आधुनिक सन्दर्भ में रक्षा बन्धन का अर्थ अत्यन्त परिवर्तित हो गया है। मान्यताओं के अनुसार, यह त्यौहार भाई-बहनों के लिये होता है। वर्तमान में राखी, रक्षा बन्धन का ही उपनाम बन गया है। हालाँकि, वेदों में सभी स्थानों पर इस अनुष्ठान के विषय में रक्षा बन्धन के नाम से ही वर्णन किया गया है।
वैदिक काल से ही रक्षा बन्धन एक महत्वपूर्ण अनुष्ठान है। यह अनुष्ठान भूत-प्रेत, दुष्ट आत्माओं एवं पिशाचों के भय के निवारण हेतु किया जाता है। रक्षा बन्धन का अनुष्ठान सम्पन्न करने से सभी प्रकार के रोगों एवं अपशकुनों से सुरक्षित रहा जा सकता है। होलिका दहन के समान ही रक्षा बन्धन भी एक वार्षिक अनुष्ठान है, जो वर्ष पर्यन्त होने वाली सभी प्रकार की अशुभ घटनाओं से सुरक्षित रहने हेतु किया जाता है। रक्षा बन्धन का अनुष्ठान श्रावण पूर्णिमा के दिन किया जाना चाहिये, किन्तु उस समय को भद्रा काल नहीं होना चाहिये।
व्रतराज में रक्षा बन्धन पूजा विधि का वर्णन प्राप्त होता है। व्रतराज के अनुसार, रक्षा बन्धन का तात्पर्य एक अनुष्ठानिक सूत्र बाँधना है, जो व्यक्ति की सभी प्रकार के अमंगलों से रक्षा करता है। पवित्र सूत्र में स्थित रक्षा को दिव्य शक्ति के रूप में व्यक्त किया जाता है, जो धारक को निर्भय बनाती है। मान्यताओं के अनुसार, भगवान इन्द्र की पत्नी शची ने युद्ध में अपने पति को राक्षसों से सुरक्षित करने के लिये रक्षा की रचना की थी। उसी समय से विजय, सुख, पुत्र, पौत्र, धन एव स्वास्थ्य की प्राप्ति हेतु रक्षा की पूजा की जाती है।
श्रावण पूर्णिमा के दिन सूर्योदय से पूर्व प्रातःकाल में पूर्ण अनुष्ठानिक रूप से स्नान करना चाहिये। स्नान के पश्चात् देव एवं पितृ तर्पण करना चाहिये, जो देवताओं एवं पूर्वजों की प्रसन्नता के लिये किया जाने वाला अनुष्ठान है। उपाकर्म का अनुष्ठान प्रातःकाल सम्पन्न करना चाहिये। उपाकर्म को तमिल नाडु में अवनि अवित्तम के नाम से जाना जाता है।
व्रतराज के अनुसार, रक्षा बन्धन का अनुष्ठान अधिमानतः अपराह्नकाल के समय किया जाना चाहिये। रक्षा की पूजा करना एवं उसे रक्षा पोटली के रूप में कलाई पर बाँधना, रक्षा बन्धन के मुख्य अनुष्ठान हैं। अखण्डित चावल अर्थात अक्षत, सफेद सरसों एवं स्वर्ण के धागे द्वारा रक्षा पोटली का निर्माण करना चाहिये। रक्षा पोटली को सूती अथवा ऊनी कपड़े से बुना जाना चाहिये तथा उसे पूजा के लिये स्वच्छ कपड़े पर स्थापित करना चाहिये। रक्षा बन्धन पूजा के लिये घटस्थापना का सुझाव भी दिया जाता है।
सभी भूदेवों की पूजा करनी चाहिये तथा उन्हें वस्त्र अर्पित करने चाहिये। भूदेव पूजा के पश्चात रक्षा की पूजा करनी चाहिये तथा मन्त्रोच्चार सहित रक्षा पोटली को कलाई पर बाँधना चाहिये। रक्षा पोटली बाँधते समय निम्नलिखित मन्त्र का उच्चारण करना चाहिये -
रक्षा मन्त्र का अर्थ इस प्रकार है -
"मैं तुम्हें उसी रक्षा सूत्र से बाँधता हूँ, जिससे सर्वाधिक शक्तिशाली, साहस के राजा, राक्षसों के राजा बलि को बाँधा गया था। हे रक्षा (रक्षा सूत्र), कृपया सम्पूर्ण वर्ष पर्यन्त बिना हिले-डुले स्थिर रहना।"
मान्यताओं के अनुसार, श्रावण पूर्णिमा पर रक्षा की पूजा करने वाला प्राणी वर्ष पर्यन्त प्रसन्न रहता है। उत्तर भारत में, बहनें अपने भाइयों की कलाई पर रक्षा सूत्र बाँधती हैं एवं उनकी रक्षा की कामना करती हैं। आधुनिक सन्दर्भ में भाई ही, रक्षा नाम की उस दिव्य शक्ति की भूमिका निभा रहे हैं, जो अपने उपासकों की रक्षा करती है।