भगवान विष्णु के प्रमुख दशावतारों में तृतीय वराह अवतार है। हिन्दु पञ्चाङ्ग के अनुसार भाद्रपद शुक्ल पक्ष तृतीया तिथि को भगवान विष्णु ने वराह अवतार धारण किया था। भगवान विष्णु के भक्तों द्वारा भाद्रपद शुक्ल तृतीया को वराह जयन्ती के रूप में मनाया जाता है। संस्कृत में वराह का तात्पर्य सूकर से होता है। अतः सूकर के रूप में अवतरित होने के कारण भगवान विष्णु के इस अवतार को वराह अवतार के रूप में जाना जाता है।
धर्मग्रन्थों में भगवान विष्णु के तीन प्रकार के वराह अवतारों का वर्णन प्राप्त होता है। जिन्हें नील वराह, आदि वराह एवं श्वेत वराह के रूप में जाना जाता है। इन्हीं अवतारों के आधार पर वर्तमान कल्प को श्वेत वराह कल्प के रूप में जाना जाता है।
मान्यताओं के अनुसार सर्वप्रथम भगवान नील वराह अवतरित हुये। नील वराह काल के पश्चात् आदि वराह काल तथा तदुपरान्त श्वेत वराह काल का प्रादुर्भाव हुआ था। नील वराह को यज्ञ वराह तथा आदि वराह को कपिल वराह के रूप में भी पूजा जाता है। वराह अवतार को वराहावतार के रूप में भी लिखा जाता है।
श्रीमद्भागवत महापुराण के तृतीय स्कन्ध के एकादश अध्याय में प्राप्त वर्णन के अनुसार पद्मकल्प के अन्त में घोर प्रलय का आगमन हुआ। सूर्य एवं चन्द्रमादि प्रलयरात्रि में लुप्त हो गये। भूः, भुवः, स्वः तीनों लोक भगवान ब्रम्हा की देह में समाहित हो गये। शेषजी के मुख से उत्पन्न अग्निरूप भगवान की शक्ति के तेज से तीनों लोक जलने लगे। तत्पश्चात् सातों समुद्रों ने प्रलयकाल के प्रचण्ड प्रभाव से तीनों लोकों को जलमग्न कर दिया। उस समय उस जल के भीतर शेषशायी भगवान विष्णु योगनिद्रा में शयन कर रहे थे। सम्पूर्ण सृष्टि को जलमग्न होते देख ब्रह्मा जी ने भगवान श्री हरि विष्णु का ध्यान किया तथा सृष्टि रक्षा करने की प्रार्थना की।
भगवान ब्रह्मा के निवेदन पर भगवान विष्णु स्वयं नील वराह रूप में अपनी अर्धांगिनी नयना देवी एवं वराही सेना सहित प्रकट हुये। तदुपरान्त उन्होंने जलमग्न पृथ्वी को जल से सुरक्षित करने हेतु अपने तीक्ष्ण दन्तों एवं खुरों के प्रहार से पर्वतों का भेदन कर मिट्टी के विशाल टीलों को जल में डालकर पृथ्वी को स्थापित किया। प्रलयकाल का जल समाप्त होने के पश्चात् नील वराह भगवान द्वारा स्थापित पृथ्वी पर अनेक प्रकार के वन-उपवन, कुण्ड-सरोवर एवं लता-पताओं आदि का उद्भव हुआ। इस प्रकार भगवान नील वराह अवतार की कथा सम्पन्न होती है।
एक समय की बात है, सनकादि ऋषि अर्थात् सनक, सनन्दन, सनातन एवं सनत्कुमार भगवान विष्णु के दर्शन करने हेतु उनके वैकुण्ठ लोक में गये। वैकुण्ठ के द्वार पर जय एवं विजय नाम के दो द्वारपाल उपस्थित थे। जय-विजय ने सनकादि ऋषियों को वैकुण्ठ द्वार से प्रवेश करने पर रोक लगा दिया तथा सनकादि ऋषियों द्वारा नाना प्रकार से समझाने पर भी उन्हें वैकुण्ठलोक में प्रवेश नहीं करने दिया।
जय एवं विजय द्वारा बारम्बार मार्ग रोकने पर सनकादि ऋषियों ने कुपित होकर कहा, "भगवान विष्णु के सानिध्य में रहने के उपरान्त भी तुम दोनों में अहङ्कार आ गया है तथा अहङ्कारी का वैकुण्ठ में कोई स्थान नहीं हो सकता। अतः हम तुम्हें श्राप देते हैं कि तुम दोनों पापयोनि प्राप्त करोगे तथा अपने पाप का दण्ड भुगतोगे।" सनकादि ऋषियों के श्राप से भयभीत होकर जय एवं विजय उनके चरणों में नतमस्तक होकर क्षमा-याचना करने लगे।
सनकादि ऋषियों के आगमन की सूचना प्राप्त होते ही भगवान विष्णु देवी लक्ष्मी एवं समस्त पार्षदों सहित उनके स्वागत हेतु उपस्थित हुये। भगवान विष्णु ने सनकादि ऋषियों से कहा, "हे मुनीश्वरों! ये जय एवं विजय नाम के मेरे पार्षद हैं। इन दोनों ने अहङ्कार के वशीभूत होकर आपका अपराध किया है। आप मेरे परम भक्त हैं तथा इन्होंने आपकी अवज्ञा करके मेरी भी अवज्ञा की है। इन्हें श्रापित कर आपने उत्तम ही किया है। इन दोनों ने ब्राह्मणों का तिरस्कार किया है, जिसे मैं अपना ही तिरस्कार मानता हूँ। मैं इन पार्षदों की ओर से क्षमा-याचना करता हूँ। सेवकों का अपराध होने पर भी संसार स्वामी का ही अपराध मानता है। अतः मैं आप लोगों की प्रसन्नता की याचना करता हूँ।"
भगवान विष्णु के श्रीमुख से मधुर वचनों का श्रवण करके सनकादि ऋषियों का क्रोध तत्क्षण शान्त हो गया। भगवान की इस उदारता से सनकादि ऋषियों ने प्रसन्न होकर कहा, "आप धर्म की मर्यादा हेतु ब्राह्मणों का इतना आदर करते हैं। हे प्रभो! हमने इन निरपराध पार्षदों को क्रोध के वशीभूत होकर श्राप दे दिया है, हम क्षमाप्रार्थी हैं। अतः यदि आप उचित समझें तो इन द्वारपालों को क्षमा करके हमारे श्राप से मुक्त कर दें।"
भगवान विष्णु ने कहा, "हे मुनिगणों! मै सर्वशक्तिमान होने के उपरान्त भी ब्राह्मणों के वचन को असत्य नहीं करना चाहता। आपने जो श्राप दिया है वह मेरे द्वारा ही प्रेरित है। ये तीन जन्म असुर योनि को प्राप्त करेंगे तथा मेरे द्वारा इनका उद्धार होगा। ये मेरे प्रति शत्रुभाव रखते हुये भी मेरे ही ध्यान में लीन रहेंगे। मेरे द्वारा इनका संहार होने के पश्चात् ये पुनः वैकुण्ठ धाम को प्राप्त करेंगे।
सनकादि ऋषियों के श्राप के प्रभाव से जय एवं विजय महर्षि कश्यप की पत्नी देवी दिति के गर्भ में आ गये। कालान्तर में दिति के गर्भ से दो पुत्र उत्पन्न हुये, जिनका नाम महर्षि कश्यप ने हिरण्यकशिपु एवं हिरण्याक्ष रखा। जन्म लेते ही दोनों दैत्यों के आकार में अप्रत्याशित वृद्धि होने लगी तथा वे अत्यन्त विशाल हो गये। हिरण्यकशिपु ने अपने तपोबल से भगवान ब्रह्मा को प्रसन्न कर उनसे यह वरदान प्राप्त कर लिया कि उसकी मृत्यु न दिन में हो न रात्रि में, न भवन के भीतर हो न बाहर। इस प्रकार से निरंकुश होकर वह तीनों लोकों पर शासन करने लगा।
हिरण्यकशिपु का अनुज भ्राता हिरण्याक्ष उसका अनुसरण करते हुये समस्त प्राणियों को प्रताणित करने लगा। एक दिन हिरण्याक्ष वरुण देव की नगरी में जा पहुँचा। पाताल लोक में पहुँच कर हिरण्याक्ष ने वरुण देव से युद्ध की याचना करते हुये कहा, "हे वरुण देव! आपने जगत के सम्पूर्ण दैत्यों तथा दानवों पर विजय प्राप्त किया है। मैं आपसे युद्ध की भिक्षा माँगता हूँ। आप मुझसे युद्ध करके अपने युद्ध कौशल का प्रमाण दें।"
उस दैत्य के कथन से वरुण देव अत्यन्त क्रोधित हुये किन्तु उस अभिमानी दैत्य का मन्तव्य समझते हुये वे हँसते हुये बोले, "मुझे युद्ध में कोई रुचि नहीं है एवं तुम्हारे समान परम बलवान व वीर योद्धा से युद्ध करने के योग्य मैं नहीं हूँ। यदि तुम युद्ध करना ही चाहते हो तो श्री हरि विष्णु के समीप जाओ, वही तुमसे युद्ध करने योग्य हैं।"
वरुण देव का कथन सुनकर हिरण्याक्ष देवर्षि नारद के समीप श्री नारायण का पता पूछने गया। देवर्षि नारद ने उसे बताया कि नारायण इस समय वराह रूप धारण कर पृथ्वी को रसातल से निकालने के लिये गये हैं। यह सुनते ही हिरण्याक्ष भी रसातल में पहुँच गया। वहाँ उसने देखा कि भगवान वराह अपनी दाढ़ पर पृथ्वी को स्थापित कर लिये जा रहे हैं। उस महाबली दैत्य ने वराह भगवान से कहा, "अरे ओ वन्य पशु! तू जल में कहाँ से आ गया है? मूर्ख पशु! तू इस पृथ्वी को कहाँ लिये जा रहा है? इसे तो ब्रह्मा जी ने हमें प्रदान किया है। रे अधम! तू मेरे रहते इस पृथ्वी को रसातल से नहीं ले जा सकता। तू दानवों का शत्रु है, अतः आज मैं तेरा वध कर डालूँगा।"
हिरण्याक्ष के इन वचनों को सुनकर वराह भगवान अत्यन्त क्रोधित हुये, किन्तु उन्होंने पृथ्वी को रसातल में छोड़कर युद्ध करना उचित नहीं समझा तथा हिरण्याक्ष के कटु वचनों का सहन करते हुये जल से बाहर आ गये। उनका पीछा करते हुये हिरण्याक्ष भी आया तथा उन्हें युद्ध के लिये ललकारते हुये कहने लगा, "रे कायर! तुझे भागने में लज्जा नहीं आती? आकर मुझसे युद्ध कर।"
पृथ्वी को जल में उचित स्थान पर स्थापित करके भगवान वराह ने उस दुष्ट से कहा, "अरे ग्राम सिंह! हम तो वन्य पशु हैं तथा तुम समान ग्राम सिंहों को ही ढूँढते रहते हैं। अब तेरी मृत्यु निकट है।" यह सुनकर हिरण्याक्ष ने उन पर आक्रमण कर दिया। भगवान वराह एवं हिरण्याक्ष के मध्य अनेक वर्षों तक भीषण युद्ध हुआ। अन्ततः भगवान वराह ने हिरण्याक्ष का वध कर दिया। जिसके पश्चात् ब्रह्मा जी सहित समस्त देवगणों ने आकाश से पुष्प वर्षा कर भगवान वराह की स्तुति की।
धर्मग्रन्थों में प्राप्त वर्णन के अनुसार द्रविड़ देश में सुमति नाम का राजा शासन करता था। सुमति का एक पुत्र था जिसका नाम विमति था। वृद्धावस्था समीप होने पर सुमति ने अपना राजपाठ अपने पुत्र को सौंप दिया तथा स्वयं तीर्थाटन हेतु निकल गया। तीर्थयात्रा के समय मध्य मार्ग में ही किसी तीर्थस्थल पर उसकी मृत्यु हो गयी। सुमति की मृत्यु के उपरान्त महर्षि नारद उसके पुत्र विमति के समक्ष गये तथा उससे कहा, "सुपुत्र अर्थात् वास्तविक पुत्र वही होता है, जो अपने पिता के ऋण से उऋण हो।"
विमति ने अपने मन्त्रियों से इस विषय में विचार-विमर्श करते हुये पूछा, "पिता के ऋण से किस प्रकार ऋणमुक्त हुआ जाये? मन्त्रियों ने उत्तर दिया, "राजन् आपके पिताजी की हत्या तीर्थों ने की है, अर्थात् तीर्थों से प्रतिशोध लेना चाहिये।" राजा ने कहा, "तीर्थ तो अगणित हैं।" तत्पश्चात् एक मन्त्री ने सुझाव दिया, "जो समस्त तीर्थों की प्रमुख नगरी है उसी को नष्ट कर देना चाहिये।"
मन्त्रियों के परामर्श पर दक्षिण देश के उस शक्तिशाली राजा ने तीर्थों को नष्ट करने का निर्णय किया, जिसके फलस्वरूप उत्तर भारत की तीर्थ नगरी के लोगों में भय व्याप्त हो गया। तदुपरान्त वहाँ के निवासियों ने उत्तरी ध्रुव के हिमयुक्त क्षेत्र की ओर प्रस्थान किया। उस काल में वह क्षेत्र स्वर्ग अथवा देवलोक के रूप में जाना जाता था। उत्तरी ध्रुव में अवस्थित श्वेतद्वीप पर उन्हें भगवान श्वेत वराह के दर्शन हुये। भगवान श्वेत वराह ने उन विष्णु भक्त प्रजा को अभयदान दिया। तत्पश्चात् भगवान श्वेत वराह एवं राजा विमति के मध्य भीषण युद्ध हुआ। अन्ततः भगवान श्वेत वराह ने राजा विमति एवं उसकी सम्पूर्ण सेना को परास्त कर दिया।
भगवान वराह के नील वराह स्वरूप में उनकी अर्धांगिनी नयना देवी हैं तथा आदि वराह स्वरूप में भूमि देवी को उनकी धर्मपत्नी के रूप में वर्णित किया गया है। धर्मग्रन्थों के अनुसार भगवान वराह का प्राकट्य ब्रह्मा जी की नासिका से हुआ था, जिसके कारण भगवान ब्रह्मा को उनका पिता भी माना जाता है।
भगवान वराह से सम्बन्धित चित्रों में उन्हे नीलवर्ण वाले चतुर्भुज रूप में दर्शाया जाता है। वे अपनी चार भुजाओं में शङ्ख, चक्र, गदा एवं पद्म धारण करते हैं। भगवान वराह का मुख सूकर का तथा शेष देह मनुष्य की है। वे सुन्दर स्वर्णाभूषणों से अलङ्कृत हैं तथा पीताम्बरी धारण किये हुये हैं। भगवान वराह को अपने दाँत पर पृथ्वी धारण किये हुये चित्रित किया जाता है।
वराह भगवान से सम्बन्धित कुछ अन्य चित्रों में भूमि देवी को उनकी जङ्घा पर विराजमान दर्शाया जाता है।
सामान्य मन्त्र -
ॐ वराहाय नमः।
वराहावतार मन्त्र -
ॐ धृतसूकररूपकेशवाय नमः।
वराह गायत्री मन्त्र -
ॐ धनुर्धराय विद्महे वक्रदंष्ट्राय धीमहि।
तन्नो वराहः प्रचोदयात्॥