हिन्दु धर्म में भगवान विष्णु का अत्यन्त महत्वपूर्ण स्थान है। पञ्चदेव उपासना के अन्तर्गत पूजे जाने वाले देवी-देवताओं में से भगवान विष्णु भी एक हैं। भगवान गणेश, देवी माँ दुर्गा, भगवान शिव, भगवान विष्णु एवं भगवान सूर्य ये हिन्दु धर्म के पाँच मुख्य देवता हैं। पञ्चदेवों की पूजा-अर्चना करने वालों को स्मार्त कहा जाता है। भगवान विष्णु आवश्यकता पड़ने पर विभिन्न रूप धारण करके भूलोक पर अवतरित होते रहते हैं।
इसी क्रम में एक समय भगवान विष्णु ने नृसिंह का रूप धारण किया था। नृसिंह का शाब्दिक अर्थ है, जो नर अर्थात् मनुष्य एवं सिंह का मिश्रित रूप है। विष्णुपुराण, भागवतपुराण सहित विभिन्न धर्मग्रन्थों में नृसिंह अवतार से सम्बन्धित विवरण प्राप्त होता है।
मान्यताओं के अनुसार नृसिंह श्री हरि का चतुर्थ अवतार है। इनको नरहरि, उग्रवीर, महाविष्णु आदि नामों से भी जाना जाता है। धर्मग्रन्थों में प्राप्त वर्णन के अनुसार वैशाख शुक्ल चतुर्दशी तिथि को भगवान विष्णु ने नृसिंह अवतार धारण किया था। इसीलिये भगवान विष्णु के भक्त वैशाख शुक्ल चतुर्दशी को नृसिंह जयन्ती के रूप में मनाते हैं। नृसिंह को नरसिंह के रूप में भी लिखा जाता है।
एक समय भगवान विष्णु वैकुण्ठलोक में विश्राम कर रहे थे। वैकुण्ठ लोक के प्रवेश द्वार पर जय एवं विजय नाम के दो द्वारपाल सुरक्षा कर रहे थे। कुछ समय पश्चात् वहाँ सनकादि ऋषि अर्थात् सनक, सनन्दन, सनातन एवं सनत्कुमार भगवान विष्णु से भेंट करने हेतु उपस्थित हुये। ज्यों ही सनकादि ऋषि वैकुण्ठ लोक में प्रवेश कर रहे थे उसी समय जय-विजय ने उनका मार्ग रोक लिया। जय-विजय को इस प्रकार मार्ग रोकते देख सनकादि ऋषियों ने उन्हें अपना परिचय देते हुये भगवान विष्णु से भेंट करने का अनुरोध किया। किन्तु ऋषियों द्वारा अनेक प्रकार से समझाने पर भी जय-विजय ने उन्हें प्रवेश नहीं करने दिया।
जय-विजय द्वारा अपमानजनक व्यवहार करने पर सनकादि ऋषि अत्यन्त क्रोधित हो उठे तथा उन्हें श्राप देते हुये बोले, "भगवान विष्णु के समीप रहते हुये भी तुम दोनों के चित्त में अहङ्कार उत्पन्न हो गया है तथा यह दिव्य वैकुण्ठलोक तुम जैसे अहङ्कारियों के लिये उपयुक्त स्थान नहीं हो सकता। अतः हम तुम्हें श्राप देते हैं कि तुम दोनों पापयोनि में जन्म लोगे तथा अपने दुष्कृतों का दण्ड भोगोगे।" सनकादि ऋषियों द्वारा इन कठोर वचनों का श्रवण करते ही भयभीत होकर जय-विजय उनके चरण पकड़कर बारम्बार क्षमा-याचना करने लगे।
इतने में ही भगवान विष्णु देवी लक्ष्मी एवं समस्त पार्षदों सहित सनकादि ऋषियों के स्वागत हेतु वहाँ उपस्थित हुये। समस्त प्रकरण को ज्ञात करते हुये, भगवान विष्णु ने सनकादि ऋषियों से विनय निवेदन किया, "हे ऋषिगणों! जय एवं विजय नाम के यह दोनों द्वारपाल मेरे ही पार्षद हैं। इन दोनों ने अज्ञानतावश अभिमानी होकर आपका अपमान किया है। आप सभी तो भक्त शिरोमणि एवं परम पूजनीय हैं, इन्होंने आपका अपमान करके मेरा भी अपमान किया है। अतः इन्हें दण्डित करके आपने उचित ही किया है। इन दोनों द्वारपालों ने ब्राह्मणों का तिरस्कार किया है तथा ब्राह्मणों के प्रति अपराध को मैं अपने तिरस्कार के समान ही मानता हूँ। हे मुनिश्रेष्ठ! मैं स्वयं अपने इन पार्षदों की ओर से क्षमा का अनुरोध करता हूँ। इस संसार में सेवकों द्वारा अपराध होने पर स्वामी को भी उत्तरदायी माना जाता है। अतः मैं आप ऋषिगणों से बारम्बार क्षमा-याचना करता हूँ।"
भगवान विष्णु द्वारा इन विनयशील वचनों का श्रवण करके सनकादि ऋषियों का क्रोध तत्क्षण विलीन हो गया। श्री हरि के इस उदारतापूर्ण व्यवहार से सनकादि ऋषि हर्षित होकर बोले, "हे प्रभो! आप स्वयं धर्ममूर्ति हैं तथा ब्राह्मणों का इतना आदर-सम्मान करते हैं। हे भगवन्! आपके वचनों से हमें आत्मग्लानि का अनुभव हो रहा है। हमने क्रोधवश आपके प्रिय पार्षदों को श्राप दे दिया है, अतः क्षमायाचना तो हमें करनी चाहिये। हे कृपामूर्ति! आप तो सर्व सामर्थ्यशाली हैं! अतः यदि आप उचित समझें तो इन द्वारपालों को क्षमादान देकर हमारे श्राप से मुक्त कर दें।"
भगवान विष्णु ने कहा, "हे मुनिगणों! मै सर्वशक्तिमान होते हुये भी ब्राह्मणों के वचन को निष्फल नहीं करना चाहता। आपके द्वारा दिया गया श्राप मेरी ही लीला का एक अङ्ग है। ये जय एवं विजय नाम के मेरे पार्षद तीन बार असुरयोनि में जन्म लेंगे तथा मैं स्वयं अवतरित होकर इनका उद्धार करूँगा। ये मुझसे घोर शत्रुता रखते हुये भी मेरा ही स्मरण करते रहेंगे तथा अन्ततः मैं ही इनका संहार करूँगा, जिसके पश्चात् ये पुनः वैकुण्ठ धाम में मेरे पार्षदों के रूप में प्रतिष्ठित होंगे।
सनकादि ऋषियों के श्राप एवं भगवान श्री हरि विष्णु के वचनानुसार जय एवं विजय ने महर्षि कश्यप एवं माता दिति के पुत्रों के रूप में जन्म लिया। महर्षि कश्यप ने इन दोनों पुत्रों को हिरण्यकशिपु एवं हिरण्याक्ष नाम प्रदान किया। जन्म के तत्काल उपरान्त दोनों दैत्यों का आकार अप्रत्याशित रूप से बढ़ने लगा तथा वे अत्यधिक विशालकाय देहधारी दैत्य के रूप में परिवर्तित हो गये। हिरण्यकशिपु ने घोर तपस्या की तथा भगवान ब्रह्मा को प्रसन्न करके, उनसे यह वरदान प्राप्त कर लिया कि उसकी मृत्यु न दिन में हो न रात्रि में, न भवन के भीतर हो न बाहर तथा न ही किसी प्रकार के अस्त्र से न ही शस्त्र से।
भगवान ब्रह्मा से प्राप्त वरदान की शक्ति के अभिमान में चूर होकर हिरण्यकशिपु निरंकुश रूप से तीनों लोकों पर शासन करने लगा। कालान्तर में हिरण्यकशिपु की पत्नी ने एक पुत्र रत्न को जन्म दिया, जिसका नाम प्रह्लाद रखा गया। हिरण्यकशिपु भगवान विष्णु को अपना शत्रु मानता था तथा सदैव उनकी भक्ति करने वालों को प्रताणित कर स्वयं की पूजा करने को कहता था।
वहीं दूसरी ओर हिरण्यकशिपु का पुत्र प्रह्लाद, भगवान श्री विष्णु का अनन्य भक्त था तथा निरन्तर श्री विष्णु नारायण के चिन्तन-भजन में ही लीन रहता था। वह स्वयं भी हरि नाम का संकीर्तन करता था तथा अन्य असुर बालकों को भी उपदेश देकर भगवान विष्णु की भक्ति के प्रति प्रेरित करता था।
जिस समय हिरण्यकशिपु को यह ज्ञात हुआ की प्रह्लाद भगवान विष्णु की भक्ति करता है, उसने नाना प्रकार से प्रह्लाद को भयभीत करके विष्णु भक्ति को त्यागने के लिये कहा। किन्तु प्रह्लाद ने भगवान विष्णु के प्रति अपनी निष्ठा का त्याग नहीं किया। हिरण्यकशिपु के आदेश पर उसके सैनिकों ने भक्त प्रह्लाद को हाथी के नीचे कुचलवाने का प्रयास किया, पर्वत से नीचे धकेला, विषैले सर्पों के मध्य उसे बन्दी बनाया, परन्तु भगवान विष्णु सदैव अपने भक्त की रक्षा कर लेते थे।
अन्ततः हिरण्यकशिपु ने अपनी बहन होलिका से सहायता करने का निवेदन किया। होलिका एक राक्षसी थी, जिसने अपनी तपस्या से अग्निदेव को प्रसन्न करके उनसे एक दिव्य वस्त्र प्राप्त किया था। उस वस्त्र की यह विशेषता थी कि जो भी प्राणी उस वस्त्र को ओढ़ लेगा, अग्नि उसे कोई हानि नही पहुँचा पायेगी। अतः हिरण्यकशिपु के आदेश पर होलिका उस दिव्य वस्त्र को ओढ़कर अपनी गोद में भक्त प्रह्लाद को लेकर अग्नि की चिता के मध्य बैठ गयी। किन्तु चिता दहन करते ही दैवयोग से वायु का एक तीव्र वेग आया तथा वह वस्त्र होलिका के ऊपर से उड़कर भक्त प्रह्लाद के ऊपर जा पड़ा। जिसका परिणाम यह हुआ कि होलिका उसी चिता में भस्म हो गयी। किन्तु भक्त प्रह्लाद सुरक्षित बाहर आ गया।
होलिका की यह दुर्गति होते देख हिरण्यकशिपु और अधिक क्रोधित हो उठा तथा स्वयं प्रह्लाद का वध करने हेतु तत्पर हो उठा और ललकारते हुये बोला - "अरे दुष्ट प्रह्लाद अब मुझसे तेरी रक्षा कौन करेगा? बुला अपने विष्णु को, मैं भी देखता हूँ कितना बल है उसकी भुजाओं में।"
भक्त प्रह्लाद ने कहा - "श्री हरि विष्णु तो सम्पूर्ण चराचर जगत में विद्यमान हैं, वे कण-कण में वास करते हैं।" यह सुनकर उपहास करते हुये हिरण्यकशिपु ने कहा - "क्या कहता है तू, विष्णु कण-कण में हैं? क्या वह इस खम्बे में भी है? यदि है तो सामने आये" इतना कहते हुये उस दुष्ट राक्षस ने ज्यों ही खम्बे पर प्रहार किया, त्यों हि भगवान श्री हरि नारायण, नृसिंह रूप में प्रकट हो गये। भगवान नृसिंह का रूप अत्यन्त भयङ्कर था, उनका शरीर मनुष्य का एवं मुख सिंह का था, उनके विशाल तीक्ष्ण नख व दन्त थे, वे क्रोधाग्नि में तप रहे थे तथा उनकी श्वासों से अग्निरूपी हुँकार उत्सर्जित हो रही थी। भगवान नृसिंह के इस रौद्र रूप के दर्शन से वहाँ उपस्थित राक्षसों में हाहाकार मच गया।
हिरण्यकशिपु ने ज्यों ही भगवान नृसिंह पर आक्रमण किया, उसी समय नृसिंह भगवान ने हिरण्यकशिपु को उठा लिया और उसके भवन की देहली पर बैठ गये। तदुपरान्त नृसिंह भगवान ने उस दैत्य को अपनी जङ्घा पर लिटाया एवं उससे कहा - "इस समय न रात्रि है न दिन, न तू भगवान के भीतर है न बाहर तथा न ही मैं तेरा वध किसी अस्त्र से करूँगा न ही किसी शस्त्र से। इतना कहते हुये भगवान नृसिंह ने अपने विशाल व तीक्ष्ण नखों से हिरण्यकशिपु के उदर को भेद डाला एवं उसकी आँतों को निकालकर अपने गले में माला के रूप में धारण कर लिया। भगवान नृसिंह द्वारा हिरण्यकशिपु का अन्त होते ही, समस्त लोकों में उनकी जय-जयकार होने लगी तथा देवतागण अन्तरिक्ष से पुष्प वर्षा करने लगे।
इस प्रकार भगवान विष्णु ने हिरण्यकशिपु जैसे आततायी से देवताओं एवं मनुष्यों की रक्षा करने हेतु नृसिंह अवतार धारण किया था।
भगवान नृसिंह की अर्धांगिनी के रूप में देवी लक्ष्मी को दर्शाया जाता है तथा उनके इस संयुक्त रूप को श्री लक्ष्मी-नृसिंह के रूप में पूजा जाता है।
नृसिंह अवतार, भगवान विष्णु का आवेशावतार है। अतः भगवान नृसिंह को अत्यन्त भयङ्कर रूप में चित्रित किया जाता है। भगवान नृसिंह के अधिकांश चित्रों में उन्हें अतिक्रोधित मुद्रा में हिरण्यकशिपु का उदर भेदते हुये दर्शाया जाता है। नृसिंह भगवान को चतुर्भुज, षट्भुज तथा दशभुज रूप में दर्शाया जाता है। षट्भुज रूप में वे अपनी चार भुजाओं में शङ्ख, चक्र, गदा तथा पद्म अर्थात् कमल पुष्प धारण करते हैं तथा दो भुजाओं से वे हिरण्यकशिपु का उदरभेदन करते हैं। उनका मुख सिंह का है एवं शेष देह मनुष्य की है। उनके तीक्ष्ण नख एवं दन्त हैं तथा वे गले में हिरण्यकशिपु की आँतों को माला के रूप में धारण किये हुये हैं।
भगवान नृसिंह के कुछ अन्य चित्रों में उन्हें गोद में भक्त प्रह्लाद को विराजमान दर्शाया जाता है।
विभिन्न क्षेत्रों में भगवान नृसिंह के भिन्न-भिन्न रूपों की आराधना की जाती है, जिनमें से कुछ प्रमुख रूप निम्नलिखित हैं -
सामान्य मन्त्र -
ॐ नृम नृम नृम नरसिंहाय नमः।
ध्यान मन्त्र -
ॐ उग्रं वीरं महाविष्णुं ज्वलन्तं सर्वतोमुखम्।
नृसिंहं भीषणं भद्रं मृत्युमृत्युं नमाम्यहम्॥
नृसिंह गायत्री मन्त्र -
ॐ वज्रनखाय विद्महे तीक्ष्णदंष्ट्राय धीमहि तन्नो नृसिंहः प्रचोदयात्॥