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Shravana Mahatmya Shodasham Adhyay | Shravana Mahatmya Sixteenth Chapter

DeepakDeepak

Shravana Mahatmya Sixteenth Chapter

सोलहवाँ अध्याय

शीतला सप्तमी व्रत

भगवान शंकर श्री सनत्कुमार से बोले, "अब मैं तुम्हें श्रावण शुक्ल सप्तमी व्रत के विषय में बताता हूँ, ध्यानपूर्वक सुनो। पहले दीवार पर बावली का चित्र बनायें। उसमें अशरीरी संज्ञक दिव्य स्वरूपधारी सात जल देवता बनायें। दो लड़कों के साथ पुरुषत्रयसंज्ञित नारी, एक घोड़ा, बैल, नरवाहन सहित पालकी के चित्र बनायें। सोलह उपचार द्वारा जलदेवी की पूजा कर ककड़ी, दही और चावल का नैवेद्य समर्पण करें। नैवेद्य पदार्थों का बायना निकाल कर ब्राह्मण को अर्पण करना चाहिये। इस प्रकार सात वर्ष तक व्रत करके सात सौभाग्यवती स्त्रियों को भोजन कराकर उद्यापन करना चाहिये।"

एक सोने के पात्र में सात जल देवताओं की प्रतिमाएँ रखकर पहले दिन अपने पुत्र के साथ उन प्रतिमाओं का पूजन करना चाहिये। दूसरे दिन ग्रहहोम सहित चरु होम करना चाहिये। अब तुम इस व्रत के फल के बारे में सुनो -

महाराष्ट्र प्रदेश में शोभन नाम का एक नगर था। उसमें एक धार्मिक विचारों वाला धनी व्यक्ति रहता था। उसने निर्जन वन में एक बावड़ी बनवायी। बावड़ी में उतरने के लिये उसने मूल्यवान पत्थरों की सीढ़ियाँ बनवाई। परन्तु उस बावड़ी में एक बूँद भी पानी नहीं आया। धनी ने दुःखी होकर सोचा, "मेरा परिश्रम व धन दोनों ही बेकार हो गये।" वह इन विचारों में ग्रस्त रात को वहीं बावड़ी के पास सो गया।

रात को उसे स्वप्न आया कि यदि तुम अपने पौत्र की बलि दो तो तुम्हारी बनवाई बावड़ी जल से भर जायेगी। सुबह होने पर वह धनिक अपने घर आया और अपने पुत्र द्रविड़ से रात के स्वप्न के बारे में बताया। उसका पुत्र द्रविड़ भी धार्मिक वृत्ति वाला था। उसने पिता की बात सुनकर कहा, "पिताश्री आप मेरे जन्मदाता हैं। इस प्रकार आप अपने पौत्रों के भी जन्मदाता हुए। यह तो एक धार्मिक कार्य है। आपके शीतांशु और चण्डांशु दो पौत्र हैं। आप बिना हिचक अपने बड़े पौत्र शीतांशु की बलि दे दें। परन्तु यह बात आप स्त्रियों से गुप्त रखें। इसका कारण यह है कि मेरी पत्नी गर्भवती है। प्रसव का समय निकट होने के कारण वह अपने मायके जाने वाली है। उसके साथ आपका छोटा पौत्र चण्डांशु भी जायेगा। उसके मायके जाने के बाद यह काम निर्विघ्न समाप्त हो जायेगा। धनिक अपने पुत्र के ऐसे विचार सुनकर गद्गद हो गया और बोला तुम धन्य हो। इसी बीच उसकी पत्नी सुशीला को उसके मायके से बुलावा आ गया। वह मायके जाने की तैयारियाँ करने लगीं। तभी द्रविड़ सुशीला से बोला, "शीतांशु यही मेरे पास रहेगा और चण्डांशु तुम्हारे साथ चला जायेगा। सुशीला ने अपने पति की बात मान ली। सुशीला के जाने के बाद पिता और पुत्र ने शीतांशु के शरीर में तेल मलकर नहलाया और मूल्यवान कपड़ों तथा आभूषणों से उसे सज्जित किया। वरुण नक्षत्र पूर्वाषाढा के आ जाने पर दोनों ने उसे बावड़ी के किनारे पर ले जाकर खड़ा कर दिया और प्रार्थना करने लगे कि इस लड़के की बलि से जल देवता प्रसन्न हों। लड़के की बलि देते ही बावड़ी अमृत तुल्य जल से भर गई।"

दोनों बाप बेटे बावड़ी को जल से भरा देखकर प्रसन्न हुए परन्तु पौत्र के बलिदान से दुःखित मन से घर लौट आए। उधर सुशीला के मायके में तीसरा पुत्र पैदा हुआ। तीन मास का पुत्र होने पर वह अपनी ससुराल लौट आयी। रास्ते में जब वह बावड़ी के पास आई तो उसे जल से परिपूर्ण देखकर चकित रह गई। वह उसमें स्नान करके बोली मेरे ससुर का परिश्रम व धन का खर्च यथोचित रहा।

उस दिन श्रावण शुक्ल सप्तमी तिथि थी। सुशीला ने शीतला का शुभ व्रत करा और वहीं पर दही तथा चावल मंगवाकर स्वादिष्ट भोजन बनाया। जल देवता की पूजा करके दही, चावल और ककड़ी का नैवेद्य देकर बायना ब्राह्मणों को दे दिया। वहाँ से सुशीला की ससुराल चार कोस थी। अब सुशीला दोनों लड़कों के साथ बावड़ी से घर की ओर चल दी। इधर जल देव आपस में कहने लगे इसका बड़ा पुत्र हमें वापिस लौटा देना चाहिये क्योंकि इसने बड़े प्रेम से हमारा व्रत किया है। उन्होंने सुशीला का बड़ा पुत्र जल से बाहर निकाल दिया। माँ को देखकर शीतांशु माँ के पीछे भागता हुआ माँ-माँ कहता हुआ आया। सुशीला अपने बड़े लड़के शीतांशु को देखकर चकित रह गई। उसने उसे अपनी गोद में बैठाकर उसका सिर सूँघा। वह अपने मन में सोचने लगी कि यदि इसे यहाँ से पकड़कर चोर ले जाते तो क्या होता? क्योंकि इसने बहुमूल्य आभूषण पहन रखे हैं। यदि इसको घर से भूत पिशाच पकड़ कर लाये होते तो वे इसे अब क्यों छोड़ते? घर के सम्बन्धी चिन्ता के सागर में गोते लगा रहे होंगे। परन्तु उसने शीतांशु से कुछ पूछा नहीं कि तुम यहाँ अकेले क्या कर रहे थे?

इधर सुशीला के आने का समाचार पाकर पिता पुत्र सोचने लगे कि सुशीला जब अपने बेटे के बारे में पूछेगी तो हम क्या कहेंगे?

इसी बीच तीनों बालकों के सहित सुशीला अपने घर पहुँच गई। ससुर और पति बड़े पुत्र शीतांशु को देखकर बड़े अचम्भे में पड़ गये। तथा इसके साथ ही प्रसन्न होकर सुशीला से पूछा, "हे सुभद्रे! तुमने किस पुण्य या व्रत को किया था? निश्चय ही तुम कोई पवित्र आत्मा हो। इस शीतांशु को मरे हुए दो महीने बीत चुके हैं। फिर तुमने इसे कहाँ से प्राप्त किया है। जाते समय तुम अपने साथ एक लड़का ले गई थी। और आते समय तीन पुत्रों को लेकर आयी हो यह बड़े आश्चर्य की बात है। तुमने हमारे वंश का उद्धार किया है। मैं तुम्हारी कैसे और किस प्रकार स्तुति करूँ। इस प्रकार उसके ससुर ने उसकी प्रशंसा की और पति ने उसे प्यार भरी नजरों से देखा। सास ने भी उसकी प्रशंसा की। सुशीला ने प्रसन्न होकर कहा यह सब सुमार्ग पर चलने का फल है। हे सनत्कुमार! तुमसे मैंने शीतला सप्तमी का व्रत एवं उसकी कहानी सुनाई है। इस व्रत में दही, चावल, ठण्डा जल, ककड़ी, फल, बावड़ी जल और शीतला माता को देवता कहे गये हैं। इसे करने वाले तीनों प्रकार के तापों से मुक्त हो जायेंगे। इसलिये श्रावण शुक्ल सप्तमी का यथार्थ नाम शीतला सप्तमी हुआ।"

॥ इस प्रकार श्रीस्कन्दपुराण के अंतर्गत ईश्वर सनत्कुमार संवाद में श्रावण मास माहात्म्य में "शीतला सप्तमी व्रत" नामक सोलहवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥


Kalash
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