भगवान विष्णु के विभिन्न अवतारों के विषय में श्रीमद्भागवतमहापुराण में वर्णन प्राप्त होता है कि सर्वप्रथम भगवान विष्णु सनक, सनन्दन, सनातन एवं सनत्कुमार के रूप में अवतरित हुये। इन चारों ब्राह्मण कुमारों को संयुक्त रूप से सनत्कुमार, सनकादि ऋषि एवं सनकादि मुनि के नाम से जाना जाता है। ये चारों भगवान ब्रह्मा के मानस पुत्र हैं। भगवान विष्णु ने सनक, सनन्दन, सनातन एवं सनत्कुमार के रूप में प्रकट होकर अखण्ड नैष्ठिक ब्रह्मचर्य का पालन किया।
सनत्कुमारों ने सनत्कुमार संहिता की रचना कर संसार को भगवान की अष्टयाम लीला तथा गोपी भाव उपासना का ज्ञान प्रदान किया। ये तीनों लोकों में भ्रमण कर भक्ति, ज्ञान एवं वैराग्य का प्रचार करते रहते हैं। ये चारों मुनि अपनी वाणी से सदा "हरिः शरणम्" का उच्चारण करते रहते हैं। इन्हें भगवत्कथा अत्यन्त प्रिय है। अतः इन चारों में से एक वक्ता एवं तीन श्रोता के रूप में नित्य भगवत्कथा का श्रवण एवं वाचन करते रहते हैं।
श्रीमद्भागवतमहापुराण के तृतीय अध्याय में प्राप्त भगवान के अवतारों के वर्णन के अनुसार श्रीसूतजी कहते हैं - सृष्टि के आदि में भगवान ने विभिन्न लोकों के निर्माण की इच्छा प्रकट की। भगवान की इच्छा होते ही उन्होंने निष्पन्न पुरुष रूप धारण किया। उनका पुरुष रूप दस इन्द्रियों, एक मन, तथा पञ्चभूत इन सोलह तत्त्वों से युक्त था। भगवान ने आदि पुरुष रूप में जल में शयन करते हुये योगनिद्रा का विस्तार किया। उस समय प्रभु के नाभि सरोवर से एक कमल पुष्प प्रकट हुआ तथा उस कमल से प्रजापतियों के स्वामी ब्रह्मा जी की उत्पत्ति हुयी।
उस कमल कर्णिका पर विराजमान ब्रह्मा जी को अपने समक्ष कुछ भी दिखायी न देने के कारण उन्होंने चारों दिशाओं में गर्दन घुमा कर देखा जिससे उनके चार मुख हो गये। उस प्रलयकालीन जल की तरंगों के ऊपर कमल पर विराजमान ब्रह्मा जी को अपना एवं उस दिव्य कमल का कोई रहस्य ज्ञात नहीं हुआ। वे मनन करने लगे कि, "इस कमल कर्णिका पर बैठा हुआ मैं कौन हूँ? यह कमल इस भीषण जल में बिना किसी अन्य आधार के कैसे उत्पन्न हो गया? अतः इसका कोई आधार अवश्य होगा।" यह विचार करते हुये ब्रह्मा जी ने उस कमल नाल के सूक्ष्म छिद्रों से होकर जल में प्रवेश किया। उस आधार को खोजते हुये वे नाभि प्रदेश के समीप पहुँचे किन्तु उन्हें आधार का रहस्य ज्ञात नहीं हुआ।
अन्ततः ब्रह्मा जी कमल पर पुनः लौट आये तथा अपनी प्राणवायु पर विजय प्राप्त कर चित्त को निःसङ्कल्प करके समाधि में स्थित हो गये। तदुपरान्त दिव्य सौ वर्षों तक समाधि में स्थित रहने पर ब्रह्मा जी को ज्ञान प्राप्त हुआ तथा उन्हें अपने अन्तर्मन में दस सहस्र फन वाले शेष जी की शय्या पर लेटे भगवान नारायण के दर्शन हुये। भगवान नारायण के दर्शन होने पर ब्रह्मा जी ने उनकी स्तुति की एवं सृष्टि रचना हेतु उत्सुक हो उठे। स्तुति से प्रसन्न होकर भगवान नारायण ने ब्रह्मा जी को जगत् का साक्षात्कार करवाया तथा वे अपने नारायण रूप से अदृश्य हो गये।
तदुपरान्त भगवान की प्रेरणा से ब्रह्मा जी ने सृष्टि रचना आरम्भ की तथा सर्वप्रथम उन्होंने अज्ञान की पाँच वृत्तियों - तम (अविद्या), मोह (अस्मिता), महमोह (राग), तामिस्त्र (द्वेष) तथा अन्धतामिस्र (अभिनिवेश) की रचना की, किन्तु इस पापमयी सृष्टि से ब्रह्मा जी को प्रसन्नता नहीं हुयी। जिसके पश्चात् उन्होंने अपने मन को भगवान के ध्यान से पवित्र करके दूसरी सृष्टि की रचना की तथा सनक, सनन्दन, सनातन एवं सनत्कुमार नाम के चार मुनियों को उत्पन्न किया। ब्रह्मा जी ने उन चारों को सृष्टि उत्पन्न करने की आज्ञा दी किन्तु वे चारों जन्म से ही मोक्षमार्ग अथवा निवृत्तिमार्ग का अनुसरण करने वाले थे तथा निरन्तर भगवान के ही ध्यान में स्थित रहने वाले थे। उन चारों ने ब्रह्मा जी से प्राप्त सृष्टि रचना की आज्ञा को अस्वीकार कर दिया।
सनकादि मुनियों नें ब्रह्मा जी से कहा - "हे पिताश्री! हमें क्षमा करें। हमारे लिये यह माया तो अप्रत्यक्ष है, हम भगवान की उपासना से अधिक महत्त्वपूर्ण किसी वस्तु को नहीं मानते अतः हम केवल उन्हीं की भक्ति करेंगे।" ऐसा कहकर सनकादि मुनि वहाँ से चल पड़े। जिस स्थान पर भी भगवान का भजन होता, वहीं वे चारों पहुँच जाते थे। भगवान शेष से भागवत का श्रवण करने के पश्चात् सनकादि ऋषियों ने नारद जी को भागवत का श्रवण कराया। चारों ऋषि सदैव पाँच वर्ष की आयु के ही रहते हैं तथा अपनी आयु से अनेक गुना अधिक ज्ञान से परिपूर्ण हैं।
सनकादि ऋषियों द्वारा सृष्टि विस्तार हेतु मना करने पर ब्रह्मा जी को अपनी अवज्ञा होते देख अत्यन्त क्रोध आया, उन्होंने अपने क्रोध को नियन्त्रित करने का प्रयास किया किन्तु वह क्रोध उनकी भ्रकुटियों अर्थात् भौहों के मध्य से एक नीललोहित बालक के रूप में प्रकट हो गया। वह बालक रोदन करते हुये ब्रह्मा जी से बोला कि, "हे जगत्पिता! मेरा नाम एवं निवास स्थान बताने की कृपा करें।"
ब्रह्मा जी ने कहा - "तुम जन्म लेते ही बालक के समान रोदन करने लगे, अतः प्रजा तुम्हें रुद्र कहकर सम्बोधित करेगी तथा हृदय, प्राण, आकाश, वायु, अग्नि, जल, पृथ्वी, सूर्य, चन्द्रमा एवं तप तुम्हारे निवास स्थान होंगे। धी, वृत्ति, उशना, उमा, नियुत्, सर्पि, इला, अम्बिका, इरावती, सुधा एवं दीक्षा यह ग्यारह रुद्राणियाँ तुम्हारी पत्नियाँ होंगी। तुम उक्त नाम, स्थान एवं स्त्रियों को स्वीकार करके बहुत सी प्रजा उत्पन्न करो क्योंकि तुम प्रजापति हो।" इस प्रकार ब्रह्मा जी ने सनकादि ऋषियों को प्रकट किया था।
सनकादि ऋषि सदैव उदासीन भाव से भगवान की भक्ति में लीन रहते थे तथा उन्हीं चारों से उदासीन भक्ति का पथ प्रारम्भ हुआ जो वर्तमान में उदासीन अखाड़ा के रूप में प्रतिष्ठित है। सनकादि ऋषियों ने भगवान श्री हरि विष्णु के हंसावतार से ब्रह्मज्ञान की निगूढ़ शिक्षा प्राप्त की तथा उसका प्रथमोपदेश अपने शिष्य देवर्षि नारद को किया था। धर्मग्रन्थों में इन चारों ऋषियों को ही चार वेदों का रूप माना गया है। पूर्व चाक्षुष मन्वन्तर में प्रलयकाल के समय जो वेद और शास्त्र प्रलय के समय विलुप्त हो गये थे, उन वेद और शास्त्रों को सनकादि ऋषियों ने हंसावतार से पुनः प्राप्त किया था।
सनत्कुमार अथवा सनकादि ऋषि भगवान ब्रह्मा के प्रथम मानस पुत्र हैं, अतः ब्रह्मा जी उनके पिता हैं। नारद मुनि एवं दक्ष प्रजापति सनकादि ऋषियों के अनुज भ्राता हैं।
सनकादि ऋषियों को चार छोटे ब्राह्मण बालकों के रूप में दर्शाया जाता है। सनकादि ऋषियों से सम्बन्धित चित्रों में उन्हें लँगोटी एवं जनेऊ धारण किये हुये पाँच वर्षीय वैष्णव बालकों के रूप में चित्रित किया जाता है। धर्मग्रन्थों में प्राप्त वर्णन के अनुसार सनकादि मुनि सदैव पाँच वर्ष की अवस्था में ही रहते हैं।
सनत्कुमार स्तुति -
यदीयपादाब्जयुगाश्रयेण भक्तिर्वरिष्ठात्ववती विशुद्धा।
उदञ्चती श्रीभगवत्यजस्त्र नमाम्यहं श्रीसनकादिकं तम्॥
जय जय सनक, सनन्दन, सनातन, सनत्कुमार।
रुप चतुष्टय पद कमल, वन्दौ बारम्बार॥