भगवान बुद्ध को भगवान विष्णु के 23वें अवतार के रूप में वर्णित किया जाता है। भगवान के बुद्धावतार के विषय में अनेक प्रकार के मतभेद विद्वानों के मध्य प्राप्त होते हैं। कुछ विद्वानों के मतानुसार बौद्ध धर्म के गौतम बुद्ध एवं हिन्दु धर्मग्रन्थों में वर्णित बुद्ध पृथक-पृथक हैं।
यज्ञ आदि कर्मों के माध्यम से अत्यन्त शक्तिशाली हो चुके असुरों को भ्रमित करके उनकी शक्ति को क्षीण करने के उद्देश्य से विष्णु जी ने बुद्धावतार धारण किया था तथा उन्होंने देवताओं को स्वर्गलोक की प्राप्ति में सहायता की थी।
श्रीमद्भागवतमहापुराण में प्राप्त श्लोक के अनुसार -
ततः कलौ सम्प्रवृत्ते सम्मोहाय सुरद्विषाम्।
बुद्धो नाम्ना जनसुतः कीकटेषु भविष्यति॥
अर्थात्, कलयुग में असुरों को मोहित करने के उद्देश्य से भगवान श्रीहरि विष्णु नारायण कीकट प्रदेश (बिहार या उड़ीसा) में अजन के पुत्र के रूप में प्रकट होंगे।
धर्मग्रन्थों में भगवान विष्णु के बुद्धावतार के विषय में प्राप्त वर्णन के अनुसार एक समय राक्षस अत्यन्त शक्तिशाली हो गये तथा उन्होंने देवताओं को युद्ध में पराजित कर दिया। अपने प्राणों की रक्षा करने हेतु देवताओं को स्वर्गलोक को त्यागना पड़ा तथा वहाँ असुरों का आधिपत्य हो गया। परन्तु दैत्यों को यह आशंका थी कि पुनः देवगण स्वर्ग पर आक्रमण कर सकते हैं। इसीलिये सभी असुर देवराज इन्द्र के समीप उपस्थित हुये तथा असुरों ने उनसे अखण्ड साम्राज्य की प्राप्ति का मार्ग बताने का निवेदन किया। स्वयं स्वर्गलोक का साम्राज्य हारने के उपरान्त भी देवराज इन्द्र ने असुरों को अखण्ड साम्राज्य की प्राप्ति का मार्ग बताया क्योंकि उन्हें ज्ञात था कि यही मार्ग भविष्य में असुरों के पतन का कारण होगा। इन्द्र ने असुरों से कहा कि - "विधिपूर्वक यज्ञ करने एवं वेदों के अनुसार आचरण करने से तुम सभी को फलस्वरूप स्वर्गलोक के अखण्ड राज्य की प्राप्ति होगी।"
देवराज इन्द्र के सुझाव के अनुसार असुर यज्ञ का आयोजन एवं वेदानुसार आचरण करने लगे जिसके परिणाम स्वरूप असुरों की शक्ति में निरन्तर वृद्धि होने लगी। अधिक शक्तिशाली होने के कारण असुर तीनों लोकों में उत्पात मचाने लगे तथा निर्बलों को प्रताड़ित करने लगे। असुरों के अत्याचार से भयभीत होकर देवताओं ने भगवान विष्णु से सहायता करने का अनुरोध किया। भगवान विष्णु ने देवताओं को उनकी सहायता हेतु स्वयं बुद्ध के रूप में अवतरित होने का आश्वासन दिया।
समय आने पर भगवान विष्णु बुद्ध रूप में अवतरित हुये। बुद्धावतार के रूप में भगवान अपने हाथ में मार्जनी लेकर मार्ग को स्वच्छ करते हुये आगे चल रहे थे। भगवान बुद्ध असुरों के निकट गये तथा उन्हें यज्ञ न करने का उपदेश देते हुये उन्होंने कहा कि - "यज्ञ करने से विभिन्न जीवों को हानि होती है। यज्ञाग्नि में अनेकों सूक्ष्म जीव भस्मीभूत हो जाते हैं। मैं स्वयं जीव हिंसा न हो इसीलिये मार्ग को स्वच्छ करते हुये भ्रमण करता हूँ।" यह सुनकर असुरों को इन्द्रदेव द्वारा दिये हुये धर्म-कर्म के मार्ग पर चलने के सुझाव का स्मरण हुआ। किन्तु असुरों पर भगवान बुद्ध के उपदेशों का अत्यधिक प्रभाव हुआ तथा उन्होंने वेद अनुसार आचरण एवं यज्ञ करना बन्द कर दिया। फलस्वरूप समयानुसार असुरों की शक्ति क्षीण होने लगी। उचित अवसर समझकर देवताओं ने पुनः असुरों पर आक्रमण कर दिया तथा असुरों को युद्ध में परास्त करके स्वर्गलोक का सिंहासन प्राप्त कर लिया। इस प्रकार भगवान विष्णु सृष्टि के कल्याण की कामना से भगवान बुद्ध के रूप में अवतरित हुये थे।
एक अन्य कथा के अनुसार राजा शुद्धोदन के पुत्र सिद्धार्थ के विषय में किसी विद्वान ने यह भविष्यवाणी की थी कि वह बड़ा होकर सन्यासी बनेगा। राजा शुद्धोदन ने सिद्धार्थ के लिये नाना प्रकार के भोग-विलास का पूर्ण प्रबन्ध कर दिया था। उन्होंने तीन ऋतुओं के लिये तीन सुन्दर महलों का निर्माण करवाया। उन महलों में नृत्य, संगीत आदि मनोरञ्जन के सभी साधन उपलब्ध थे। अनेकों दास-दासियाँ उसकी सेवा में तत्पर रहते थे जिससे सिद्धार्थ का मन सांसारिक गतिविधियों में लिप्त रह सके।
एक दिन वसन्त ऋतु में सिद्धार्थ उद्यान में भ्रमण करने हेतु निकले। उन्होंने मार्ग में एक वृद्ध व्यक्ति दिखायी दिया जिसके दाँत टूटे थे, केश श्वेत हो चुके थे तथा शरीर जर्जर अवस्था में था। कुछ आगे बढ़ने पर उन्हें एक रोगी दिखायी दिया जिसकी श्वास तीव्रता से चल रही थी तथा वह किसी अन्य का सहारा लेकर अति कठनाई से चल पा रहा था। थोड़ा और आगे चलने पर सिद्धार्थ को एक अर्थी जाती हुयी दिखी जिसे चार व्यक्ति कन्धों पर लेकर जा रहे थे। पीछे-पीछे बहुत से व्यक्तियों की भीड़ चल रही थी। उस भीड़ में कोई रुदन कर रहा था, कोई छाती पीट रहा था तथा कोई स्वयं के केश नोच रहा था। ये सभी दृश्य देखकर सिद्धार्थ का मन अत्यन्त व्यथित व व्याकुल हो उठा। उन्होंने मन ही मन विचार किया कि - "यह कैसा यौवन है जो प्राणों का अन्त कर देता है? यह कैसा स्वास्थ्य है जो देह को नष्ट कर देता है? यह कैसा जीवन है जो इतनी शीघ्रता से पूर्ण हो जाता है? क्या वृद्धावस्था, रोग एवं मृत्यु सदैव इसी प्रकार होती रहेंगी? क्या इस जीवन मरण के चक्र से मुक्त होने का कोई मार्ग नहीं?"
यह सब विचार करते हुये सिद्धार्थ चल ही रहे थे कि मार्ग में एक सन्यासी के दर्शन होते हैं जो सभी प्रकार की सांसारिक कामनाओं से मुक्त होकर प्रसन्नचित्त अवस्था में स्थित था। उस सन्यासी एवं जीवन के दुखपूर्ण पक्ष को देखने के पश्चात् सिद्धार्थ ने भी सन्यास मार्ग पर चलने का निश्चय किया तथा वे एक रात्रि में अपनी धर्मपत्नी यशोधरा एवं शिशु राहुल को निद्रावस्था में छोड़कर आत्मज्ञान की प्राप्ति हेतु आध्यात्मिक यात्रा पर निकल गये। कालान्तर में वही सिद्धार्थ ज्ञान प्राप्त कर बुद्ध के रूप में प्रतिष्ठित हुये।
भगवान बुद्ध के पिता शुद्धोधन तथा माता मायादेवी थीं। उनका विवाह राजकुमारी यशोधरा से हुआ था जिनके गर्भ से उन्हें राहुल नामक पुत्र की प्राप्ति हुयी थी।
भगवान बुद्ध को एक तपस्या में लीन मुनि के रूप में ध्यानमग्न अवस्था में चित्रित किया जाता है। वे एक वस्त्र को शरीर से लपेटे हुये पद्मासन में बैठें हैं। बुद्ध देव को लम्बे केशों का जूड़ा बनाये हुये दर्शाया जाता है।
बुद्ध मूल मन्त्र -
ॐ मणि पद्मे हुम्।
बुद्ध ध्यान मन्त्र -
शान्तात्मा लम्बकर्णश्च गौराङ्गश्चाम्बरावृतः।
ऊर्ध्वपद्मस्थितो बुद्धो वरदाभयदायकः॥