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Lord Dhumravarna - Eighth Form of Lord Ganesha

DeepakDeepak

Lord Dhumravarna

भगवान धूम्रवर्ण

भगवान गणेश के इस स्वरूप को 'शिवब्रह्म' स्वरूप माना गया है। जैसा कि नाम से ही स्पष्ट हो रहा है, अपने इस स्वरूप में गणपति धूम्र वर्ण के होकर अपनी लीला का विस्तार करते हैं। भगवान धूम्रवर्ण ने 'अभिमानासुर' के संहार के लिये अवतार धारण किया था। मुद्गल पुराण में प्राप्त वर्णन के अनुसार, एक बार लोक पितामह ब्रह्मा जी ने सहस्रांशु सूर्यदेव जी को कर्म फलप्रदाता के पद पर अभिषिक्त कर दिया। इसके कारण सूर्यदेव के मन में कुछ मात्रा में अहङ्कार का उदय हो गया। उन्हें ऐसा विचार आया कि, 'कर्म प्रभाव से ही सृष्टि की रचना पितामह ब्रह्मा जी करते हैं, कर्म प्रभाव से ही विष्णु जी सृष्टि का पालन, कर्म प्रभाव से ही शिव संहार में समर्थ हैं तथा कर्म के फलस्वरूप ही शक्ति सृष्टि की पालिका और पोषिका हैं। यह समस्त संसार कर्माधीन है और मैं उन सभी कर्मों का संचालक देवता हूँ। इस दृष्टि से सर्व देवता मेरे अधीन हैं।'

Lord Dhumravarna
भगवान धूम्रवर्ण - भगवान गणेश का आठवाँ स्वरुप

यह विचार करते समय ही सूर्यदेव को अचानक छींक आ गयी, जिससे एक महाबलवान, विशालाक्ष और महाकाय पुरुष उत्पन्न हुआ। वह सर्वाङ्ग सुन्दर पुरुष विद्वान गुरु शुक्राचार्य के पास जा पहुँचा। तब शुक्राचार्य ने उस पुरुष से उसका परिचय पूछा। तब उस पुरुष ने शुक्राचार्य जी को उत्तर देते हुये कहा कि, "मेरा जन्म भगवान सूर्यदेव की छींक से हुआ है। इस पृथ्वी पर सर्वथा अनाश्रित हूँ। मैं आपके ही अधीन रहना चाहता हूँ और आपकी प्रत्येक आज्ञा का पालन करूँगा।" तब शुक्राचार्य कुछ समय के लिये ध्यानस्थ हुये और उन्होने कहा, "तुम्हारा जन्म सूर्यदेव के अहंभाव से हुआ है अतः तुम्हारा नाम 'अहम्' होगा। तुम तपश्चर्या के द्वारा शक्ति अर्जित करो।"

इसके बाद शुक्राचार्य ने उसे भगवान गणेश के षोडशाक्षरी मन्त्र का उपदेश किया। जिसके बाद वह तप के लिये वन की ओर चला गया। जहाँ वह घनघोर तपस्या में रत हो गया। वह गर्मी, सर्दी और वर्षा सहते हुये गुरुप्रदत्त मन्त्र का दिव्य सहस्र वर्ष तक जप करता रहा। इससे प्रसन्न होकर भक्तवत्सल मूषक-वाहन, त्रिनेत्र, गजवक्त्र, एकदन्त, शूपकर्ण और पाशादि से सुशोभित चतुर्भुज महोदर भगवान प्रकट हो गये। तब अहन्तासुर ने भावपूर्वक उनके चरणों का पूजन और स्तवन किया। इससे भगवान लम्बोदर सन्तुष्ट हो गये और उन्होने उससे वर माँगने को कहा। इस पर उसने जो वर माँगा वह इस प्रकार है, अहन्तासुर ने गणेश जी से कहा, "हे प्रभो! मुझे अपनी भक्ति प्रदान कीजिये। मेरी समस्त कामनायें पूर्ण हों। मुझे अमोघस्त्र प्रदान करें और समस्त ब्रह्माण्ड का राज्य प्रदान करें। किसी भी तरह के मायाविकार से मेरी मृत्यु न हो।" गणेश जी उसे 'तथास्तु' का वरदान देकर अन्तर्धान हो गये।

भगवान गणेश से वरदान पाकर अहन्तासुर अपने नगर की ओर चल पड़ा। जहाँ उसने शुक्राचार्य से अपने तप और उससे प्राप्त वर का वृत्तान्त बताया। जिसे सुनकर शुक्राचार्य बेहद प्रसन्न हुये। उन्होने सभी असुरों और दैत्यों को बुलाकर अहन्तासुर की श्रेष्ठता का बखान किया। जिसे सुनकर सभी ने उसके अधीन रहना स्वीकार लिया। अहन्तासुर को शुक्राचार्य ने दैत्याधीश के रूप में अभिषिक्त कर दिया। इस अवसर पर बड़ा उत्सव हुआ और उसके रहने के लिये एक विशाल 'विषयप्रिय' नामक नगर का निर्माण कराया गया। कुछ समय पश्चात प्रमादासुर ने अपनी कन्या 'ममता' से दैत्यराज का विवाह करवा दिया। समय व्यतीत हुआ और ममता ने गर्व एवं श्रेष्ठ नामक दो पुत्रों को जन्म दिया।

एक दिन प्रमादासुर ने अपने दामाद अहन्तासुर से कहा कि, "तुमने सर्वत्र विजय और निर्भयता का वरदान प्राप्त किया है, अतः व्यर्थ में अपना समय क्यों नष्ट कर रहे हो, जाओ और त्रैलोक्य में अपनी विजय पताका फैलाओ।" अपने श्वसुर के वचनों को सुनकर अहन्तासुर ब्रह्माण्ड विजय की यात्रा पर निकल पड़ा। समस्त लोकों में त्राहि-त्राहि मच गयी। असुरों ने भयङ्कर मार-काट मचायी और अहन्तासुर ने समस्त सप्तद्वीपीय पृथ्वी पर अधिकार कर लिया। तत्पश्चात उसने पाताल की ओर प्रस्थान कर उसे भी अपने नियन्त्रण में ले लिया। पाताल विजय के पश्चात उसने स्वर्ग पर भीषण आक्रमण किया। गणपति द्वारा प्रदत्त अमोघास्त्र से उसने सभी देवों को पराजित कर दिया। यहाँ तक कि, भगवान विष्णु भी उसे न रोक सके। अहन्तासुर के प्रभाव से बचने के लिये देवता, ऋषि और धर्मात्मा पुरुष गिरि-कन्दराओं में छिपकर रहने लगे। अहन्तासुर मद्य और माँस का सेवन तो करता ही था, वह मनुष्यों, नागों और देवताओं की कन्याओं का बलात् अपहरण कर निर्लज्जतापूर्वक उनका शील हरण करता था। इन पापों के प्रभाव से उसने विघ्नराज की विस्मृति कर दी।

एक दिन उसकी सभा में अधर्मधारक नामक असुर उपस्थित हुआ। उसने दैत्यराज से निवेदन किया, "हे राजन! आपने भले ही सारे संसार पर नियन्त्रण स्थापित कर लिया है किन्तु अमरगण सिद्ध सन्त और देवता अब भी वनों और गुफाओं में छिपकर हमारे समूलोन्मूलन के लिये उद्योग कर रहे हैं। वे कभी भी हमारा सर्वनाश कर सकते हैं। अतएव उनको नष्ट करने लिये प्रयत्न करना चाहिये। अमरों का पोषण यज्ञादि कर्मों से होता है। यज्ञादि कर्म के समाप्त होते ही, वे स्वतः समाप्त हो जायेंगे।" अहन्तासुर ने अधर्मधारक के परामर्श को मानते हुये यज्ञादि कर्मों का खण्डन करना प्रारम्भ कर दिया। वर्णाश्रम धर्म छिन्न-भिन्न हो गया। दुरात्मा असुरों ने देवताओं को अतिशय दुःख देने के उद्देश्य से पर्वतों और वनों को नष्ट करने लगे। अहन्तासुर ने देवालयों से गणेश जी की प्रतिमाओं को निष्कासित करवा दिया तथा स्वयं अपनी पूजा करवानी प्रारम्भ कर दी। इससे अधर्मधारक अत्यन्त प्रसन्न हुआ।

सभी देवताओं ने एकत्र होकर इस समस्या पर विचार किया। व्यथित ब्रह्मा जी ने सभी देवताओं से कहा कि, "अहन्तासुर गणनाथ के वर से मत्त होकर उत्पात मचा रहा है, ऐसे में हमें उन्हीं भगवान करुणामूर्ति विघ्नेशवर की आराधना करनी चाहिये। जिससे वे प्रसन्न होकर हमारा दुःख दूर करें।" लगभग सौ वर्षों तक देवताओं ने भगवान गणेश के एकाक्षरी मन्त्र से आराधना की। इससे भगवान विघ्नेशवर द्विरदानन प्रकट हुये। देवताओं से प्रसन्न होकर धूम्रवर्ण प्रभु के चरणों में प्रणाम किया। भगवान धूम्रवर्ण का विधिवत स्तवन के पश्चात उन्होने प्रार्थना की, "हे कृपामय प्रभो! हमारी विपत्तियों को दूर करें।" विघ्नराज धूम्रवर्ण ने 'तथास्तु' का वरदान दिया और वे अदृश्य हो गये। देवतागण भी उचित समय की प्रतीक्षा करने लगे।

भगवान धूम्रवर्ण ने उसी रात्रि को अहन्तासुर को स्वप्न में दर्शन दिया। भगवान के तेजस्वी स्वरूप को देखकर राक्षस भयभीत हो गया। उसने अपने साथी असुरों को उस स्वप्न के विषय में बताया कि, उसने प्रत्यक्ष क्रोधपूर्ण भंगिमा में भगवान धूम्रवर्ण का दर्शन किया, जहाँ उन्होने असुरों के नगर को भस्म कर दिया। देवगण पुनः स्वतन्त्र हो गये, किन्तु अहन्तासुर के दरबारियों ने उससे कहा कि उसे निर्भयता का वरदान स्वयं गणेश जी से ही प्राप्त हुआ है, इसीलिये चिन्ता का कोई कारण ही नहीं। वैसे भी स्वप्न में देखा गया जय-पराजय, मृत्यु आदि मिथ्या ही सिद्ध होते हैं। स्वप्न के इस संकेत को मिथ्या मानकर दैत्य ने उसे हास्य-विनोद में ले लिया। तदोपरान्त, भगवान धूम्रवर्ण ने देवर्षि नारद को दूत बनाकर भेजा। नारद जी ने अहन्तासुर को भगवान गणेश की शरण में जाने का सन्देश दिया। किन्तु इससे वह और भी कुपित हो गया। देवताओं ने पुनः भगवान धूम्रवर्ण से प्रार्थना की तब भगवान ने देवताओं से कहा कि "आप सब मेरी लीला का दर्शन करें, मैं निश्चित ही उस अहन्तासुर का वध कर दूँगा।" तत्पश्चात भगवान धूम्रवर्ण ने अपना दिव्य पाश छोड़ दिया। वह असुरों का भयङ्कर संहार करने लगे। असुरों ने भयङ्कर प्रयत्न किये, किन्तु उस पाश की ज्वाला से सब भस्मीभूत होते चले गये। भगवान धूम्रवर्ण ने अहन्तासुर के पुत्रों का भी वध कर दिया। इससे वह असुर भयङ्कर क्रोध में आकार रणक्षेत्र में उतर आया। उसने युद्ध में अपने सभी अमोघास्त्रों का प्रयोग कर लिया, किन्तु वे सभी निष्फल होने लगे। विस्मय में आकर वह युद्धभूमि से भाग निकला और सीधे शुक्राचार्य के पास गया। उसने शुक्राचार्य से वरदान में प्राप्त अमोघ अस्त्रों के निष्फल होने के कारण के विषय में पूछा। तब शुक्राचार्य ने उसे बताया कि "मायातीत भगवान गणेश की वाणी कभी मिथ्या नहीं होती। वे देवताओं, मनुष्यों और असुरों के निर्विघ्न जीवन-यापन की व्यवस्था करते हैं। तूने उनके वर से त्रिलोक में सबको कष्ट दिया। इससे वो कुपित हो चले हैं। यदि अपनी प्राणरक्षा करना चाहता है, तो उनकी शरण में चला जा।"

घबराकर अहन्तासुर भगवान धूम्रवर्ण के पाश का स्तवन करने लगा। इससे वह पाश शान्त हो गया और अपने स्वामी भगवान धूम्रवर्ण के कर-कमलों में वापस चला गया। अहन्तासुर भगवान धूम्रवर्ण के चरणों में गिर पड़ा। उसकी स्तुति और पूजन से भगवान प्रसन्न हो गये और उन्होंने उसे अपनी भक्ति प्रदान करते हुये कहा, "हे महासुर! जहाँ तीर्थ, मन्दिर आदि में मेरा पूजन नहीं होता वहाँ का भोग तुम ग्रहण करो और आसूर स्वभाव के कारण उन कार्यों में विघ्न उत्पन्न करो। अब तुम अपने नगर की ओर जाओ और मेरे भक्तों की सदा रक्षा करते रहो।"

इस प्रकार देवगणों सहित तीनों लोकों को अहन्तासुर ने मुक्ति मिल गयी। पुनः वेद धर्म की स्थापना होने से सृष्टि का संचालन विधिपूर्वक होने लगा। अन्त में पुनः सभी ने विघ्नहर्ता भगवान धूम्रवर्ण की प्रार्थना की और उनका शुभ आशीष ग्रहण किया।

Kalash
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