भगवान विष्णु के विभिन्न प्रमुख अवतारों में से एक यज्ञ अवतार भी है। भगवान यज्ञ को भगवान विष्णु के कल्पावतार के रूप में वर्णित किया गया है। मार्कण्डेयपुराण में प्राप्त वर्णन के अनुसार स्वायम्भुव मनु एवं स्वायम्भुव मन्वन्तर की रक्षा के उद्देश्य से भगवान विष्णु ने यज्ञ अवतार धारण किया था। श्रीमद्भागवतमहापुराण के अनुसार ये भगवान विष्णु का सप्तम अवतार था। यज्ञ अवतार को भगवान यज्ञेश्वर एवं मख देवता अथवा यज्ञ देवता के नाम से भी जाना जाता है। यजुर्वेद में भी भगवान यज्ञ की महिमा का वर्णन प्राप्त होता है।
भगवान यज्ञ को इन्द्रदेव, अग्निदेव, वरुणदेव, सूर्यदेव, चन्द्रदेव आदि सभी देवताओं से श्रेष्ठ माना जाता है। धर्मग्रन्थों में प्राप्त वर्णन के अनुसार यज्ञ देवता स्वायम्भुव मन्वन्तर के इन्द्र थे। श्रीमद्भगवद्गीता, श्रीविष्णु सहस्रनाम एवं वेदों के अनुसार हिन्दु धर्म में यज्ञ अनुष्ठान को साक्षात् भगवान विष्णु का ही रूप माना जाता है।
श्रीमद्भागवतमहापुराण एवं सुखसागर में प्राप्त कथा के अनुसार एक समय सृष्टि विस्तार की इच्छा से ब्रह्माजी ने स्वयं के शरीर को दो भागों में विभक्त कर लिया जिनमें से एक भाग 'का' तथा दूसरा भाग 'या' कहलाया, जिसे काया कहा जाता है। ब्रह्माजी की देह के एक भाग से पुरुष तथा दूसरे से स्त्री की उत्पत्ति हुयी। पुरुष का नाम स्वायम्भुव मनु तथा स्त्री का नाम शतरूपा था। इन्हीं प्रथम पुरुष एवं प्रथम स्त्री की सन्तानों से संसार के समस्त मनुष्यों की उत्पत्ति हुयी है। मनु की सन्तान होने के कारण मनुष्यों को मानव कहा जाता है।
स्वायम्भुव मनु को चित्रगुप्त जी के परपौत्र के रूप में भी वर्णित किया गया है। ब्रह्माजी की काया से उत्पन्न होने के कारण चित्रगुप्त जी को कायस्थ कहा जाता है तथा चित्रगुप्त जी के पुत्र भानुश्रिवस्तव थे जिनके पुत्र देवधूत्रक थे तथा उनके पुत्र स्वायम्भुव मनु थे। स्वायम्भुव मनु के नाम से ही स्वायम्भुव मन्वन्तर प्रचलित था।
स्वायम्भुव मनु के प्रियव्रत एवं उत्तानपाद नाम के दो पुत्र थे तथा तीन कन्यायें थीं जिनका नाम आकूति, देवहूति एवं प्रसूति था। मनु ने आकूति का विवाह पुत्रिकाधर्म पद्धति द्वारा रुचि प्रजापति के साथ कराया। पुत्रिकाधर्म विवाह के अन्तर्गत जिस व्यक्ति का कोई पुत्र नहीं होता वह अपनी पुत्री का विवाह कराते समय उसके पति से यह वचन लेता है कि उसकी पुत्री के गर्भ से उत्पन्न प्रथम पुत्र को उस पुत्री का पिता गोद लेगा। किन्तु आकूति के भ्राता होते हुये भी उसने अपनी माँ महारानी शतरूपा की आज्ञा से पुत्रिकाधर्म के अनुसार ही प्रजापति रुचि से विवाह किया।
आकूति एवं प्रजापति रुचि के पुत्र के रूप में भगवान यज्ञपुरुष का जन्म हुआ जो स्वयं भगवान विष्णु के ही अवतार थे। भगवान यज्ञ ने देवी दक्षिणा से विवाह किया जो देवी लक्ष्मी का ही अंशावतार थीं। भगवान यज्ञपुरुष के कारण ही सृष्टि में यज्ञ आदि अनुष्ठान आरम्भ हुये जिसके फलस्वरूप देवता शक्तिशाली होने लगे तथा देवताओं की शक्ति में वृद्धि होने से सम्पूर्ण सृष्टि में शक्ति का सञ्चार होने लगा।
भगवान यज्ञ की कृपा से देवी दक्षिणा ने तोष, प्रतोष, सन्तोष, भद्र, शान्ति, इडस्पति, इध्म, कवि, विभु, स्वह्न, सुदेव एवं रोचन नामक बारह पुत्रों को जन्म दिया जिन्हें संयुक्त रूप से याम देवताओं के नाम से जाना जाता है। ये याम देवता स्वायम्भुव मन्वन्तर के मुख्य देवता थे।
स्वायम्भुव मनु ने अपनी दूसरी कन्या देवहूति का विवाह कर्दम ऋषि के साथ कराया जो ब्रह्मा जी के मानस पुत्र थे तथा मनु जी ने अपनी तीसरी कन्या प्रसूति का विवाह ब्रह्मा जी के पुत्र दक्ष प्रजापति से कराया।
कालान्तर में एक समय स्वायम्भुव मनु के हृदय में तीव्र वैराग्य उत्पन्न हुआ। उनका मन सांसरिक विषयों से विरक्त होने लगा जिसके फलस्वरूप स्वायम्भुव मनु ने पृथ्वी के राजपाठ का त्याग कर दिया। वे अपनी सहधर्मिणी महारानी शतरूपा सहित वन में सुनन्दा नदी के तट पर एक पग पर खड़े होकर तपस्या करने लगे। उन्हें तपस्या करते हुये 100 वर्ष व्यतीत हो गये थे। तदनन्तर उस वन में भयङ्कर राक्षसों का एक समूह आया। वे राक्षस तपस्या में लीन मनु एवं शतरूपा को देख उनका भक्षण करने हेतु ज्यों ही उन पर आक्रमण करने को तत्पर हुये, त्यों ही उस स्थान पर महाराज मनु एवं महारानी शतरूपा के पौत्र अर्थात् भगवान यज्ञ अपने बारह पुत्रों सहित प्रकट हो गये। भगवान यज्ञ ने अपनी मायावी शक्तियों द्वारा मनु एवं शतरूपा के चारों ओर एक सुरक्षा मण्डल निर्मित कर दिया तथा अपने पुत्रों सहित उन राक्षसों पर आक्रमण कर दिया। भगवान यज्ञ एवं उन दैत्यों के मध्य भीषण युद्ध हुआ तथा अन्त में अपने प्राणों की रक्षा करते हुये वे दैत्य युद्ध छोड़कर भाग गये।
समस्त देवताओं ने भगवान यज्ञ पर पुष्पवर्षा की एवं उनसे इन्द्र का पद स्वीकार करने की प्रार्थना करने लगे। देवताओं के बारम्बार निवेदन पर भगवान यज्ञ ने इन्द्रासन स्वीकार कर लिया तथा वे स्वायम्भुव मन्वन्तर के इन्द्र के रूप में प्रतिष्ठित हुये। कथानुसार स्वायम्भुव मन्वन्तर में देवताओं एवं स्वर्ग के राजा के रूप में इन्द्रासन पर विराजमान होने हेतु कोई भी योग्य इन्द्र नहीं था, अतः उस मन्वन्तर के इन्द्र के रूप में प्रतिष्ठित होने हेतु साक्षात् भगवान विष्णु ने अवतार लिया था।
इस प्रकार भगवान यज्ञ के रूप में अवतरित होकर भगवान विष्णु ने मनु एवं उनके मन्वन्तर की रक्षा की थी।
रुचि प्रजापति भगवान यज्ञ के पिता तथा देवी आकूति उनकी माता थीं। भगवान यज्ञ का विवाह देवी दक्षिणा से हुआ था जिनसे उन्हें तोष, प्रतोष, सन्तोष, भद्र, शान्ति, इडस्पति, इध्म, कवि, विभु, स्वह्न, सुदेव एवं रोचन नामक बारह पुत्र प्राप्त हुये थे।
भगवान यज्ञ नारायण को पीताम्बरी धारण किये हुये, नाना प्रकार के स्वर्णभूषणों व मुकुट से अलङ्कृत तथा यज्ञ कुण्ड से प्रकट होते हुये दर्शाया जाता है। भगवान यज्ञ से सम्बन्धित अधिकांश चित्रों में उन्हें चतुर्भुज रूप में अपनी चार भुजाओं में शङ्ख, चक्र, गदा एवं पद्म धारण किये हुये चित्रित किया जाता है।
यज्ञ देवता के कुछ चित्रों में उन्हें दो भुजाओं वाले रूप में पद्मासन में विराजमान तथा बिना मुकुट धारण किये हुये केशों का जूड़ा बनाये हुये दर्शाया जाता है।
यज्ञ देवता मूल मन्त्र -
ॐ यज्ञपुरुषाय नमः।
यज्ञ देवता वैदिक मन्त्र -
ॐ यज्ञेन यज्ञमयजन्त देवास्तानि धर्माणि प्रथमान्यासन्।
ते ह नाकं महिमानः सचंत यत्र पूर्वे साध्याः संति देवाः॥
भगवान विष्णु के यज्ञ अवतार से सम्बन्धित किसी मुख्य त्यौहार का वर्णन प्राप्त नहीं हुआ है। हालाँकि नवरात्रि, मकर संक्रान्ति, लोहड़ी आदि ऐसे अनेक त्यौहार हैं जिनके अवसर पर यज्ञ किये जाते हैं।