टिप्पणी: सभी समय २४-घण्टा प्रारूप में Fairfield, संयुक्त राज्य अमेरिका के स्थानीय समय और डी.एस.टी समायोजित (यदि मान्य है) के साथ दर्शाये गए हैं।
आधी रात के बाद के समय जो आगामि दिन के समय को दर्शाते हैं, आगामि दिन से प्रत्यय कर दर्शाये गए हैं। पञ्चाङ्ग में दिन सूर्योदय से शुरू होता है और पूर्व दिन सूर्योदय के साथ ही समाप्त हो जाता है।
हिन्दु पञ्चाङ्ग के अनुसार, चैत्र शुक्ल नवमी तिथि के दिन महातारा जयन्ती मनायी जाती है। स्वतन्त्र तन्त्र में प्राप्त वर्णन के अनुसार, मेरु पर्वत के पश्चिम भाग में चोलना नदी अथवा चोलत सरोवर के तट पर देवी तारा का प्राकट्य हुआ था। देवी तारा भगवान शिव के तारकेश्वर रुद्रावतार की शक्ति हैं। देवी तारा महाविद्या की साधना सर्वप्रथम महर्षि वसिष्ठ जी ने की थी, जिसके कारण उन्हें वसिष्ठाराधिता भी कहा जाता है। महर्षि वसिष्ठ ने चिनाचारा नामक तान्त्रिक पद्धिति से देवी तारा की पूजा-आराधना की थी जिसके फलस्वरूप उन्हें सिद्धि प्राप्त हुयी। एकजटा, उग्रतारा तथा नीलसरस्वती आदि रूपों में देवी तारा की पूजा की जाती है। बिहार के सहरसा जिलें के महिषी ग्राम में देवी उग्रतारा शक्तिपीठ अवस्थित है, जहाँ देवी तारा, देवी एकजटा तथा नील सरस्वती सहित विराजमान हैं। वसिष्ठ ऋषि ने यहीं पर तारा महाविद्या साधना करके सिद्धियाँ अर्जित की थीं।
माँ तारा की साधना काली कुल से सम्बन्धित मानी जाती है। मान्यताओं के अनुसार हयग्रीव का वध करने हेतु देवी ने नीलवर्ण धारण किया। देवी काली का ही नीलवर्ण स्वरूप देवी तारा के रूप में विश्व-विख्यात हुआ।
तारा देवी का शक्तिपीठ पश्चिम बंगाल की वीरभूमि में द्वारका नदी के तट पर अवस्थित है, जो तारा पीठ के नाम से प्रसिद्ध है। पौराणिक कथाओं के अनुसार, इस स्थान पर देवी सती के नयन गिरे थे, अतः उन्हें नयनतारा के नाम से भी जाना जाता है। तारा का शाब्दिक अर्थ है तारने वाली अतः देवी तारा को मोक्ष प्रदान करने वाली देवी के रूप में पूजा जाता है। देवी तारा की उपासना से साधक के समस्त शत्रुओं का नाश होता है तथा वाक् सिद्धि भी प्राप्त होती है। धार्मिक ग्रन्थों में प्राप्त वर्णन के अनुसार पूर्वकाल में चीन, तिब्बत तथा लद्दाख आदि क्षेत्रों में तारा महाविद्या की उपासना का प्रचलन था।
देवी तारा के प्रादुर्भाव के सन्दर्भ में अनेक कथायें प्रचलित हैं। जिनमें से एक कथा निम्नलिखित है।
मेरोः पश्चिमकूले नु चोत्रताख्यो हृदो महान्।
तत्र जज्ञे स्वयं तारा देवी नीलसरस्वती॥
चैत्रे मासि नवम्यां तु शुक्लपक्षे तु भूषते।
क्रोधरात्रिर्महेशानि तारारूपा भविष्यति॥
धर्म ग्रन्थों में प्राप्त वर्णन के अनुसार, देवी तारा मेरु पर्वत के पश्चिम भाग में चोलना नदी के तट पर प्रकट हुयीं थीं। हयग्रीव नाम का एक मायावी दैत्य था, जिसका वध हेतु देवी महाकाली ने ही नीलवर्ण धारण किया था। महाकाल सहिंता के अनुसार, चैत्र शुक्ल अष्टमी तिथि में देवी तारा प्रकट हुयी थीं। इसीलिये यह तिथि तारा-अष्टमी कहलाती हैं। चैत्र शुक्ल नवमी की रात्रि तारा-रात्रि कहलाती हैं।
सर्वप्रथम स्वर्ग-लोक के रत्नद्वीप में वैदिक कल्पोक्त तथ्यों तथा वाक्यों को देवी काली के मुख से सुनकर, शिव जी अपनी धर्मपत्नी पर अत्यधिक प्रसन्न हुये। शिवजी ने माता पार्वती से कहा, "आदि काल में भयङ्कर रावण का विनाश करने पर आपका स्वरूप तारा नाम से विख्यात हुआ।"
उस समय, समस्त देवताओं ने आप की स्तुति की थी तथा आप अपने हाथों में खड़ग, नर मुण्ड, कटार तथा अभय मुद्रा धारण की हुयी थी, मुख से चञ्चल जिह्वा बाहर थी, जिससे आप विकराल रुपवाली प्रतीत हो रही थीं। उस समय देवी का रूप अत्यन्त विकराल था तथा देवी के भयङ्कर स्वरूप का दर्शन करके समस्त देवतागण भयभीत हो गये थे। अत्यन्त भीषण एवं वीभत्स रूप में देवी नग्नावस्था में थीं तथा इसका भान होने पर वह खड्ग से अपनी लज्जा का निवारण करने की चेष्टा करने लगीं। देवी की यह अवस्था होने पर स्वयं ब्रह्मा जी ने उन्हें अपना व्याघ्र चर्म प्रदान किया था। तदोपरान्त देवी लम्बोदरी के नाम से सम्पूर्ण विश्व में विख्यात हुयीं।
तारा-रहस्य तन्त्र के अनुसार, भगवान राम केवल निमित्त मात्र ही थे, वास्तविकता में भगवान राम की विध्वंसक शक्ति देवी तारा ही थीं, जिन्होंने दशानन रावण का अन्त किया था।