कलश के नीचे की भूमि को हाथ से स्पर्श करें तथा निम्नलिखित मन्त्र का उच्चारण करें -
ॐ भूरसि भूमिरस्यदितिरसि विश्व-धाया विश्वस्य भुवनस्य धर्त्री।
पृथिवीं यच्छ पृथिवीं दृ ह पृथिवीं मा हि सीः॥
कलश स्थापना के स्थान पर मिट्टी तथा जौ डालें तथा निम्नलिखित मन्त्र का उच्चारण करें -
ॐ धान्यमसि धिनुहि देवान् प्राणायत्वोदानाय त्वा व्यानाय त्वा।
दीर्घामनु-प्रसितिमायुषे द्यां देवो वः सविता हिरण्य-पाणिः।
प्रति-गृभ्णात्वच्छिद्रेण पाणिना चक्षुषे त्वा महीनां पयोऽसि॥
कलश को सावधानीपूर्वक उठाकर उसी स्थान पर स्थापित करें तथा निम्नलिखित मन्त्र का उच्चारण करें -
ॐ आ जिघ्र कलशं मह्या त्वा विशन्ति्वन्दवः।
पुनरूर्ज्जा निवर्तस्व सा नः सहस्रं धुक्ष्वोरु-धारा पयस्वती पुनर्मा विशताद् रयिः॥
कलश में जल अर्पित करें तथा निम्नलिखित मन्त्र का उच्चारण करें -
ॐ वरुणस्योत्तम्भनमसि वरुणस्य स्कम्भ-सर्ज्जनीस्थो।
वरुणस्य ऋत-सदन्यसि वरुणस्य ऋत-सदनमसि वरुणस्य ऋत-सदनमासीद॥
कलश के गले में लाल वस्त्र अथवा मोली लपेटें तथा निम्नलिखित मन्त्र उच्चारण करें -
ॐ वसोः पवित्रमसि शत-धारं वसोः पवित्रमसि सहस्र-धारम्।
देवस्त्वा सविता पुनातु वसोः पवित्रेण शत-धारेण सुप्वा काम-धुक्षः॥
कलश में सुपारी डालें तथा निम्नलिखित मन्त्र का उच्चारण करें -
ॐ याः फलिनीर्या अफला अपुष्पा याश्च पुष्पिणीः।
बृहस्पति-प्रसूतास्ता नो मुंचंत्वं हसः॥
कलश में एक रुपये का सिक्का डालते हुये निम्नलिखित मन्त्र का उच्चारण करें -
ॐ हिरण्य-गर्भः सम-वर्त्तताग्रे भूतस्य जातः पतिरेक आसीत्।
स दाधार पृथिवीं द्यामुतेमां कस्मै देवाय हविषा विधेम॥
गन्ध, रोली आदि अर्पित करें तथा निम्नलिखित मन्त्र का उच्चारण करें -
ॐ गन्ध-द्वारां दुराधर्षां नित्य-पुष्टां करीषिणीं।
ईश्वरीगं सर्व-भूतानां तामिहोपह्वये श्रियम्॥
हल्दी सहित सभी औषधियाँ कलश में डाल दें तथा निम्नलिखित मन्त्र का उच्चारण करें -
ॐ या ओषधीः पूर्वा जाता देवेभ्यस्त्रियुगं पुरा।
मनैनु बभ्रूणा मह शतं धामानि सप्त च॥
कलश में सात प्रकार की मिट्टी डालें तथा निम्नलिखित मन्त्र का उच्चारण करें -
ॐ स्योना पृथिवि! नो भवान्नृक्षरा निवेशिनी।
यच्छा नः शर्म स-प्रथाः॥
कलश पर दूर्वा अर्पित करें तथा निम्नलिखित मन्त्र का उच्चारण करें -
ॐ काण्डात् काण्डात् प्ररोहन्ती परुषः परुषस्परि।
एवानो दूर्वे! प्रतनु सहस्रेण शतेन च॥
कलश पर आम, बरगद, पीपल अथवा गूलर के पत्ते अर्पित करें तथा निम्नलिखित मन्त्र का उच्चारण करें -
ॐ अश्वत्थे वो निषदनम्पर्णे वो वसतिष्कृत।
गोभाज इत्किलासथ यत्स नवथ पूरुषम्॥
कलश पर कुशा अर्पित करें तथा निम्नलिखित मन्त्र का उच्चारण करें -
ॐ पवित्रेस्थो वैष्णव्यौ सवितुर्वः प्रसव उत्पुनाम्यच्छिद्रेण पवित्रेण सूर्यस्य रश्मिभिः।
तस्य ते पवित्र-पते पवित्र-पूतस्य यत् कामः पुनेतच्छकेयम्॥
जौ अथवा चावल से भरा बर्तन कलश पर रखें तथा निम्नलिखित मन्त्र का उच्चारण करें -
ॐ पूर्णादर्वि परापत सु-पूर्णा पुनरापत।
वस्नेव विक्रीणा वहा इष मूर्ज्ज शत-क्रतो॥
अक्षत अर्पित करते हुये वरुण देव की स्थापना करें तथा निम्नलिखित मन्त्र का उच्चारण करें -
ॐ मनो जूतिर्जुषतामाज्यस्य बृहस्पतिर्यज्ञमिमं,
तनो त्वरिष्टं यज्ञ समिमं दधातु।
विश्वे-देवा स इह मादयन्ताम् ॐ प्रतिष्ठ॥
आवाहन मुद्रा, आर्थत् दोनों हथेलियों को जोड़कर तथा दोनों अँगूठों को अन्दर की ओर मोड़कर प्रदर्शित करते हुये वरुण देव के आवाहन हेतु निम्नलिखित मन्त्र का जाप करना चाहिये।
ॐ भूर्भुवः स्वः वरुण! इहागच्छ, इह तिष्ठ, मम पूजां गृहाण।
निम्नलिखित मन्त्रों का जाप करते हुये चन्दन, अक्षत, पुष्प, धूप, दीप, नैवेद्य आदि से श्री वरुण देव का पूजन करें।
ॐ वरुणाय नमः पादयोः पाद्यं समर्पयामि।
ॐ वरुणाय नमः शिरसि अर्घ्यं समर्पयामि।
ॐ वरुणाय नमः गन्धाक्षतं समर्पयामि।
ॐ वरुणाय नमः पुष्पं समर्पयामि।
ॐ वरुणाय नमः धूपं घ्रापयामि।
ॐ वरुणाय नमः दीपं दर्शयामि।
ॐ वरुणाय नमः नैवेद्यं समर्पयामि।
ॐ वरुणाय नमः आचमनीयं समर्पयामि।
ॐ वरुणाय नमः ताम्बूलं समर्पयामि।
ॐ वरुणाय नमः दक्षिणां समर्पयामि।
अन्त में हाथ जोड़कर निम्नलिखित मन्त्र का जाप करते हुये कलश देवता से प्रार्थना करें।
ॐ सरितः सागराः शैलास्तीर्थानि जलदा नदाः।
आयान्तु मम भक्तस्य दुरित-क्षय-कारकाः॥१॥
कलशस्य मुखे विष्णुः कण्ठं रुद्रः समाश्रितः।
मूले तस्य स्थितो ब्रह्मा मध्ये मातृ-गणाः स्मृताः॥२॥
कुक्षौ तु सागराः सप्त सप्त-द्वीपा वसुन्धरा।
ऋग्वेदोऽथ यजुर्वेदः साम-वेदोप्यथर्वणः॥३॥
अङ्गैश्च सहिताः सर्वे कलशं तु समाश्रिताः।
देव-दानव-सम्वादे मथ्यमाने महोदधौ॥४॥
उत्पन्नोऽसि तदा कुम्भ! विधृतो विष्णुना स्वयं।
त्वत्तः सर्वाणि तीर्थानि देवाः सर्वे त्वयि स्थिताः॥५॥
त्वयि तिष्ठन्ति भूतानि त्वयि प्राणाः प्रतिष्ठिताः।
शिवः स्वयं त्वमेवासि विष्णुस्त्वं च प्रजापतिः॥६॥
आदित्या वसवो रुद्रा विश्वेदेवाः स-पैतृकाः।
त्वयि तिष्ठन्ति सर्वेऽपि यतः काम-फल-प्रदाः॥७॥
त्वत्-प्रसादादिमं कर्म कर्तुमीहे जलोद्भव!
सान्निध्यं कुरु मे देव! प्रसन्नो भव सर्वदा॥८॥