देवी पार्वती ने भगवान गणेश से प्रश्न किया कि - "हे पुत्र! भाद्रपद माह की कृष्ण चतुर्थी (अमान्त श्रावण माह) को संकट नाशक चतुर्थी कहा गया है। अतः उस दिन के व्रत का क्या विधान है? विस्तारपूर्वक वर्णन कीजिये।"
भगवान गणेश ने कहा - "हे माता! भाद्रपद कृष्ण चतुर्थी सभी प्रकार के संकटों का नाश करने वाली, नाना प्रकार के शुभ फल तथा समस्त सिद्धियों को प्रदान करने वाली है। इसकी पूजा पूर्व वर्णित विधि के अनुसार ही करनी चाहिये। हे देवी! इस व्रत में आहार से सम्बन्धित सावधानियों का वर्णन कर रहा हूँ, ध्यानपूर्वक श्रवण कीजिये।"
भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं कि - "हे युधिष्ठिर! अपने प्रिय पुत्र के वचनों को सुनकर माता पार्वती ने कहा, 'इस व्रत में जो विशेष प्रकार का आहार एवं पूजन किया जाता है उसे विस्तारपूर्वक कहें।'"
भगवान गणेश बोले - "इस दिन गुरु द्वारा वर्णित पद्धति से श्रद्धापूर्वक पूजा-अर्चना करें। बारह माह में भिन्न-भिन्न नामों से गणेश जी का पूजन करना चाहिये। द्विजप्रिय, एकदन्त, कृष्णपिंगल, गजानन, लम्बोदर, भालचन्द्र, हेरम्ब, विकट, वक्रतुण्ड, आखुरथ, विघ्नराज तथा गणाधिप ये भगवान गणेश के बारह नाम हैं। उपासक को उक्त बारह नामों से भगवान गणेश का पूजन करना चाहिये। भिन्न-भिन्न माहों में एक-एक नाम से पूजा करें। चतुर्थी के दिन नित्य कर्मों से निवृत होकर व्रत का सङ्कल्प लेना चाहिये। तदुपरान्त रात्रिकाल में पूजन एवं कथा का श्रवण करना चाहिये।
प्राचीनकाल में एक धर्मात्मा एवं प्रतापी राजा थे जिनका नाम नल था। उनकी रानी अत्यन्त रूपवती थी जिनका नाम दमयन्ती था। कालान्तर में किसी कारणवश राजा को श्राप के कारण राज्य से विमुख होना पड़ा था तथा रानी से वियोग भी सहना पड़ा था। राजा को पुनः राज्य प्राप्ति की कामना से रानी ने यह सर्वश्रेष्ठ व्रत किया था।"
देवी पार्वती ने प्रश्न किया कि - "हे पुत्र! दमयन्ती ने किस विधि-विधान से इस व्रत का पालन किया था तथा किस प्रकार व्रत के प्रभाव से तीन माह के अन्दर ही उन्हें अपने पति से मिलने का अवसर प्राप्त हुआ? इन सभी प्रसंगों का वर्णन कीजिये।"
भगवान श्रीकृष्ण ने कहा - "हे युधिष्ठिर! पार्वती जी के ऐसा प्रश्न करने पर भगवान गणेश जी ने जो उत्तर दिया था, मैं उसका वर्णन करता हूँ, आप श्रवण कीजिये।"
भगवान गणेश जी ने कहा - "हे माता! राजा नल को दुर्गम आपदाओं का सामना करना पड़ा था। राजा के हाथी एवं घोड़ों का अपहरण हो गया था। डाकुओं ने सम्पूर्ण राजकोष को लूट लिया था। शेष भण्डार अग्निकाण्ड में भस्म हो गया था। राज्य के विश्वासघाती मन्त्रियों ने राजा का साथ छोड़ दिया था। राजा जुये में अपना सर्वस्व हार गये थे। उनकी राजधानी भी उनके अधिकार में नहीं रह पायी थी। विपरीत परिस्थितियों से घिरे होने के कारण राजा नल निराश होकर वन में चले गये। वनवास के समय उन्हें एवं उनकी सहधर्मिणी दमयन्ती को नाना प्रकार के कष्ट सहने पड़े। जीवन यापन करने हेतु राजा को किसी नगर में घोड़ों की देखभाल करने का कार्य करना पड़ा। रानी किसी नगर में निवास करने लगीं तथा राजकुमार भी कहीं सेवा आदि कार्य करने लगे। परिस्थिति तो इतनी कठोर हो गयी कि उन तीनों को भिक्षाटन करना पड़ा तथा वे नाना प्रकार के रोगों से ग्रस्त हो गये।
एक समय रानी दमयन्ती वन में भटक रहीं थीं कि उन्हें महर्षि शरभंग के दर्शन हुये। रानी ने ऋषि के चरणों में नमन करते हुये पूछा - 'हे मुनिश्रेष्ठ! अपने पति से मेरा यह वियोग कब समाप्त होगा? मुझे मेरा राज्य एवं वैभव पुनः कैसे प्राप्त होगा? मेरा भाग्य कब जागृत होगा? हे मुनिवर! कृपया मेरी समस्याओं का समाधान प्रदान कीजिये।'
दमयन्ती का प्रश्न सुनकर शरभंग मुनि ने कहा कि - 'हे दमयन्ती! मैं तुम्हारे कल्याण का मार्ग बतलाता हूँ, ध्यानपूर्वक श्रवण करो। भादों माह की कृष्ण चतुर्थी को संकटनाशन चतुर्थी के रूप में वर्णित किया गया है। इस दिन नर-नारियों को हेरम्ब गणपति की पूजा-अर्चना करनी चाहिये। हे रानी! इस व्रत को पूर्ण विधि-विधान से करने से तुम्हारी समस्त मनोकामनाओं की पूर्ति होगी। निश्चय ही तीन माह में तुम्हारा पति से मिलन होगा।'
शरभंग ऋषि के निर्देशानुसार दमयन्ती ने भादों की संकटनाशिनी चतुर्थी व्रत प्रारम्भ किया तथा नियमपूर्वक नित्य प्रति माह गणेश जी का पूजन करने लगीं। हे राजन! तीन माह में इस श्रेष्ठ व्रत के फलस्वरूप दमयन्ती को अपने पति, पुत्र तथा राज्य आदि वैभव की पुनः प्राप्ति हो गयी।"
॥इति श्री हेरम्ब संकष्टी चतुर्थी कथा सम्पूर्णः॥
भगवान श्रीकृष्ण जी कहते हैं कि - "हे युधिष्ठिर! इसी प्रकार इस व्रत को करने से आपको भी राज्य की प्राप्ति होगी तथा आपके समस्त शत्रुओं का अन्त होगा। हे धर्मराज! इस प्रकार मैंने इस सर्वोत्तम व्रत का वर्णन किया है। इस व्रत के प्रभाव से आपके सभी कष्टों का निवारण होगा तथा आपके सुख-सौभाग्य में वृद्धि होगी।"