भगवान विष्णु विभिन्न उद्देश्यों की पूर्ति हेतु नाना प्रकार के अवतार धारण करते रहते हैं। इसीलिये विष्णु जी को लीलाधार, मायाधर आदि नामों से भी पुकारा जाता है। इसी क्रम में समुद्रमन्थन के समय भगवान विष्णु भगवान धन्वन्तरि के रूप में अवतरित हुये थे। श्रीमद्भागवतमहापुराण के अनुसार यह भगवान का बारहवाँ अवतार है।
भगवान धन्वन्तरि के प्राकट्य दिवस को धनतेरस के त्यौहार के रूप में मनाया जाता है। धन्वन्तरि जी अपने भक्तों को आरोग्य प्रदान करके समस्त प्रकार के रोगों का निवारण करते हैं। धन्वन्तरि भगवान को आयुर्वेद का जनक माना जाता है।
श्रीमद्भागवतमहापुराण में भगवान धन्वन्तरि की उत्पत्ति के विषय में प्राप्त वर्णन के अनुसार एक समय भगवान श्रीहरि विष्णु की प्रेरणा से अमृत की प्राप्ति के लिये दैत्य एवं देवताओं ने समुद्रमन्थन का निश्चय किया। समुद्रमन्थन के लिये मन्द्राचल पर्वत की मथानी एवं वासुकी नाग की रस्सी बनायी गयी।
समुद्र मन्थन आरम्भ होने के उपरान्त सर्वप्रथम हलाहल विष निकला जिसका पान भगवान शिव ने कर लिया तथा उन्होंने सम्पूर्ण सृष्टि की रक्षा की। शिवजी द्वारा विषपान करने के पश्चात् समुद्र मन्थन पुनः आरम्भ हुआ। तदुपरान्त समुद्र से कामधेनु नामक गाय प्रकट हुयी जिसके पवित्र घी, दुग्ध आदि से अग्निहोत्र करने हेतु उसे ऋषियों ने ग्रहण कर लिया। तत्पश्चात् उच्चैःश्रवा नाम का एक अश्व प्रकट हुआ जिसे दैत्यराज बलि ने ले लिया। तदुपरान्त ऐरावत नाम का विशाल चार दाँतों वाला दिव्य हाथी प्रकट हुआ जो देवराज इन्द्र ने ले लिया। तदनन्तर कौस्तुभ नामक पद्मराग मणि प्राप्त हुयी जिसे स्वयं भगवान विष्णु ने अपने हृदय पर धारण कर लिया। तत्पश्चात् कल्पवृक्ष निकला जो स्वर्गलोक को भेज दिया गया। तदुपरान्त अप्सरायें प्रकट हुयीं जो देवलोक को चली गयीं। अप्सराओं के पश्चात् साक्षात् देवी लक्ष्मी का प्रादुर्भाव हुआ जिन्होंने भगवान विष्णु का वरण कर लिया।
तत्पश्चात् समुद्र का और मन्थन करने पर एक दिव्य पुरुष समुद्र से प्रकट हुये, जिनकी लम्बी एवं पुष्ट भुजायें थीं, शङ्ख के समान गला था, घुँघराले केश थे, लालिमा एवं तेजयुक्त नेत्र तथा विशाल वक्षस्थल था और उनका वर्ण श्यामल था। पीताम्बर एवं विभिन्न प्रकार की मणियों से युक्त कुण्डल, मुकुट आदि स्वर्णाभूषण धारण किये वह पुरुष कोई अन्य नहीं अपितु स्वयं भगवान विष्णु के ही अंशावतार भगवान धन्वन्तरि थे। वे अपने हाथ में अमृत कलश को लिये हुये थे तथा स्मित मुस्कान उनके मुख पर सुशोभित हो रही थी। इस प्रकार भगवान धन्वन्तरि देवताओं को अमरत्व एवं समस्त प्राणियों को आरोग्य प्रदान करने के लिये समुद्रमन्थन से प्रकट हुये थे। भगवान धन्वन्तरि के इस सुन्दर एवं अलौकिक रूप के दर्शन कर सभी ने उन्हें प्रणाम किया। तदुपरान्त धन्वन्तरि जी ने देवताओं को अमरता एवं सृष्टि को आयुर्वेद का ज्ञान प्रदान किया। इस प्रकार भगवान धन्वन्तरि देवताओं को अमरत्व एवं समस्त प्राणियों को आरोग्य प्रदान करने के लिये समुद्रमन्थन से प्रकट हुये थे।
भगवान धन्वन्तरि से सम्बन्धित एक अन्य कथा के अनुसार द्वापर युग में काशी में एक राजा थे जिनका नाम दीर्घतपस था। दीर्घतपस ने पुत्र प्राप्ति की कामना से आरोग्य के देवता की आराधना की जिससे वे देवता प्रसन्न हुये तथा उन्होंने राजा को यह वरदान दिया कि वे स्वयं ही राजा दीर्घतपस के पुत्र के रूप में अवतरित होंगे।
कुछ समय पश्चात् राजा दीर्घतपस के यहाँ एक तेजस्वी पुत्र का जन्म हुआ जो समस्त लोकों में धन्वन्तरि के नाम से विख्यात हुये। धन्वन्तरि एक महान राजा थे तथा धर्मग्रन्थों में उन्हें "समस्त रोगों का निवारण करने वाले" के रूप में वर्णित किया गया है। धन्वन्तरि जी ने भारद्वाज ऋषि से आयुर्वेद एवं चिकित्सीय ज्ञान प्राप्त किया था। तदुपरान्त राजा धन्वन्तरि ने अपने चिकित्सा-ज्ञान का आठ भागों में वर्गीकरण किया तथा यह अमूल्य ज्ञान अपने विभिन्न शिष्यों को भी प्रदान किया। इस प्रकार भगवान धन्वन्तरि के अवतरण की कथा सम्पूर्ण होती है।
वायुपुराण में भगवान धन्वन्तरि के पिता के रूप में राजा दीर्घतपस का उल्लेख प्राप्त होता है। राजा दीर्घतपस का वर्णन कहीं-कहीं दीर्घतमस के नाम से भी प्राप्त होता है। आरोग्य लक्ष्मी भगवान धन्वन्तरि की अर्धांगिनी हैं।
भगवान धन्वन्तरि को पिताम्बारी एवं अङ्गवस्त्र धारण किये हुये चतुर्भुज रूप में कमल पुष्प पर खड़े हुये दर्शाया जाता है। वे अपनी चार भुजाओं में शङ्ख, आयुर्वेद, अमृत कलश एवं औषधि धारण करते हैं। कुछ चित्रों में धन्वन्तरि जी को शङ्ख, चक्र एवं आयुर्वेद एवं अमृत कलश लिये हुये चित्रित किया जाता है। भगवान धन्वन्तरि को दो भुजाओं वाले रूप में भी दर्शाया जाता है, जिसमें उनके एक हाथ में अमृत कलश होता है तथा दूसरा हाथ वरद मुद्रा में होता है।
धन्वन्तरि मूल मन्त्र -
ॐ धन्वन्तरये नमः
धन्वन्तरि गायत्री मन्त्र -
ॐ तत्पुरुषाय विद्महे अमृतकलशहस्ताय धीमहि।
तन्नो धन्वन्तरि प्रचोदयात्॥
धन्वन्तरि रोग नाशक मन्त्र -
नमामि धन्वन्तरि आदिदेवं सुरासुरैर्वन्दितपादपद्मम।
लोके जरारुग्भयमृत्युनाशनं धातारमीशं विविधौषधीनाम्॥