टिप्पणी: सभी समय १२-घण्टा प्रारूप में Sandur, Faroe Islands के स्थानीय समय और डी.एस.टी समायोजित (यदि मान्य है) के साथ दर्शाये गए हैं।
आधी रात के बाद के समय जो आगामि दिन के समय को दर्शाते हैं, आगामि दिन से प्रत्यय कर दर्शाये गए हैं। पञ्चाङ्ग में दिन सूर्योदय से शुरू होता है और पूर्व दिन सूर्योदय के साथ ही समाप्त हो जाता है।
हिन्दु पञ्चाङ्ग के अनुसार, ज्येष्ठ शुक्ल अष्टमी तिथि को देवी धूमावती जयन्ती मनायी जाती है। देवी धूमावती दस महाविद्या देवियों में से सातवीं हैं तथा वह श्री कुल से सम्बन्धित हैं। देवी धूमावती समस्त बाधाओं एवं सङ्कटों का नाश करती हैं। देवी धूमावती भगवान शिव के धुमेश्वर रुद्र की शक्ति हैं। मान्यताओं के अनुसार, देवी धूमावती की विधिवत पूजा-अर्चना करने से घनघोर दरिद्र को भी सुख-सम्पदा प्राप्त होती है। देवी माँ अपनी कृपा से समस्त प्रकर के दुष्कर रोगों का नाश करती हैं। देवी धूमावती केतु ग्रह को प्रभावित करती हैं। अतः केतु जनित बाधाओं के शमन हेतु भी माता धूमावती का पूजन किया जाता है। देवी धूमावती का सम्बन्ध भगवान विष्णु के वामन अवतार से भी माना गया है। देवी धूमावती को दस महाविद्याओं में दारुण विद्या के रूप में पूजा जाता है।
उच्चाटन तथा मारण आदि के उद्देश्य से देवी धूमावती की साधना की जाती है। यह देवी लक्ष्मी की ज्येष्ठा हैं। सामान्यतः देवी धूमावती के स्वरूप एवं वेशभूषा के कारण उन्हें अशुभता एवं नकारात्मकता से सम्बन्धित समझा जाता है, किन्तु देवी अपने भक्तों के जीवन से रोग एवं विपत्ति का नाश करती हैं तथा युद्ध में विजय प्रदान करती हैं। नारद पाञ्चरात्र के अनुसार, देवी धूमावती ने अपनी देह से देवी उग्रचण्डिका को प्रकट किया था, जो सैकड़ों गीदड़ियों के सामान ध्वनि उत्पन्न करती हैं। स्वतन्त्र तन्त्र के अनुसार, दक्ष प्रजापति द्वारा भगवान शिव के अपमान से आहत होकर देवी सती ने यज्ञ की अग्नि में आत्मदाह कर लिया था। देवी सती के उस योगाग्नि में लीन होने के पश्चात यज्ञ के निकले धुएँ से देवी धूमावती का प्राकट्य हुआ था।
दुर्गा शप्तशती के अनुसार देवी धूमावती ने प्रतिज्ञा की थी की जो उन्हें युद्ध में परास्त कर देगा उसी से वह विवाह करेंगी, किन्तु ऐसा करने में कोई सफल नहीं हुआ। अतः देवी धूमावती कुमारी हैं।
एक समय देवी पार्वती एवं भगवान शिव कैलाश पर्वत पर भ्रमण कर रहे थे। उसी समय उन्हें तीव्र क्षुधा का अनुभव हुआ तथा उन्होंने भगवान शिव से अपनी क्षुधा की तृप्ति हेतु भोजन प्रदान करने का निवेदन किया। भगवान शिव ने उन्हें कुछ क्षण प्रतीक्षा करने को कहा। समय व्यतीत होता जा रहा था तथा देवी क्षुधा के कारण व्याकुल हो रही थीं। बारम्बार आग्रह करने पर भी भोजन का प्रबन्ध न होने पर देवी पार्वती ने अपनी क्षुधाग्नि का शमन करने हेतु भगवान शिव को ही निगल लिया। भगवान शिव को ग्रहण करते ही शिव जी के कण्ठ में उपस्थित विष के प्रभाव से देवी पार्वती की देह धूम्रमयी हो गयी तथा उनका स्वरूप विकृत हो गया। तदोपरान्त भगवान शिव अपनी माया के द्वारा देवी माँ से कहते हैं कि, "तुम्हारी सम्पूर्ण देह धूम्र युक्त होने के कारण तुम धूमावती के रूप में विख्यात होगी। जिस समय तुमने मेरा भक्षण कर लिया उसी समय तुम विधवा हो गयी। अतः समस्त संसार में तुम्हारी इसी रूप में पूजा-अर्चना की जायेगी।"