देवी लक्ष्मी के अनेक यन्त्र हैं, किन्तु इस पृष्ठ पर हमने देवी लक्ष्मी के सप्तविंशाक्षर मन्त्र के लिये यन्त्र पूजा विधि प्रदान की है। यह सप्तविंशाक्षर यन्त्र देवी लक्ष्मी के सभी यन्त्रों में सर्वाधिक शक्तिशाली है।
निम्नलिखित मन्त्र देवी लक्ष्मी का सप्तविंशाक्षर मन्त्र, जो महालक्ष्मी यन्त्र का मूल मन्त्र है, ॐ श्रीं ह्रीं श्रीं कमले कमलालये प्रसीद प्रसीद ॐ श्रीं ह्रीं श्रीं महालक्ष्मयै नमः॥.
इस पृष्ठ पर हमने लक्ष्मी यन्त्र पूजा करने के हेतु विस्तृत अनुष्ठानिक पूजा विधि प्रदान की है। लक्ष्मी यन्त्र को पूजा वेदी तथा घर में स्थापित किया जाता है। मान्यताओं के अनुसार, यदि यन्त्र प्राण प्रतिष्ठा के समय पूर्ण वैदिक अनुष्ठानों के द्वारा देवी लक्ष्मी का आह्वान किया जाता है, तो वे स्वयं यन्त्र में निवास करती हैं। यन्त्र की पूर्ण वैदिक अनुष्ठानों द्वारा स्थापना होने के पश्चात प्रतिदिन यन्त्र की साक्षत देवी लक्ष्मी के रूप में ही पूजा-अर्चना की जाती है।
यन्त्रोद्धार पूजा के लिये सही यन्त्र का उपयोग करना बहुत महत्वपूर्ण है। सही यन्त्र के अभाव में यन्त्र पूजा का उद्देश्य पूर्ण नहीं होता है। यन्त्र पूजा के लिये मुहूर्त की आवश्यकता होती है तथा इसे शुभ दिन एवं शुभ मुहूर्त में किया जाना चाहिये। लक्ष्मी यन्त्र पूजा के लिये लक्ष्मी पूजा, धनतेरस तथा पुष्य नक्षत्र के दिन शुभ माने जाते हैं।
भोजपत्र पर लाल चन्दन से यन्त्र की रचना करनी चाहिये। हालाँकि, अधिकांशतः स्वर्ण, रजत एवं ताम्र से निर्मित यन्त्र पूजन हेतु प्रयोग किये जाते हैं, क्योंकि उन्हें दैनिक पूजन के लिये पूजा कक्ष में स्थापित किया जा सकता है।
सही प्रकार से निर्मित लक्ष्मी यन्त्र में निम्नलिखित संरचनायें होती हैं - बिन्दु अर्थात मध्य में बिन्दु षट्कोण अर्थात बिन्दु सहित संकेन्द्रित षट्कोणीय रचना, अष्टदल अर्थात बिन्दु तथा षट्कोण सहित आठ पत्तियों वाला कमल का पुष्प। बिन्दु, षट्कोण एवं अष्टदल की चारों दिशाओं में चार द्वार होने चाहिये। इन बाह्य द्वारों को यन्त्र के भूपूर द्वार के रूप में जाना जाता है।
यन्त्र पूजा के समय आवरण पूजा सर्वाधिक महत्वपूर्ण होती है। आवरण पूजा के समय, कुल 49 मन्त्रों के द्वारा यन्त्र की पूजा की जाती है। 49 की सँख्या, यन्त्र पर खींची गयी आकृतियों से सम्बन्धित है। प्रथम आवरण पूजा षट्कोण को समर्पित है जो 5 मन्त्र, दूसरी आवरण पूजा आन्तरिक अष्टदल को समर्पित है जो 8 मन्त्र, तीसरी आवरण पूजा मध्य में स्थित अष्टदल को समर्पित है जो 8 मन्त्र, चौथी आवरण पूजा बाह्य अष्टदल को समर्पित है जो 8 मन्त्र, पाँचवीं आवरण पूजा 10 दिशाओं को समर्पित है जो 10 मन्त्र तथा छठवीं आवरण पूजा 10 दिशाओं के रक्षक को समर्पित है जो 10 मन्त्रों द्वारा की जाती है।
इस प्रकार, 5 + 8 + 8 + 8 + 10 + 10 का योग 49 होता है, जो आवरण पूजा के समय जपे जाने वाले मन्त्रों की कुल सँख्या है। कदाचित्, पूजा को सरल करने हेतु लक्ष्मी यन्त्र को 1 से 49 तक क्रमांकित किया जाता है। हालाँकि, ये सँख्यायें केवल शैक्षणिक उद्देश्य के लिये लिखीं जाती हैं तथा यन्त्र पर इन्हें लिखना अनिवार्य नहीं है।
यन्त्र पूजा आरम्भ करने से पूर्व, यन्त्र से सम्बन्धित देवता के मन्त्र के अनुसार जप करना अनिवार्य है। लक्ष्मी यन्त्र की पूजा "ॐ श्रीं ह्रीं श्रीं कमले कमलालये प्रसीद प्रसीद ॐ श्रीं ह्रीं श्रीं महालक्ष्मये नमः॥" मन्त्र से की जाती है। यह महालक्ष्मी मन्त्र सप्तविंशाक्षर मन्त्र है, इसीलिये यन्त्र पूजा आरम्भ करने से पूर्व इस मन्त्र का एक लाख (अर्थात 1,000,00) बार जप करना चाहिये।
यदि हवन सहित प्रत्येक मन्त्र के पश्चात आहुति प्रदान करते हुये मन्त्र जप किया जाये, तो इससे जप का प्रभाव अनेक गुणा बढ़ जाता है।
सर्वप्रथम, यन्त्र के मुख्य देवता, अर्थात देवी लक्ष्मी का आह्वान करें तथा ॐ कमलासनाय नमः का जाप करते हुये उन्हें आसन और पुष्प अर्पित करें। तदोपरान्त अक्षत, पुष्प, धूप, दीप तथा गन्ध से यन्त्रवरण देवता की पूजा करनी चाहिये। सभी आवरण पूजा में प्रत्येक मन्त्र के साथ तर्पण करना चाहिये। तर्पण का मन्त्र है - श्री पादुकाम् पूजयामि तर्पयामि। आवरण पूजा आरम्भ करने से पूर्व पीठ पूजा निम्नलिखित प्रकार से करनी चाहिये -
यन्त्र पूजन के पश्चात, व्यक्ति को देवी लक्ष्मी की नौ पीठ शक्ति की पूजा निम्नलिखित मन्त्र से आरम्भ करनी चाहिये ॐ मण्डुकादि परतत्वं पीठ देवताभ्यो नमः।.
पीठ पूजा के पश्चात, आवरण पूजा आरम्भ करनी चाहिये। आवरण पूजा, यन्त्र पूजा का सर्वाधिक महत्वपूर्ण भाग है। लक्ष्मी यन्त्र के लिये कुल छह आवरण पूजा की जाती हैं।
प्रत्येक आवरण पूजा के समय, एक-एक मन्त्र का उच्चारण करते हुये यन्त्र की अक्षत, पुष्प, धूप, दीप तथा गन्ध से पूजा करनी चाहिये। प्रत्येक मन्त्र के साथ तर्पण भी करना चाहिये।
प्रथम आवरण को षट्कोणे के नाम से जाना जाता है, क्योंकि यह षट्कोण के आन्तरिक भाग को समर्पित होता है।
प्रत्येक आवरण पूजा के पश्चात पुष्पाञ्जलि करनी चाहिये। पुष्पाञ्जलि मन्त्र के पश्चात, "पूजिताः तर्पिताः सन्तु।" के द्वारा तर्पण करना चाहिये।
द्वितीय आवरणम् को अष्टदलेषु के नाम से जाना जाता है, क्योंकि इसे अष्टदल के आन्तरिक भाग, अर्थात यन्त्र में कमल की आकृति को समर्पित होता है।
द्वितीय आवरण पूजा के पश्चात, पुष्पाञ्जलि भी अर्पित करनी चाहिये। पुष्पाञ्जलि मन्त्र के पश्चात "पूजिताः तर्पिताः सन्तु।" के द्वारा तर्पण करना चाहिये।
तृतीय आवरणम् को अष्टदलमध्येषु के रूप में जाना जाता है, क्योंकि यह अष्टदल के मध्य भाग, अर्थात यन्त्र में कमल की आकृति को समर्पित होता है।
तृतीय आवरण पूजा के पश्चात भी पुष्पाञ्जलि भी करनी चाहिये। पुष्पाञ्जलि मन्त्र के पश्चात "पूजिताः तर्पिताः सन्तु।" के द्वारा तर्पण करना चाहिये।
चतुर्थ आवरण को अष्टदलाग्रेषु के नाम से जाना जाता है, क्योंकि यह अष्टदल के बाह्य भाग, अर्थात यन्त्र में कमल की आकृति को समर्पित होता है।
चतुर्थ आवरण पूजा के पश्चात भी पुष्पाञ्जलि अर्पित करनी चाहिये। पुष्पाञ्जलि मन्त्र के पश्चात "पूजिताः तर्पिताः सन्तु।" के द्वारा तर्पण करना चाहिये।
पञ्चम आवरणम् को भूपूर के नाम से जाना जाता है, क्योंकि यह यन्त्र के चारों ओर की दसों दिशाओं को समर्पित होता है।
पञ्चम आवरण पूजा के पश्चात भी पुष्पाञ्जलि करनी चाहिये। पुष्पाञ्जलि मन्त्र के पश्चात "पूजिताः तर्पिताः सन्तु।" के द्वारा तर्पण करना चाहिये।
षष्ठम आवरणम् जो अन्तिम आवरणम् है, सभी 10 दिशाओं के लोकपाल को समर्पित है।
षष्ठम आवरण पूजा के पश्चात भी पुष्पाञ्जलि करनी चाहिये। पुष्पाञ्जलि मन्त्र के पश्चात "पूजिताः तर्पिताः सन्तु।" के द्वारा तर्पण करना चाहिये।
॥इति लक्ष्मी यन्त्रार्चनम्॥