श्रीमद्भागवतमहापुराण में वर्णित भगवान विष्णु के 24 अवतारों में से उनका नवम अवतार राजा पृथु के रूप में हुआ था। समस्त ऋषियों की प्रार्थना पर भगवान विष्णु राजा पृथु के रूप में अवतरित हुये थे। राजा पृथु के रूप में अवतरित होकर भगवान विष्णु ने पृथ्वी से समस्त प्रकार की औषधियों का दोहन किया था।
राजा पृथु को पृथ्वी के प्रथम राजा के रूप में जाना जाता है जिन्होंने न केवल पृथ्वी पर विशाल साम्राज्य को व्यवस्थित किया अपितु इधर-उधर अव्यवस्थित पृथ्वी को ग्राम, नगर, राज्य आदि भागों में वर्गीकृत किया। वर्तमान में प्रचलित आधुनिक नगरीय व्यवस्था महाराज पृथु के द्वारा ही स्थापित है।
भगवान विष्णु के पृथु अवतार की कथा के अनुसार ध्रुव जी के वनगमन के उपरान्त कालान्तर में उनके वंश में अङ्ग नाम के एक राजा हुये। वे अत्यन्त प्रतापी, धर्मपारायण एवं भगवान के भक्त थे। राजा अङ्ग के वनगमन के पश्चात् उनके पुत्र वेन का राज्याभिषेक किया गया। वेन अत्यन्त पापी प्रकृति का था तथा उसने धर्म-कर्म, पूजन-हवन, दान-स्नान आदि सभी धार्मिक गतिविधियों को निषिद्ध कर दिया था। ऋषिगणों द्वारा बहुत समझाने पर भी वेन नहीं समझा। अन्ततः ऋषिगणों ने क्रोधपूर्ण हुँकार भरी एवं उसकी ओर अग्रसर हुये। उन ऋषियों के तेज मात्र के प्रभाव से ही वेन तत्क्षण भस्म हो गया।
वेन की कोई सन्तान नहीं थी एवं राज्यसिंहासन का उत्तराधिकारी होना आवश्यक था। कोई शासक न होने के कारण चहुँओर हाहाकार होने लगा। चोर, डकैत, अधर्मी, पापी, दुराचारी आदि दुष्ट प्रकृति वाले निरंकुश हो गये। अतः ऋषियों ने राजा वेन की भुजाओं का मन्थन किया, जिससे एक दिव्य जोड़ा प्रकट हुआ। उस जोड़े में पुरुष स्वरूप में महाराज पृथु थे एवं देवी स्वरूप में महारानी अर्चि थीं। तदुपरान्त महाराज पृथु का राज्याभिषेक किया गया तथा उन्हें समस्त पृथ्वी के सम्राट के रूप में प्रतिष्ठित किया गया। महाराज पृथु जब सिंहासन पर विराजमान हुये थे, उस समय पृथ्वी अन्नहीन थी एवं प्रजा भूख से व्याकुल हो रही थी।
प्रजा की दुर्दशा देखकर राजा पृथु अत्यन्त व्यथित हुये। उन्हें ज्ञात हुआ कि पृथ्वी माता ने अन्न, औषधि आदि को अपने उदर में समाहित कर लिया है जिससे वे क्रोधित होकर धनुष बाण लिये पृथ्वी के पीछे दौड़ पड़े। पृथ्वी काँप उठी एवं गौ का रूप धारण करके भागने लगी। पृथ्वी ने जब देखा कि मेरी रक्षा कोई नहीं कर सकता तो वह राजा पृथु की शरण में ही आ गयी।
गौ का रूप धारण किये हुये पृथ्वी ने राजा पृथु से विनती करते हुये कहा कि - "हे राजन्! पूर्वकाल में ब्रह्माजी ने जिन धान्य आदि को उत्पन्न किया था, उन्हें अधर्मी एवं पापी जनों ने नष्ट कर दिया था तथा प्रजा ने मेरा पालन एव आदर करना त्याग दिया था। इसीलिये औषधियों को मैंने स्वयं में समाहित कर लिया। यदि आपको अन्न की आवश्यकता है तो सर्वप्रथम मुझे समतल कीजिये, जिससे इन्द्र द्वारा बरसाया हुआ जल वर्षा-ऋतु के उपरान्त भी मेरे ऊपर सर्वत्र बना रहेगा तथा मेरे लिये योग्य बछड़ा, दोहनपात्र एवं दूहने वाले की व्यवस्था कीजिये तब मैं औषधि और अन्न पर्याप्त मात्रा में प्रदान करूँगी।"
राजा पृथु ने देवी पृथ्वी को पुत्रीवत मानकर उनके कथनानुसार सभी वस्तुओं की पूर्ति की तथा उन्होंने अपने धनुष की नोंक से पर्वतों को खण्डित कर समस्त धरा को समतल कर दिया। तदुपरान्त इस समतल भूमि में प्रजा हेतु यथायोग्य निवास स्थानों का निर्धारण किया और अनेक ग्राम, नगर, पशुओं का निवास तथा सैनिक छावनियों आदि का निर्माण किया। महाराज पृथु ऐसे प्रथम राजा थे जिन्होंने पृथ्वी को व्यवस्थित किया। जिसके कारण महाराज पृथु को ही इस पृथ्वी का प्रथम राजा माना जाता है। एक राजा का कर्त्तव्य पूर्ण करने के पश्चात् पृथु के मन में भगवान के दर्शन की अभिलाषा जागृत हुयी तथा उन्होंने 100 अश्वमेध यज्ञ करने का सङ्कल्प लिया।
उधर स्वर्गलोक में देवराज इन्द्र इस विषय में चिन्तित हो गये कि यदि पृथु ने 100 अश्वमेध यज्ञ पूर्ण कर लिये तो उनका इन्द्रासन छिन जायेगा। 99 यज्ञ पूर्ण होने पर 100 वें यज्ञ के समय इन्द्र ने यज्ञ का अश्व चुरा लिया। राजा पृथु ने दुखी होकर ब्रह्माजी का ध्यान किया। ब्रह्माजी ने राजा पृथु से कहा - "क्या आपको लगता है कि 100 यज्ञ पूर्ण करने से भगवान के दर्शन अवश्य होंगे? यदि ऐसा होता तो इन्द्र को भी भगवद्दर्शन हो जाते। वह 100 यज्ञ करने के उपरान्त ही तो इन्द्र के रूप में प्रतिष्ठित हुआ है तत्पश्चात् भी चोरी के समान कुकृत्य कर रहा है।"
ब्रह्माजी राजा पृथु को समझाते हुये आगे बोले - "हे राजन्! भगवान प्रेम से प्राप्त होते हैं। 100 यज्ञ करो अथवा 1000 यज्ञ करो जब तक हृदय में प्रेम नहीं होगा भगवान के दर्शन नहीं होंगे।" ब्रह्मा जी के समझाने से महाराज पृथु समझ गये तथा उन्होंने अन्तिम यज्ञ का सङ्कल्प मध्य में ही त्याग दिया।
अन्तिम यज्ञ का सङ्कल्प त्यागने के कुछ समय पश्चात् ही राजा पृथु को यज्ञशाला में शङ्ख, चक्र, गदा एवं पद्म धारण किये हुये साक्षात् भगवान श्रीहरि नारायण एवं देवराज इन्द्र के दर्शन होते हैं। भगवान को सम्मुख पाकर राजा पृथु ने उनका विधिपूर्वक पूजन किया। पूजनोपरान्त भगवान बोले - "हे राजन्! तुम्हारे गुणवान एवं शीलवान चरित्र से मैं अति प्रसन्न हूँ। अतः तुम मुझसे कोई वरदान माँगो।" पृथु ने कहा - "हे प्रभो! मुझे एक वरदान इस लोक के लिये तथा एक वरदान वैकुण्ठ के लिये प्रदान कीजिये। इस लोक के लिये मुझे 10,000 कर्ण (कान) प्रदान करें।" भगवान ने आश्चर्यचकित होकर पूछा, "10,000 कर्ण? भला ऐसा वरदान क्यों प्राप्त करना चाहते हो?" राजा पृथु ने उत्तर दिया - "हे स्वामी! दो कानों से आपकी कथा श्रवण करने से मेरा मन तृप्त नहीं होता है। 10,000 कर्ण होंगे तो सभी कानों से आपकी कथा का श्रवण करके अत्यन्त आनन्द का अनुभव करूँगा।"
पृथु के उत्तर से प्रसन्न होकर भगवान ने उन्हें दो कानों में ही 10,000 कानों की शक्ति प्रदान की तथा पुनः प्रश्न किया - "वैकुण्ठ के लिये तुम क्या वरदान माँगना चाहते हो?" पृथु जी ने कहा - "मुझे वैकुण्ठ में आपकी चरण सेवा करने का सौभाग्य प्राप्त हो।" भगवान विष्णु ने कहा - "तुम्हारे जैसे भगवत्प्रेमी को मैं चरण सेवा हेतु कैसे मना कर सकता हूँ?" पृथु जी ने कहा - "आप तो मना नहीं करेंगे, किन्तु आपके चरणों की सेवा में निरन्तर लीन रहने वाली देवी लक्ष्मी दो चरण सेवक हो जाने पर अवश्य आपत्ति करेंगी। अतः ऐसा वरदान दीजिये कि चरण सेवा के विषय पर विवाद होने पर आप लक्ष्मी जी का नहीं अपितु मेरा पक्ष लेंगे।" पृथु महाराज की भक्ति देखकर भगवान के नेत्र सजल हो गये तथा भगवान वरदान देकर अन्तर्धान हो गये। तदुपरान्त राजा पृथु ने अपनी प्रजा को धर्म का उपदेश देते हुये कहा कि - "प्रजा जो धर्म करती है उसका छठवाँ अंश राजा को प्राप्त होता है। अतः मेरे हित को ध्यान में रखते हुये तुम सभी सदैव शुभ कर्म ही करना।" इस प्रकार प्रजा को धर्मोपदेश देकर राजा पृथु वहाँ से प्रस्थान कर गये।
एक समय महाराज पृथु के उद्यान में सनक, सनन्दन, सनातन एवं सनत्कुमार अर्थात् सनकादि ऋषियों का पदार्पण हुआ। राजा पृथु ने उनसे अपने कल्याण का मार्ग पूछा। सनकादि ऋषियों ने कहा - "आप तो भगवान के दर्शन कर चुके हैं, किन्तु इसके पश्चात् भी यदि आप पूछना ही चाहते हैं तो हम वर्णन करते हैं, ध्यानपूर्वक सुनो! यदि चार बातें जीवन में हों तो मनुष्य का कल्याण होता है, सर्वहित का भाव, धार्मिक जीवन, भगवान के प्रति प्रेम व श्रद्धा तथा सद्गुरु कृपा। सनकादि ऋषियों से उद्धार का मार्ग ज्ञात करने के उपरान्त राजा पृथु अपने पुत्र का राज्याभिषेक करके स्वयं वन में चले गये तथा भगवान का ध्यान करते हुये उन्होंने अपना पाञ्चभौतिक शरीर त्याग दिया। महारानी अर्चि भी उनकी देह सहित सती हो गयीं। इस प्रकार दोनों का वैकुण्ठ गमन हो गया तथा भगवान विष्णु के महाराज पृथु अवतार की कथा समाप्त हुयी।
महराज पृथु का जन्म राजा वेन की भुजाओं के मन्थन से हुआ था। अतः राजा वेन उनके पिता थे। पृथु जी ने महारानी अर्चि से विवाह किया था जो देवी लक्ष्मी का ही अंशावतार थीं। श्रीमद्भागवतमहापुराण के अनुसार महाराज पृथु एवं महारानी अर्चि के पाँच पुत्र थे जिन्हें विजिताश्व, धूम्रकेश, हर्यक्ष, द्रविण तथा वृक के नाम से जाना जाता है।
महाराज पृथु को दो भुजाओं वाले सुन्दर राजा के रूप में दर्शाया जाता है। वे नाना प्रकार के स्वर्णाभूषण एवं रत्नजड़ित मुकुट तथा धोती एवं अङ्गवस्त्र धारण करते हैं। गले में सुगन्धित पुष्पों की माला धारण करते हैं। महाराज पृथु के साथ उनकी धर्मपत्नी महारानी अर्चि को भी चित्रित किया जाता है।