माता पार्वती जी ने गणेश जी से कहा कि, "हे वत्स! आषाढ़ कृष्ण चतुर्थी को अत्यन्त शुभदायक एवं मंगलकारी बतलाया गया है। आप उसकी कथा, महात्म्य एवं विधान का वर्णन कीजिये। आषाढ़ माह के गणेश जी का क्या नाम है तथा उनका पूजन किस प्रकार करना चाहिये?" गणेश जी ने उत्तर दिया, "हे माता! पूर्वकाल में इसी प्रश्न को युधिष्ठिर ने पूछा था तथा उन्हें जो भगवान श्रीकृष्ण ने उत्तर दिया था, मैं वही वर्णन कर रहा हूँ, आप श्रवण करें।"
श्रीकृष्ण ने कहा हे, "नृपश्रेष्ठ युधिष्ठिर! गणेश जी की प्रीतिकारक, विघ्ननाशक तथा धर्म ग्रन्थों में वर्णित कथा को कह रहा हूँ, आप सुनें, हे कुन्तीपुत्र! आषाढ़ कृष्ण चतुर्थी के गणेश जी का नाम लम्बोदर है। भगवान लम्बोदर का पूजन शास्त्रसम्मत विधि से ही करें। हे महाराज! द्वापर युग में माहिष्मति नगरी का महीजित नामक राजा था। वह बड़ा ही पुण्यशील एवं प्रतापी राजा था। वह अपनी प्रजा का पालन अपनी सन्तान की भाँति करता था। किन्तु स्वयं सन्तानहीन होने के कारण राजा को समस्त प्रकार के राजपाठ आदि के वैभव से भी सुख का अनुभव नहीं होता था। वेदों में निःसन्तान का जीवन व्यर्थ माना गया है।
यदि सन्तान विहीन व्यक्ति अपने पितरों के निमित्त तर्पण आदि कर जल दान देता है, तो उसके पितृगण उस जल को ग्रीष्म जल के रूप में ग्रहण करते हैं। इसी असमन्जस में राजा का बहुत समय व्यतीत हो गया। उन्होंने पुत्र प्राप्ति के उद्देश्य से नाना प्रकार के तप, दान और यज्ञ आदि कर्म सम्पन्न किये, किन्तु राजा को सन्तान सुख की प्राप्ति नहीं हुयी।
समय व्यतीत होता चला गया और राजा की आयु क्षीण होती गयी। राजा वृद्ध हो गया, किन्तु उसे सन्तान न प्राप्त हुयी। तदोपरान्त राजा ने विद्वान ब्राह्मणों, ज्ञानीजनों एवं प्रजा से इस विषय पर विचार-विमर्श करने का निश्चय किया। राजा ने कहा, "हे ब्राह्मणों तथा प्रजाजनों! हम तो सन्तानहीन ही रह गये, अतः मेरी क्या गति होगी? मैंने जीवन में तो किन्चित भी पाप कर्म नहीं किया। मैंने कभी अत्याचार द्वारा किसी के धन एवं स्त्री का हरण नहीं किया।
मैंने तो सदैव प्रजा का पुत्रवत पालन किया तथा धर्माचरण द्वारा ही शासन किया है। मैंने चोर-डाकुओं तथा दुष्टों को दण्डित किया है। सदैव इष्ट मित्रों के भोजन की व्यवस्था की, गौ, ब्राह्मणों का हित चिन्तन करते हुये शिष्ट पुरुषों एवं सदाचारियों का आदर सत्कार किया है। अतः मुझे पुत्र प्राप्त न होने का क्या कारण हैं?" विद्वान् ब्राह्मणों ने कहा कि, "हे महाराज! हम लोग वह सभी प्रयत्न करेंगे, जिससे आपके वंश की वृद्धि हो।" इस प्रकार कहकर सभी राजा को सन्तान प्राप्ति हेतु किसी युक्ति पर विचार करने लगे। सारी प्रजा राजा के मनोरथ की सिद्धि हेतु ब्राह्मणों के साथ वन में चली गयी। वन में उन लोगों को एक श्रेष्ठ मुनि के दर्शन हुये।
वे मुनिश्रेष्ठ निराहार रहकर कठोर तपस्या में लीन विराजमान थे। ब्रह्माजी के सामान वे आत्मजित, क्रोधजित तथा सनातन पुरुष थे। वे महात्मा सम्पूर्ण वेद-विशारद, दीर्घायु, अनन्त एवं अनेक ब्रह्माओं के ज्ञान से सम्पन्न थे। उनका पवित्र नाम लोमश ऋषि था। प्रत्येक कल्पान्त में उनके एक-एक रोम पतित होते थे। इसीलिये वह लोमश ऋषि के नाम से विख्यात हुये। राजा सहित समस्त प्रजा एवं ज्ञानीजन त्रिकालदर्शी महर्षि लोमश के दर्शन करने लगे। सभी तेजस्वी मुनि के समीप पहुँचे तथा उचित आदर-सम्मान के साथ सभी लोग उनके समक्ष खड़े हो गये।
मुनि के दर्शन पाकर वहाँ उपस्थित सभी लोग प्रसन्न होकर परस्पर कहने लगे कि हम लोगों को सौभाग्य से ही ऐसे मुनि के दर्शन हुये। इनके उपदेश से हम सभी का मंगल होगा, ऐसा निश्चय कर उन लोगों ने मुनिराज से कहा, "हे ब्रह्मऋषि! हम लोगों के दुःख का कारण सुनिये, अपने कष्ट के निवारण हेतु हम लोग आपके समक्ष आये हैं। हे भगवन! कृपया आप ही कोई उपाय सुझायें।" महर्षि लोमश ने पूछा, "सज्जनों! आप लोग यहाँ किस कामना से उपस्थित हुये हैं? मुझसे आपका क्या प्रयोजन है? कृपया स्पष्ट रूप से कहें। मैं आपकी सभी शंकाओं का निवारण करूँगा।"
प्रजाजनों ने उत्तर दिया, "हे मुनिवर! हम माहिष्मति नगरी के निवासी हैं। हमारे राजा का नाम महीजित है। वह राजा ब्राह्मणों का रक्षक, धर्मात्मा, दानवीर, शूरवीर एवं मधुरभाषी है। उस राजा ने हम लोगों का पालन पोषण किया है, परन्तु ऐसे उत्तम राजा को आज तक सन्तान प्राप्ति नहीं हुयी है। हे भगवन्! माता-पिता तो केवल जन्मदाता ही होते हैं, किन्तु राजा ही वास्तव में पोषक एवं सम्वर्धक होता है। उसी राजा के निमित्त हम लोग इस सघन वन में उपस्थित हुये हैं। हे महर्षि! आप कोई ऐसी युक्ति बताइये, जिससे राजा को सन्तान की प्राप्ति हो, क्योंकि ऐसे गुणवान राजा को कोई पुत्र न हो, यह बड़े दुर्भाग्य का विषय है। हम लोग परस्पर विचार-विमर्श करके इस घनघोर वन में आये हैं। उनके सौभाग्य से ही हम लोगों ने आपका दर्शन किया है। हे मुनिवर! किस व्रत, दान, पूजन आदि अनुष्ठान कराने से राजा को पुत्र होगा। आप कृपा करके वर्णन करें।"
प्रजा की बात सुनकर महर्षि लोमश ने कहा, "हे भक्तजनों! आप लोग ध्यानपूर्वक सुनो। मैं संकट नाशन व्रत का वर्णन कर रहा हूँ। यह व्रत निःसन्तान को सन्तान और निर्धनों को धन प्रदान करता है। आषाढ़ कृष्ण चतुर्थी को एकदन्त गजानन नामक गणेश की पूजा करें। पूर्वोक्त विधि से राजा व्रत करके श्रद्धापूर्वक ब्राह्मण भोजन करावें और उन्हें वस्त्र दान करें। गणेश जी की कृपा से उन्हें अवश्य ही पुत्र रत्न की प्राप्ति होगी।" महर्षि लोमश की यह बात सुनकर सभी लोग करबद्ध होकर उठ खड़े हुये। नतमस्तक होकर दण्डवत प्रणाम करके समस्त प्रजा जन नगर में लौट आये। प्रजाजनों ने वन में घटित सभी घटनाओं का वर्णन राजा के समक्ष किया।
प्रजाजनों की बात सुनकर राजा बहुत ही प्रसन्न हुये तथा उन्होंने श्रद्धापूर्वक विधिवत गणेश चतुर्थी का व्रत करके ब्राह्मणों को भोजन वस्त्रादि का दान दिया। रानी सुदक्षिणा को गणेश जी कृपा से सुन्दर एवं सुलक्षण पुत्र प्राप्त हुआ।"
श्रीकृष्ण जी ने कहा, "हे राजन! इस व्रत का ऐसा ही दिव्य प्रभाव हैं। जो व्यक्ति इस व्रत को श्रद्धा पूर्वक करता है, वह समस्त प्रकार के सांसारिक सुखों को भोगता है। हे महाराज! आप भी इस व्रत को विधिपूर्वक कीजिये। श्री गणेश जी की कृपा से आपकी सभी मनोकामनायें पूर्ण होगी। आपके सम्पूर्ण शत्रुओं का विनाश होगा तथा आपको अचल राज्य की प्राप्ति होगी।"
श्रीकृष्ण जी अनन्तर कहते हैं, "हे राजन्! हे भूप शिरोमणि युधिष्ठिर! जो पुरुष इस व्रत का भक्तिपूर्वक पालन करते हैं, वे चाहें एकान्त में तप करने वाले ऋषि-मुनि हों अथवा विद्वान हों, उन्हें निश्चय ही निर्विघ्न रूप से पुत्र-पौत्रादि की प्राप्ति होती है। भगवान गणेश की इस पावन कथा का पाठ एवं श्रवण करने वाले को समस्त कार्यों में सिद्धि प्राप्त होती है तथा विघ्न-बाधाओं का निवारण होता है।"