
चतुर्थी कल्प का विस्तृत वर्णन करने के उपरान्त सुमन्तु मुनि ने राजा शतानीक से कहा - "हे राजन्! अब मैं पञ्चमी कल्प का वर्णन कर रहा हूँ, ध्यानपूर्वक श्रवण करो। नागों को पञ्चमी तिथि अत्यन्त प्रिय एवं आनन्द प्रदान करने वाली है। पञ्चमी तिथि पर नागलोक में विशेष महोत्सव का आयोजन होता है। इस दिन जो मनुष्य नागों को दुग्ध स्नान कराता है, उसके कुल को वासुकि, तक्षक, कालिय, मणिभद्र, ऐरावत, धृतराष्ट्र, कर्कोटक एवं धनञ्जय, ये सभी महान नाग अभय दान देते हैं तथा उसका कुल सर्प के भय से सुरक्षित रहता है।
कालान्तर में एक समय माता के श्राप से सभी नाग दग्ध होने लगे थे। इसीलिये उस दाह की पीड़ा का शमन करने हेतु मनुष्य वर्तमान में भी पञ्चमी तिथि पर गोदुग्ध से नागों को स्नान कराते हैं। ऐसा करने से सर्प-भय से मुक्ति मिलती है।"
राजा ने जिज्ञासावश प्रश्न किया - "हे मुनिवर! नागमाता ने नागों को श्राप क्यों दिया था तथा किस प्रकार उनकी रक्षा हुयी? कृपा करके आप इसका विस्तृत वर्णन करें।"
सुमन्तु मुनि ने उत्तर दिया - "हे राजन्! प्राचीनकाल का प्रकरण है। एक समय भगवान विष्णु के निर्देशानुसार अमृत प्राप्ति के उद्देश्य से देवताओं एवं दैत्यों ने संयुक्त रूप से समुद्रमन्थन किया। मन्थन द्वारा समुद्र से अत्यन्त श्वेत वर्ण का एक अश्व प्रकट हुआ जिसका नाम उच्चैःश्रवा था। उच्चैःश्रवा का दर्शन कर नागमाता कद्रू ने अपनी सपत्नी अर्थात् सौत विनता से कहा - 'यह अश्व श्वेतवर्ण का है, किन्तु इसके केश श्याम वर्ण के अर्थात् काले प्रतीत होते हैं।' नागमाता कद्रू के वचन सुनकर विनता ने कहा - 'यह अश्व न तो पूर्णतः श्वेत है, न ही श्याम तथा न ही रक्त वर्ण का है।'
यह सुनकर आवेश में माता कद्रू ने कहा - 'ऐसा है तो तुम मुझसे दाँव लगाओ कि यदि मैं यह सिद्ध कर दूँ कि अश्व के केश कृष्ण वर्ण के हैं तो तुम मेरी दासी तथा यदि मैं सिद्ध करने में असमर्थ रही तो मैं तुम्हारी दासी बन जाऊँगी।' विनता ने माता कद्रू की यह प्रतिज्ञा स्वीकार कर ली। दोनों क्रोधावस्था में अपने-अपने निज स्थान हेतु प्रस्थान कर गयीं। कद्रू ने अपने पुत्र नागों के समक्ष सम्पूर्ण वृत्तान्त का वर्णन किया तथा उनसे कहा - 'हे पुत्रों! तुम अश्व के रोम के समान सूक्ष्म रूप धारण कर उच्चैःश्रवा की देह से लिपट जाओ, जिसके कारण यह कृष्ण वर्ण का प्रतीत होने लगे तथा मैं अपनी सपत्नी विनता को पराजित कर उसे अपनी दासी बना लूँ।'
अपनी माता के मुख से इस प्रकार के वचनों को सुनकर नागों ने कहा - 'हे माता! तुम्हारी विजय हो अथवा पराजय, किन्तु हम लोग इस प्रकार छल नहीं करेंगे। छलपूर्वक विजयी होना घोर अधर्म है।' अपने पुत्रों के वचन सुनकर कद्रू ने कुपित होकर कहा - 'तुम लोग मेरी अवज्ञा करते हो, अतः मैं तुम्हें श्राप देती हूँ कि जिस समय पाण्डवों के वंश में उत्पन्न राजा जनमेजय सर्प-सत्र करेंगे, उस समय तुम सभी यज्ञ की अग्नि में भस्म हो जाओगे।' श्राप देकर माता कद्रू मौन हो गयीं।
माता के श्राप से समस्त नागगण व्याकुल एवं भयभीत हो गये तथा वासुकि सहित भगवान ब्रह्मा के समक्ष उपस्थित हुये। नागों ने ब्रह्माजी को समस्त घटनाक्रम से अवगत कराया। उनकी व्यथा सुनकर ब्रह्माजी ने कहा कि - 'हे वासुके! तुम निश्चिन्त रहो, यायावर वंश में एक अत्यन्त महान एवं तपस्वी ब्राह्मण उत्पन्न होगा। वह जरत्कारु के नाम से विख्यात होगा। उस ब्राह्मण से तुम अपनी जरत्कारु नाम की ही बहन का विवाह कर देना तथा वह जो भी कहें उनके वचनों को सहर्ष स्वीकार करना। जरत्कारु के गर्भ से आस्तीक नाम का एक विख्यात पुत्र उत्पन्न होगा, जो जनमेजय के सर्पयज्ञ को अवरुद्ध कर तुम नागों की रक्षा करेगा।' ब्रह्माजी के श्रीमुख से इन वचनों को सुनकर नागराज वासुकि सहित सभी नागगण अत्यन्त प्रसन्न हुये तथा उन्हें प्रणाम निवेदित करते हुये नागलोक को चले गये।"
उपरोक्त कथा का वर्णन करने के पश्चात् सुमन्तु मुनि राजा शतानीक से कहते हैं - "हे राजन्! यह सर्पयज्ञ तुम्हारे पिता राजा जनमेजय ने किया था। भगवान श्रीकृष्ण ने भी युधिष्ठिर के समक्ष इस वृत्तान्त का वर्णन करते हुये कहा था कि - 'राजन् ! आज से सौ वर्ष के उपरान्त सर्पयज्ञ होगा, जिसमें अत्यन्त विशाल विषधर एवं दुष्ट नाग नष्ट हो जायेंगे। करोड़ों नाग जब अग्रि में दग्ध होने लगेंगे, उस समय आस्तीक नामक ब्राह्मण सर्पयज्ञ को रोककर नागों की रक्षा करेगा।'
जिस दिन ब्रह्माजी ने नागों की रक्षा हेतु वर दिया था उस दिन पञ्चमी तिथि थी तथा आस्तीक मुनि ने भी पञ्चमी को ही नागों की रक्षा की थी, अतः पञ्चमी तिथि नागों को अत्यन्त प्रिय है। पञ्चमी तिथि के अवसर पर नागों की पूजा-अर्चना कर यह प्रार्थना करनी चाहिये कि - 'जो नाग पृथ्वी में, आकाश में, स्वर्ग में, सूर्य की किरणों में, सरोवरों में, वापी एवं कूप आदि में निवास करते हैं, वे सभी हम पर प्रसन्न हों, हम उनको बारम्बार नमस्कार करते हैं।'
सर्वे नागाः प्रीयन्तां मे ये केचित् पृथिवीतले।
ये च हेलिमरीचिस्था येऽन्तरे दिवि संस्थिताः॥
ये नदीषु महानागा ये सरस्वतिगामिनः।
ये च वापीतडागेषु तेषु सर्वेषु वै नमः॥
इस प्रकार नागों को विसर्जित कर ब्राह्मणों को भोजन कराना चाहिये तथा स्वयं अपने कुटुम्बियों सहित भोजन करना चाहिये। सर्वप्रथम मिष्टान्न भोजन करना चाहिये, अनन्तर अपनी रुचि अनुसार भोजन करना चाहिये।
इस प्रकार नियमपूर्वक जो पञ्चमी के दिन नागों का पूजन करता है, वह श्रेष्ठ विमान में आरूढ़ होकर नागलोक को जाता है। तदुपरान्त द्वापरयुग में अत्यन्त पराक्रमी, रोगरहित एवं प्रतापी राजा के रूप में प्रतिष्ठित होता है। इसीलिये घृत, पायस (खीर) तथा गुग्गुल से नागों की पूजा-अर्चना करनी चाहिये।"
राजा शतानीक ने प्रश्न किया - "हे मुनिपुंगव! क्रुद्ध सर्प के दंश से प्राण त्यागने वाले व्यक्ति की क्या गति होती है तथा जिसके माता-पिता, भ्राता, पुत्र आदि की मृत्यु सर्पदंश से हुयी हो, उनके उद्धार हेतु कौन सा व्रत, दान अथवा उपवास करना चाहिये। कृपापूर्वक वर्णन करें।"
सुमन्तु मुनि ने उत्तर दिया - "हे राजन्! सर्पदंश से मृत व्यक्ति अधोगति को प्राप्त होता है तथा विषहीन सर्प की योनि में जन्म लेता है। जिसके माता-पिता आदि की सर्पदंश से मृत्यु हुयी हो, उसे उनकी सद्गति हेतु भाद्रपद माह के शुक्ल पक्ष की पञ्चमी तिथि को उपवास एवं नागों की पूजा-अर्चना करनी चाहिये। यह तिथि महापुण्या कही गयी है। इस प्रकार बारह माह तक चतुर्थी तिथि को एक समय भोजन करना चाहिये तथा पञ्चमी को व्रत करते हुये नागों का पूजन करना चाहिये। भूमि पर नागों का चित्र अङ्कित कर अथवा स्वर्ण, काष्ठ या मृत्तिका (मिट्टी) का नाग निर्मित कर पञ्चमी के दिन करवीर, कमल, चमेली आदि पुष्प, गन्ध, धूप एवं विविध प्रकार के नैवेद्यों से उनकी पूजा-अर्चना करनी चाहिये। तदुपरान्त पाँच उत्तम ब्राह्मणों को घी, खीर एवं लड्डू का भोज कराना चाहिये। अनन्त, वासुकि, शंख, पद्म, कम्बल, कर्कोटक, अश्वतर, धृतराष्ट्र, शंखपाल, कालिय, तक्षक एवं पिंगल, इन द्वादश नागों की क्रमशः पूजा करनी चाहिये।
उपरोक्त विधि के अनुसार वर्ष पर्यन्त व्रत एवं पूजन करने के उपरान्त व्रत का पारण करना चाहिये। अनेक ब्राह्मणों को भोजन कराना चाहिये। विद्वान ब्राह्मण को स्वर्ण निर्मित नाग दान करना चाहिये। इस प्रकार व्रत का उद्यापन करना चाहिये।"
सुमन्तु मुनि आगे कहते हैं - "हे राजन्! आपके पिता जनमेजय ने भी अपने पिता परीक्षित् के उद्धार हेतु यह व्रत किया था तथा स्वर्ण निर्मित अत्यन्त विशाल नाग एवं अनेक गौऐं ब्राह्मणों को दान की थीं। उपरोक्त विधि से व्रत एवं पूजन करने पर वे पितृऋण से मुक्त हुये थे तथा परीक्षित् को भी उत्तम लोक की प्राप्ति हुयी थी। आप भी इसी प्रकार स्वर्ण का नाग निर्मित कर उनका पूजन करें तथा उन्हें ब्राह्मण को दान करें। इसके फलस्वरूप आप भी पितृ ऋण से मुक्त हो जायेंगे। हे राजन्! जो भी प्राणी इस नाग पञ्चमी व्रत को करेगा, सर्पदंश से मृत्यु होने पर भी वह शुभलोक को प्राप्त होगा तथा जो व्यक्ति श्रद्धापूर्वक इस कथा का श्रवण करेगा, उसके कुल में कभी भी सर्प का भय नहीं होगा। इस पञ्चमी व्रत का श्रद्धापूर्वक पालन करने से उत्तम लोक की प्राप्ति होती है।"
॥इति श्री नाग पञ्चमी व्रत कथा सम्पूर्णः॥