वशिष्ठ मुनि ने राजा दशरथ से कहा कि - "हे राजन्! आश्विन शुक्लपक्ष चतुर्थी वर-प्रदायक मानी गयी है। मैं इससे सम्बन्धित पूर्वकाल में घटित व्रतयुक्त माहात्म्य का इतिहास वर्णित करूँगा, जो तुम्हारे लिये सर्वार्थ सिद्ध करने वाला होगा। अतः ध्यानपूर्वक श्रवण करो।"
कथा आरम्भ करते हुये वशिष्ठ मुनि कहते हैं - "रैवत मन्वन्तर के अन्तर्गत एक अत्यन्त यशस्वी एवं सुविख्यात राजा थे, जो समस्त शास्त्रों में दक्ष थे। उनका नाम कीर्तिमान् था, किन्तु कुछ ग्रन्थों में उन्हें धर्मधर के नाम से भी वर्णित किया गया है। राजा धर्मधर पाँचों यज्ञ करने वाले एवं नीति के ज्ञाता थे तथा वे अपनी प्रजा का पुत्र की भाँति पोषण करते थे। उनकी एक धर्मपत्नी थी, जो अत्यन्त गुणवती एवं पतिव्रता स्त्री थी। राजा की पत्नी सभी सुलक्षणों से युक्त थी तथा ब्राह्मणों, देवताओं एवं अतिथियों का आदर-सत्कार करने वाली थी। राजा धर्मधर के पास अश्वारोही, गजारोही तथा असङ्ख्य पैदल धनुर्धरों से युक्त विशाल सेना थी। उन राजा ने सप्त-द्वीपों वाली पृथ्वी का पालन करते हुये देवासुर संग्राम में अजेय एवं वीर शत्रुओं का संहार किया था।
किन्तु राजा वन्ध्या दोष के कारण पुत्रहीन थे एवं उन्होंने पुत्र-प्राप्ति हेतु नाना प्रकार के प्रयत्न किये। राजा ने पूर्ण विधि-विधान से अनेकों तीर्थयात्रायें कीं, विभिन्न देवताओं का पूजन एवं अनुष्ठान किये। अतः अनेकों प्रकार के पुण्यकर्म करने पर भी राजा को पुत्र की प्राप्ति नहीं हुयी। तदुपरान्त राजा ने राज्य का त्याग कर दिया तथा पत्नी सहित वन में चले गये। राजवन से भ्रमण करते हुये राजा धर्मधर को एक विशाल महावन दृष्टिगोचर हुआ। उस महावन में सिंह, व्याल, गज, हिरण आदि अनेक प्रकार के पशु थे। वह भीषण वन अत्यन्त भयावह था। व्याकुल हृदय से राजा ने उस वन में प्रवेश किया। महावन में प्रवेश करने पर राजा को सौभरि ऋषि का दर्शन हुआ। मुनिश्रेष्ठ सौभरि को प्रणाम आदि कर राजा करबद्ध होकर मुनि के सम्मुख खड़े हो गये। सौभरि मुनि ने मधुर वचनों से राजा का सत्कार किया एवं उन्हें आसन प्रदान किया।
मुनिपुंगव सौभरि जी ने आसनासीन राजा से पूछा - 'तुम कौन हो तथा इस भयानक सघन वन में किस प्रयोजन से आये हो? इस प्रकार मुनिवर द्वारा प्रश्न करने पर राजा बोले - 'हे महामुने! मैं द्राविड़ देश में निवास करता हूँ तथा सार्वभौम राज्य शासन करता हूँ। हे मुनिवर! दैवयोग से मैं पुत्रहीन हूँ, मुझे कोई पुत्र नहीं हुआ है। मैं पुत्र प्राप्ति की कामना से अनेकों व्रत, तीर्थ आदि धर्म-कर्म करता हूँ। हे योगिराज! मैं अपने राज्य का त्याग कर पुत्र-प्राप्ति की कामना से इस वन में आया हूँ। यहाँ आते ही मुझे आपका पुण्यशाली दर्शन प्राप्त हुआ है। आपके दर्शन मात्र से मेरा जीवन सफल हो गया एवं मेरे पूर्वज धन्य-धन्य हो गये।
हे मुनिवर! मुझपर कृपा करके पुत्र-प्राप्ति का कोई उपाय मुझे बतायें, मैं आपकी आज्ञानुसार प्रत्येक कर्म का पालन करूँगा। हे मुनिश्रेष्ठ! मैंने इस जन्म में कोई महापाप नहीं किया है तथा पाप कर्म से भयभीत होते हुये पृथ्वी पर शासन किया है। तथापि यह पुत्रहीनता का दुःख मुझे प्राप्त हुआ है। बहुत विचार एवं मनन करने पर भी मुझे ज्ञात नहीं हो रहा कि क्या यह मेरे पूर्वजन्म का पाप है? अपितु कोई अन्य कारण है जो मुझे यह वन्ध्य दोष प्राप्त हुआ है। अतः हे सर्वज्ञाता! मेरे महापाप के विषय में मुझे बतायें, क्या मैंने कोई घोर पाप किया है? आप योगियों में सर्वश्रेष्ठ, महातेजस्वी तथा साक्षात् ब्रह्म की देह को धारण करने वाले हैं, कृपया मेरी समस्या का समाधान करने की कृपा करें।'"
वशिष्ठ मुनि राजा दशरथ से कहते हैं - "हे राजन्! इस प्रकार राजा कीर्तिमान् द्वारा महामुनि सौभरि से विनयपूर्ण निवेदन करने पर भगवान गणपति के परम भक्त सौभरि मुनि ने राजा से कहा - 'अरे महाराज कीर्तिमान्! तुमने विशेष रूप से महाघोर पाप किया है। अरे अधम राजन्! ये तुम्हारे पूर्व जन्म में किये पाप का परिणाम नहीं है। अरे मूर्ख! तुम्हारे राज्य में सभी व्रतों में उत्तम एवं फलदायक चतुर्थी व्रत समाप्त हो गया है। अरे नराधम! जिस मनुष्य ने चतुर्थी का व्रत नहीं किया, उसके समस्त व्रत निष्फल हो जाते हैं। अतः तुमने जो नाना प्रकार के पुण्यकर्म किये हैं, वे सभी चतुर्थी व्रत का पालन न करने के कारण निष्फल हो गये हैं। हे राजन्! शास्त्रों एवं धर्मग्रन्थों में प्राप्त वर्णन के अनुसार राष्ट्र में हुये पाप को राजा भोगता है। अतः आपके राज्य में जो मनुष्य व्रतहीन हो गये हैं, उनके पापों के भागी आप हैं। अतः आप निःसन्देह ही पापमयी मूर्ति हैं। इसीलिये हे नराधम! इसी कारण से तुम्हें बन्ध्यत्व प्राप्त हुआ है।
सौभरि मुनि के वचन श्रवण कर भयभीत होकर राजा कीर्तिमान् ने प्रार्थना करते हुये कहा - 'हे महात्मन्! मुझसे अज्ञानतावश उस व्रत का पालन न करने का यह पाप हुआ है। अतः हे विप्र! यह व्रत कैसा है तथा किस प्रकार किया जाता है आदि विधान सहित इस व्रत का वर्णन करने की कृपा करें। हे महामते! मुझे पुत्र प्राप्ति हेतु भी कोई ऐसा उपाय बतायें, जिससे मैं पापमुक्त, सुखी तथा पुत्रवान हो जाऊँ।'
सौभरि मुनि ने कहा - 'हे राजन! तुम नित्य चतुर्थी व्रत का पालन करो तथा सभी मनुष्यों से भी करवाओ। इस व्रत के पुण्य प्रभाव से तुम सभी पापों से मुक्त हो जाओगे। हे राजन! तुमने अज्ञानतावश अत्यन्त ताप युक्त पाप किया है। अतः चतुर्थी व्रत का पालन करने से ही आप निष्पाप एवं पुण्यशाली होंगे।' इस प्रकार कहकर मुनिवर ने राजा के समक्ष विस्तृत रूप से व्रत के माहात्म्य का वर्णन किया।
तदुपरान्त राजा कीर्तिमान् ने कहा - 'हे मुनिश्रेष्ठ! ये गणाधीश कैसे हैं? जिनका व्रत धर्म, अर्थ, काम एवं मोक्ष चारों पुरुषार्थ प्रदान करने वाला तथा ब्रह्मभूयकर, अर्थात् ब्रह्म ही बना देने वाला माना गया है। कृपया मुझे बतायें, मैं अवश्य ही उनकी साधना करूँगा।'
मुनिशार्दूल सौभरि ने कहा - 'भगवान श्रीगणनाथ का माहात्म्य शान्ति एवं योगपद प्रदान करने वाला है। मैं पहले अनेकों छन्दों से उनकी भक्ति में लीन होकर तपस्या कर रहा था। उस समय मेरी तपस्या से सभी देवगण भयभीत हो गये तथा विचार करने लगे कि - 'ज्ञात नहीं, यह उत्तम ब्राह्मण तप के द्वारा कौन सा श्रेष्ठ पद प्राप्त करना चाहता है?'
तदुपरान्त देवताओं ने मेरी तपस्या भङ्ग करने के उद्देश्य से पत्नी रति सहित कामदेव को भेजा। कामदेव ने उर्वशी आदि अप्सराओं सहित काम भावना जागृत करने वाले बाणों से मुझ पर प्रहार किया एवं मुझे काम से पीड़ित कर दिया। परन्तु मैंने तपोबल के प्रभाव से स्त्री सहित कामदेव को जीत लिया एवं उन्हें मोहहीन कर आतप उत्पन्न कर दिया। मेरे उग्रतप से कामदेव दग्ध होने लगा तथा अप्सराओं सहित भागकर इन्द्र की शरण में चला गया। तदनन्तर मैं योगमार्ग से अन्तर्निष्ठ हो गया तथा योग के कारण जड़ एवं उन्मत्त आदि मार्गों में स्थित हो गया, अर्थात् अवधूत हो गया। उस समय भगवान गणेश के अनन्य भक्त महायोगी शुकदेव जी वहाँ प्रकट हुये। मेरे आश्रम मैं मुझे देखकर उन्होंने कहा - 'हे मुने! तुम्हारी क्या मनोकामना है?' मैंने कहा - 'हे महायशस्वी! मेरे श्रेष्ठ भाग्य से आपका दर्शन प्राप्त हुआ है। हे महायोगिन्! मुझे शान्ति प्राप्त करने का मार्ग बतायें।'
श्री शुकदेव जी ने कहा कि - 'पाँच प्रकार के चित्त को त्यागकर तथा उस चित्त को श्री गणेश जी में लीन करके चित्त की भूमियों के निरोध से निश्चित ही तुम्हें शान्ति प्राप्त होगी। अतः हे विप्रवर! तुम एकाक्षर मन्त्र द्वारा चिन्तामणि भगवान श्रीगणेश का भजन करो। हे महात्मन्! उस चिन्तामणि में सम्यक् प्रकार से तुम्हारा चित्त लीन हो जायेगा। हे महाभाग! समस्त जड़ादिक मार्ग को त्यागकर शम एवं दम परायण होकर भगवान श्रीगणेश का ध्यान करो।' इस प्रकार कहकर स्वेच्छाचारी योगी शुकदेव जी गणेश नाम की महिमा का गुणगान करते हुये एवं गणेश जी का जप करते हुये वहाँ से अन्तर्धान हो गये।'
मैंने सम्यक् प्रकार की भक्ति से युक्त होकर भक्तिपूर्वक एकाक्षर विधान से मूर्ति स्थापना करके गणपति का ध्यान किया। तदुपरान्त अल्पकाल में ही मुझे शान्ति प्राप्त हो गयी, तथापि में निरन्तर श्री गणेश का पूजन-भजन करता रहा। दश वर्ष व्यतीत होने के उपरान्त विघ्नेश्वर श्रीगणेश जी मेरे सम्मुख प्रकट हुये। हे राजन! उस समय नाना प्रकार के स्तोत्रों से मैंने भगवान गणेश की स्तुति की। तब प्रसन्न होकर उन्होंने मुझे गाणपत्य पद प्रदान करके अपने स्वानन्दकपुर को प्रस्थान कर गये। उसी समय से मैं निरन्तर ब्रह्मनायक का भजन कर रहा हूँ।'
ऐसा कहकर उन्होंने विधिपूर्वक राजा को छः अक्षर वाला मन्त्र प्रदान किया तथा प्रणाम कर राजर्षि अपने नगर को प्रस्थान कर गये। तदुपरान्त वह राजा आश्विन मास के शुक्लपक्ष की द्वितीया को घर गया। उसी माह में शुक्लपक्ष की चतुर्थी तिथि में राजा कीर्तिमान् ने व्रत करना आरम्भ कर दिया। राजा ने सम्पूर्ण प्रजा सहित उपवास का पालन किया तथा मध्याह्न में पूर्ण विधि-विधान से गणपति पूजन किया। बालक, वृद्ध आदि प्रत्येक वर्ग सहित रात्रि में जागरण किया तथा सभी स्त्री, पुरुषों ने पूर्ण विधि-विधान से चतुर्थी व्रत का पालन किया।
राजा ने घोषणा कर दी कि - 'जो मनुष्य शुक्लपक्ष एवं कृष्णपक्ष की चतुर्थी का व्रत नहीं करेंगे, वे इस भूलोक पर यत्र-तत्र दण्डित एवं ताड़नीय होंगे।' इस प्रकार राजा की घोषणा से प्रेरित होकर सभी मनुष्य व्रत करने लगे एवं समस्त भूमण्डल पर चतुर्थी व्रत प्रसिद्ध हो गया। तदुपरान्त भूमण्डल पर राज्य करके राजा ने अपना राज्य पुत्र को प्रदान कर दिया तथा स्वयं स्त्री-रहित होकर वन में भगवान गणेश की आराधना करने लगे। अन्त में वह राजा स्वानन्दवासी होकर ब्रह्मभूत हो गये तथा उनके राज्य में जितने भी मनुष्य थे, वे सभी भी स्वानन्दवासी हो गये।"
महामुनि वशिष्ठ ने राजा दशरथ से कहा कि - "हे नृपश्रेष्ठ! इस प्रकार आश्विन मास में व्रत से उत्पन्न अन्य परम अद्भुत इतिहास को मैं तुमसे कहूँगा, उसका ध्यानपूर्वक श्रवण करो। प्राचीनकाल में भीम नामक एक महाव्याध था, जो अनेक प्रकार के पाप कर्म करने वाला था। वह व्याध यात्रा कर रहे पथिकों की मार्ग में ही हत्या कर उनका धन एवं अन्य सामान लूट लिया करता था। एक समय उस व्याध ने वन में किसी ब्राह्मण पर आक्रमण कर दिया, उसके आक्रमण से हताहत होकर ब्राह्मण प्राणों की रक्षा हेतु भागने लगा। उसी समय संयोगवश वहाँ अश्व पर आरूढ़ एक शस्त्रधारी पुरुष आ गया। उस शस्त्रधारी पुरुष ने ब्राह्मण को भागते हुये देखा तो तत्क्षण ही भीम को बलपूर्वक बन्धक बना लिया। तदुपरान्त ब्राह्मण सकुशल अपने घर चला गया। वह शस्त्रधारी पुरुष उस व्याध भीम को राजा के दरबार में ले आया। राजा ने उस व्याध को कारागार में डलवा दिया जहाँ वह व्याध पूरे दिन निराहार रहा, संयोगवश उस दिन शुक्लपक्ष की चतुर्थी तिथि थी। पञ्चमी तिथि को उस व्याध के प्राण-पखेरू उड़ गये। अतः चतुर्थी तिथि को निराहार रहकर व्रत करने के कारण भगवान गणेश ने उस व्याध को ब्रह्मभूत कर दिया। हे राजन्! इसी प्रकार चतुर्थी व्रत के प्रभाव से अनेक मनुष्य स्वानन्दवासी हो गये। चतुर्थी व्रत की महिमा वर्णित करना तो असम्भव प्रतीत होता है।'"
चतुर्थी व्रत के माहात्म्य का वर्णन कर वशिष्ठ मुनि ने राजा दशरथ से कहा - "हे राजन्! चतुर्थी व्रत का अद्भुत माहात्म्य मैंने तुम्हारे समक्ष वर्णित किया है। आश्विन मास के शुक्लपक्ष की चतुर्थी तिथि पर किया जाने वाला यह व्रत फल-प्रदायक एवं सर्व-सिद्धिदायक है। इस व्रत के माहात्म्य का पाठ एवं श्रवण करने से मनुष्य समस्त प्रकार के लौकिक सुखों को भोगकर अन्त समय में मोक्ष को प्राप्त होता है। हे राजन्! वह मनुष्य अकेला नहीं अपितु अपने मित्रों, प्रियजनों तथा पुत्र-पौत्रादि सहित भोग एवं मोक्ष का अधिकारी होता है।"
॥इस प्रकार श्रीमुद्गलपुराण में वर्णित आश्विन शुक्ल चतुर्थी माहात्म्य सम्पूर्ण होता है॥