने हेतु अन्ततः उनके आग्रह को स्वीकार कर लिया और त्रिदेव एक साथ महर्षि अत्रि के आश्रम में उपस्थित हुये। अनुसूया के सतीत्व की परीक्षा लेना एवं उसे भङ्ग करना ही तीनों देवों का उद्देश्य था। सर्वप्रथम तीनों देवों ने साधु वेश धारण किया तथा अत्रि ऋषि के आश्रम पहुँचकर अनुसूया जी से भोजन प्रदान करने का निवेदन किया। उस समय अत्रि ऋषि किसी कार्यवश बाहर गये हुये थे।
श्री अनसूया ने साधुओं का ससम्मान स्वागत किया। भोजन का समय होने पर उन साधुवेश धारी त्रिदेवों ने अनुसूया से कहा कि, वे केवल तब ही भोजन ग्रहण करेंगे जब अनसूया वस्त्रहीन हो भोजन परोसेंगी। द्वार पर आये साधुओं का अनादर न हो, इस कारण अनुसूया ने उन साधुओं का निवेदन स्वीकार कर लिया। अनुसूया ने महर्षि अत्रि का चरणोदक जल लेकर मन ही मन अपने पति का स्मरण करते हुये कहा, "यदि मैंने पति के अतिरिक्त कभी किसी अन्य पुरुष का दर्शन न किया हो, यदि मैंने किसी भी देवता को पति के समान न माना हो, यदि मैं सदा मन, वचन एवं कर्म से पति की आराधना में ही लीन रही हूँ, तो मेरे इस सतीत्व के प्रभाव से ये तीनों तत्काल शिशु हो जावें।" तत्पश्चात वह जल तीनों देवों पर छिड़क दिया।
उस दिव्य चरणोदक एवं श्री अनुसूया जी के सतीत्व के प्रभाव से, त्रिदेव छोटे शिशुओं के रूप में परिवर्तित हो गये। शिशुओं के रूप में त्रिदेव माता अनुसूया की गोद में खेलने लगे। तदोपरान्त अनुसूया ने उन्हें दूध-भात खिलाया। त्रिदेवों को अनुसूया जी के आश्रम में बहुत समय व्यतीत हो गया था तथा विलम्ब होने पर भी त्रिदेव अपने धाम नहीं लौटे तब त्रिदेवियाँ उन्हें खोजती हुयी महर्षि अत्रि के आश्रम पहुँच गयीं। त्रिदेवियों अर्थात सरस्वती, लक्ष्मी और पार्वती ने देवी अनुसुया से आग्रह किया कि, वे उनके पतियों को पुनः पूर्व की भाँति स्वरूप प्रदान कर दें। अनुसुया जी तथा उनके पति ने तीनों देवियों का निवेदन स्वीकार कर लिया किन्तु, अनुसूया जी ने कहा कि, "त्रिदेवों ने पुत्र की तरह मेरा स्तनपान किया है, इसीलिये किसी ना किसी रूप में इन्हें मेरे समीप ही रहना होगा।" अनुसुया के वचनों को स्वीकार कर त्रिदेवों ने उनके गर्भ में दत्तात्रेय, दुर्वासा तथा चन्द्रमा रूपी अपने अवतारों को स्थापित कर दिया। उचित समय आने पर अनुसूया के गर्भ से भगवान विष्णु ने दत्तात्रेय, भगवान ब्रह्मा ने चन्द्र तथा भगवान शंकर ने दुर्वासा के रूप में अंशावतार लिया।
धर्म ग्रन्थों के अनुसार, चन्द्रदेव का विवाह रोहिणी, रेवती, कृतिका, मृगशिरा, आद्रा, पुनर्वसु, सुन्निता, पुष्य, अश्लेषा, मेघा, स्वाति, चित्रा, फाल्गुनी, हस्ता, राधा, विशाखा, अनुराधा, ज्येष्ठा, मुला, अषाढ़, अभिजित, श्रावण, सर्विष्ठ, सताभिषक, प्रोष्ठपदस, अश्वयुज तथा भरणी आदि प्रजापति दक्ष की सत्ताईस पुत्रियों के साथ हुआ था। किन्तु सभी पत्नियों में रोहिणी चन्द्रदेव को अधिक प्रिय हैं तथा उनकी मुख्य पत्नी के रूप में रोहिणी का ही वर्णन किया जाता है। महर्षि अत्रि चन्द्रदेव के पिता तथा देवी अनुसूया उनकी माता हैं। भगवान दत्तात्रेय, तथा ऋषि दुर्वासा चन्द्रदेव के सहोदर हैं। चन्द्रदेव के वर्चस और बुध नामक सन्तानें हैं। महाभारत काल के अर्जुन और सुभद्रा के पुत्र अभिमन्यु चन्द्रमा के पुत्र वर्चस के अवतार माने जाते हैं।
चन्द्रदेव को श्वेत वर्ण में चतुर्भुज रूप में दर्शाया जाता है। वह अपनी तीन भुजाओं में कलश, पदम्, गदा धारण करते हैं तथा उनकी चतुर्थ भुजा वरद मुद्रा में रहती है। चन्द्रदेव एक रथ पर आरूढ़ रहते हैं, जिसे मृग खींचते हैं। चन्द्रदेव को सदैव शान्त एवं शीतल भाव-भंगिमा के साथ दर्शाया जाता है। वेदों में चन्द्रमा को विराट पुरुष के वाम नेत्रों की संज्ञा दी गयी है।
वैदिक ज्योतिष के अन्तर्गत चन्द्रमा को स्त्री ग्रह माना जाता है। भचक्र में चन्द्र कर्क राशि का स्वामी होता है। चन्द्र रोहिणी, हस्त तथा श्रवण नक्षत्र का स्वामी है। ज्योतिष के विद्वान चन्द्रमा को मन, माता, मनोबल, बायाँ नेत्र तथा वक्ष का कारक ग्रह माना जाता है। जातक की कुण्डली में चन्द्र की स्थिति अनुकूल न होने की दशा में स्मरण शक्ति, ह्रदय, अनिद्रा, मानसिक तनाव, भावनात्मक असन्तुलन, सर्दी जुखाम, मिर्गी, पागलपन तथा फेफड़ों सम्बन्धी रोग हो सकते हैं। चन्द्रमा की महादशा 10 वर्ष की होती है।
सामुद्रिक शास्त्र के अनुसार, हथेली में मणिबन्ध से ऊपर बाँयी ओर बुध पर्वत के नीचे के स्थान को चन्द्र पर्वत कहा जाता है। चन्द्र पर्वत पर बनी रेखाओं को चन्द्र रेखा अथवा अन्तःप्रेरणा रेखा कहते हैं। इन रेखाओं का अवलोकन कर जातक के मन, स्वभाव, आर्थिक स्थिति तथा आकस्मिक दुर्घटनाओं का विचार किया जाता है।
अङ्क ज्योतिष के अनुसार, चन्द्रमा अङ्क 2 को प्रभावित करता है। यदि किसी जातक का जन्म किसी भी माह की 2, 11, 20 तथा 29 दिनाँक पर होता है, तो उसका मूलाङ्क 2 तथा मूलाङ्क स्वामी चन्द्रमा होगा।
सामान्य मन्त्र-
ॐ सोम सोमय नमः।
बीज मन्त्र-
ॐ श्रां श्रीं श्रौं सः चन्द्राय नमः।
चन्द्र गायत्री मन्त्र-
ॐ अमृताङ्गाय विद्महे, कलारूपाय धीमहि, तन्नः सोमः प्रचोदयात्॥