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इन्दिरा एकादशी व्रत कथा | इन्दिरा एकादशी की पौराणिक कथायें

DeepakDeepak

इन्दिरा एकादशी कथा

इन्दिरा एकादशी व्रत कथा

राजा इन्द्रसेन के पिता की यमलोक से मुक्ति की कथा

भगवान श्रीकृष्ण की भक्ति से भाव विह्वल होकर अर्जुन ने कहा - "हे प्रभु! अब आप कृपा कर आश्विन माह के कृष्ण पक्ष की एकादशी की कथा को कहिये। इस एकादशी का क्या नाम है तथा इसका व्रत करने से कौन-सा फल प्राप्त होता है। कृपा कर विधानपूर्वक कहिये।"

भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन से कहा - "हे धनुर्धर! आश्विन माह के कृष्ण पक्ष की एकादशी का नाम इन्दिरा एकादशी है। इस एकादशी का व्रत करने से सभी पाप नष्ट हो जाते हैं। नरक में गये हुये पितरों का उद्धार हो जाता है। हे अर्जुन! इस एकादशी की कथा के श्रवण मात्र से ही मनुष्य को अनन्त फल की प्राप्ति होती है। मैं यह कथा सुनाता हूँ, तुम ध्यानपूर्वक श्रवण करो -

सतयुग में महिष्मती नाम की नगरी में इन्द्रसेन नाम का एक प्रतापी राजा राज्य करता था। वह पुत्र, पौत्र, धन-धान्य आदि से पूर्ण था। उसके शत्रु सदैव उससे भयभीत रहते थे। एक दिन राजा अपनी राज्य सभा में सुखपूर्वक बैठा था कि महर्षि नारद वहाँ पधारे। नारदजी को देखकर राजा आसन से उठा, प्रणाम करके उन्हें आदर सहित आसन दिया। तब महर्षि नारद ने कहा - "हे राजन! आपके राज्य में सब कुशल से तो हैं? मैं आपकी धर्मपरायणता देखकर अत्यन्त प्रसन्न हूँ।"

राजा ने कहा - "हे देवऋषि! आपकी कृपा से मेरे राज्य में सभी कुशलपूर्वक हैं तथा आपकी कृपा से मेरे सभी यज्ञ कर्म आदि सफल हो गये हैं। हे महर्षि अब आप कृपा कर यह बतायें कि आपका यहाँ आगमन किस प्रयोजन से हुआ है? मैं आपकी क्या सेवा करूँ?"

महर्षि नारद ने कहा - "हे नृपोत्तम! मुझे एक महान विस्मय हो रहा है कि एक बार जब मैं ब्रह्मलोक से यमलोक गया था, तब मैंने यमराज की सभा में तुम्हारे पिता को बैठे देखा। तुम्हारे पिता महान ज्ञानी, दानी तथा धर्मात्मा थे, किन्तु एकादशी व्रत के भङ्ग हो जाने के कारण यह यमलोक को गये हैं। तुम्हारे पिता ने तुम्हारे लिये एक सन्देश भेजा है।"

राजा ने उत्सुकता से पूछा - "क्या सन्देश है महर्षि? कृपा कर यथाशीघ्र कहें।"

राजन तुम्हारे पिता ने कहा है - "महर्षि! आप मेरे पुत्र इन्द्रसेन, जो कि महिष्मती नगरी का राजा है, के पास जाकर एक सन्देश देने की कृपा करें कि मेरे किसी पूर्व जन्म के पाप कर्म के कारण ही मुझे यह लोक मिला है। यदि मेरा पुत्र आश्विन माह के कृष्ण पक्ष की इन्दिरा एकादशी का व्रत करे तथा उस व्रत के फल को मुझे प्रदान कर दे तो मेरी मुक्ति हो जाये। मैं भी इस लोक से मुक्त होकर स्वर्गलोक में वास करूँ।"

इन्द्रसेन को अपने पिता के यमलोक में पड़े होने की बात सुनकर महान दुख हुआ तथा उसने नारदजी से कहा - "हे नारदजी! यह तो बड़े दुख का समाचार है कि मेरे पिता यमलोक में पड़े हैं। मैं उनकी मुक्ति का उपाय अवश्य करूँगा। आप मुझे इन्दिरा एकादशी व्रत का विधान बताने की कृपा करें।"

नारदजी ने कहा - "हे राजन! आश्विन माह के कृष्ण पक्ष की दशमी के दिन प्रातःकाल श्रद्धापूर्वक स्नान करना चाहिये। तदुपरान्त मध्याह्नकाल में भी स्नान करना चाहिये। उस समय जल से स्नान कर श्रद्धापूर्वक पितरों का श्राद्ध करें तथा उस दिन एक समय भोजन करें। रात्रि को भूमि पर शयन करें। इसके दूसरे दिन अर्थात् एकादशी के दिन नित्यकर्मों से निवृत्त होकर स्नानादि के उपरान्त भक्तिपूर्वक व्रत को धारण करें तथा इस प्रकार सङ्कल्प करें - "मैं आज निराहार रहूँगा एवं सभी प्रकार के भोगों का त्याग कर दूँगा। तदुपरान्त अगले दिन भोजन करूँगा। हे ईश्वर! आप मेरी रक्षा करने वाले हैं। आप मेरे उपवास को सम्पूर्ण कराइये।"

इस प्रकार आचरण करके मध्याह्नकाल में शालिग्रामजी की प्रतिमा को स्थापित करें तथा ब्राह्मण को बुलाकर भोजन करायें एवं दक्षिणा दें।

भोजन का कुछ भाग गाय को अवश्य दें। भगवान विष्णु का धूप, नैवेद्य आदि से पूजन करें तथा रात्रि में जागरण करें। तदुपरान्त द्वादशी के दिन मौन रहकर बन्धु-बान्धवों सहित भोजन करें। हे राजन! यह इन्दिरा एकादशी के व्रत की विधि है। यदि तुम आलस्य त्यागकर इस एकादशी के व्रत को करोगे तो तुम्हारे पिता अवश्य ही स्वर्ग के अधिकारी बन जायेंगे।"

नारदजी राजा को सब विधान समझाकर आलोप हो गये। राजा ने इन्दिरा एकादशी के आने पर उसका विधानपूर्वक्र व्रत किया। बन्धु-बान्धवों सहित इस व्रत के करने से आकाश से पुष्पों की वर्षा हुयी तथा राजा के पिता यमलोक से रथ पर चढ़कर स्वर्ग को चले गये।

इस एकादशी के प्रभाव से राजा इन्द्रसेन भी इहलोक में सुख भोगकर अन्त में स्वर्गलोक को गया।

भगवान श्रीकृष्ण ने कहा - हे सखा! यह मैंने तुम्हारे सामने इन्दिरा एकादशी के माहात्म्य का वर्णन किया है। इस कथा के पाठ एवं श्रवण मात्र से ही समस्त पापों का शमन हो जाता है तथा अन्त में मनुष्य स्वर्गलोक का अधिकारी बनता है।"

कथा-सार

मनुष्य जो भी प्रण करे, उसे चाहिये कि वह उसको तन-मन-धन से पूर्ण करे। किसी भी कार्य का प्रण करके उसे तोड़ना नहीं चाहिये।


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द्रिक पञ्चाङ्ग और पण्डितजी लोगो drikpanchang.com के पञ्जीकृत ट्रेडमार्क हैं।
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