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Devarshi Narada | Narada Avatara | Narada Muni

DeepakDeepak

Devarshi Narada

Devarshi Narada

हिन्दु धर्म में भगवान विष्णु का अत्यन्त महत्त्वपूर्ण स्थान है। भगवान विष्णु त्रिदेवों अर्थात् ब्रह्मा, विष्णु, महेश में से तो एक हैं ही, साथ ही उन्हें पञ्चदेव उपासना के अन्तर्गत भी पूजा जाता है। हिन्दु धर्म में पञ्चदेव उपासना का विशेष महत्त्व है। पञ्चदेव उपासना में भगवान गणेश, भगवान शिव, भगवान विष्णु, माता दुर्गा तथा भगवान सूर्य नारायण की पूजा-अर्चना की जाती है। भगवान विष्णु विभिन्न कारणों एवं विशेष उद्देश्यों की पूर्ति हेतु नाना प्रकार के अवतार धारण करते रहते हैं। श्रीमद्भागवतमहापुराण के अनुसार, सात्वत तन्त्र का उपदेश करने हेतु भगवान विष्णु ही देवर्षि नारद के रूप में प्रकट हुये थे। सात्वत तन्त्र को नारद पाञ्चरात्र के रूप में जाना जाता है। नारद पाञ्चरात्र में देवर्षि नारद ने कर्मों द्वारा ही कर्म बन्धनों से मुक्त होने का मार्ग प्रशस्त किया है।

Narada Muni
देवर्षि नारद

श्रीमद्भगवद्गीता के दशम अध्याय के 26वें श्लोक में भी स्वयं भगवान श्रीकृष्ण ने स्पष्ट किया है - "देवर्षीणां च नारदः।", अर्थात् "देवर्षियों में मैं नारद हूँ।" हिन्दु पूर्णिमान्त चन्द्र कैलेण्डर के अनुसार ज्येष्ठ माह की कृष्ण पक्ष प्रतिपदा को देवर्षि नारद का प्रादुर्भाव हुआ था। सनातन धर्म के अनुयायियों द्वारा यह दिन नारद जयन्ती के रूप में मनाया जाता है।

देवर्षि नारद उत्पत्ति

देवर्षि नारद का जन्म विभिन्न अवसरों पर भिन्न-भिन्न रूपों में हुआ है। धर्म ग्रन्थों में प्राप्त वर्णन के अनुसार, देवर्षि नारद का जन्म सात बार पृथक-पृथक रूपों एवं कालों में हुआ है। श्रीमद्भागवतमहापुराण के अनुसार, भगवान विष्णु अपने तृतीय अवतार में देवर्षि नारद के रूप में अवतरित हुये थे।

श्रीमद्भागवत के अनुसार, सर्वप्रथम नारद मुनि का प्राकट्य भगवान ब्रह्मा जी की गोद से हुआ था, जिसके कारण वे समस्त लोकों में ब्रह्मा जी के मानस पुत्र के रूप में प्रतिष्ठित हुये। ब्रह्मवैवर्तपुराण में नारद मुनि का प्रादुर्भाव ब्रह्मा जी के कण्ठ से होने का वर्णन प्राप्त होता है।

ब्रह्मा जी ने नारद मुनि को सृष्टि रचना के कार्य में सहयोग प्रदान करने की आज्ञा दी, किन्तु नारद मुनि ने श्री हरि नारायण की भक्ति के मार्ग का चयन करने की इच्छा प्रकट करते हुये उनकी आज्ञा अस्वीकार कर दी। जिसके कारण कुपित होकर ब्रह्मा जी ने देवर्षि नारद को गन्धर्व योनि में जाने का श्राप दे दिया। ब्रह्मा जी के श्राप के कारण देवर्षि नारद के ज्ञान का लोप हो गया तथा वे गन्धर्व योनि को प्राप्त हुये, जिसमें उनका नाम उपबर्हण था।

कालान्तर में उपबर्हण अपनी युवा अवस्था में कामदेव के समान आकर्षक एवं सुन्दर हो गये। अतः उनके सौन्दर्य का दर्शन करके चित्ररथ नाम के गन्धर्व की पचास गन्धर्व कन्यायों का मन उनपर मोहित हो गया। चित्ररथ ने अपनी सभी पचास कन्याओं का विवाह उपबर्हण से कर दिया। उपबर्हण दीर्घकाल तक अपनी पचास स्त्रियों सहित विलासिता में लीन रहे।

एक समय उपबर्हण इन्द्र की सभा में उपस्थित हुये। उस सभा में भगवान ब्रह्मा भी उपस्थित थे। इन्द्रसभा में रम्भा नाम की एक सुन्दर अप्सरा भी थी। रम्भा के रूप को देखकर उपबर्हण के मन में काम-वासना उत्पन्न हो गयी। वह निरन्तर रम्भा को ही देख रहे थे जिसके कारण उन्होंने ब्रह्मा जी को प्रणाम भी नहीं किया। ब्रह्मा जी को उपबर्हण का व्यवहार अपमानजनक लगा तथा उन्होंने उपबर्हण को भूलोक पर दासीपुत्र के रूप में जन्म लेने का श्राप दे दिया।

पूर्व में ब्रह्मा जी से प्राप्त श्राप के कारण उपबर्हण में काम वासना की अधिकता तो थी, किन्तु भगवान नारायण की भक्ति के कारण उन्हें अपने पूर्वजन्मों की भी पूर्ण स्मृति थी। अतः उपबर्हण ने योगबल के द्वारा अपने प्राणों का त्याग कर दिया, जिसके पश्चात् पृथ्वीलोक पर एक दासी पुत्र के रूप में उनका जन्म हुआ।

दासीपुत्र के रूप में जन्म लेने से पूर्व ही उनके पिता का देहान्त हो गया तथा जन्म लेने के उपरान्त बाल्यकाल में ही उनकी माता का भी परलोक गमन हो गया। इस जन्म में भी उन्हें पूर्वजन्म की सम्पूर्ण घटनाओं का स्मरण था। दासीपुत्र के रूप में नारद मुनि भिक्षाटन करके अपना जीवन-यापन करने लगे।

कुछ समय पश्चात् उनके ग्राम में कुछ महात्माओं का आगमन हुआ। वे सन्त-महात्मा चातुर्मास्य व्यतीत करने के उद्देश्य से उस ग्राम में आये थे। पूर्व में की गयी श्री हरि की भक्ति के प्रभाव से नारद जी बालकाल्य से ही अत्यन्त धार्मिक प्रवृत्ति के थे। वे निरन्तर उन साधुओं के समीप ही सत्संग करते रहते थे। वे बहुत ध्यानपूर्वक सन्तों की गतिविधियों का अवलोकन करते थे तथा क्षमतानुसार उनकी सेवा में तत्पर रहते थे। जिस समय सन्त श्रीमद्भागवत कथा का पारायण करते थे, नारद जी भावपूर्वक उसका श्रवण करते थे। साधु-सन्तों के भोजन कर लेने के पश्चात् नारद जी उनके द्वारा छोड़ी हुयी शीत प्रसादी का सेवन करते थे।

साधुसेवा के प्रभाव से नारद जी के पापों का शमन हो गया तथा उनके हृदय में भक्ति का बीज प्रस्फुटित होने लगा। उस ग्राम से प्रस्थान करते समय सन्त-महात्माओं ने नारद जी की सेवा से प्रसन्न होकर, उन्हें भगवन्नाम के जाप एवं भगवत्स्मरण का उपदेश दिया। सन्तों के आदेशानुसार सघन वन के मध्य नारद जी आसीन होकर भगवान के चरणों में मन को एकाग्रचित करके ध्यान करने लगे।

एक दिन श्री भगवान ने नारद जी के हृदय में प्रकट होकर अल्पकाल के लिये उन्हें अपने दिव्य स्वरूप का दर्शन दिया तथा तत्काल ही अन्तर्धान हो गये। भगवान की इस लीला के कारण उनके हृदय में पुनः भगवद्दर्शन की लालसा उठी तथा वे व्याकुल हृदय से अपने आराध्य श्री हरि नारायण का ध्यान करने लगे। किन्तु प्रभु की लीला के कारण अनेकों प्रयासों के पश्चात् भी नारद जी भगवान का ध्यान नहीं कर पा रहे थे।

प्रभु प्राप्ति हेतु नारद जी की व्याकुलता को देखते हुये, एक आकाशावाणी हुयी - "हे नारद! इस जन्म में पुनः तुम्हें मेरा दर्शन नहीं होगा। अतः आगामी जन्म में तुम मेरे पार्षद के रूप में मुझे प्राप्त करोगे।"

उचित समय आने पर नारद जी का दासी पुत्र रूपी देह का भी अन्त हो गया तथा उनके प्राण भगवान ब्रह्मा में विलीन हो गये। तदुपरान्त एक कल्प तक नारद जी ब्रह्मा जी में ही विलीन रहे तथा कल्पान्त के पश्चात् पुनः ब्रह्मा जी के मानस पुत्र के रूप में उनकी गोद से अवतरित हुये। इस जन्म में भी वे नारद के नाम से समस्त लोकों में विख्यात हुये तथा अपनी अनन्य भक्ति एवं तपोबल से ब्रह्मर्षि की स्थिति प्राप्त की।

इस प्रकार भगवान ब्रह्मा जी के श्राप के परिणामस्वरूप नारद जी का विभिन्न-विभिन्न रूपों में जन्म हुआ था, किन्तु अनन्य हरि भक्ति एवं तपोबल के प्रभाव से अन्ततः उन्हें देवर्षि एवं ब्रह्मर्षि आदि दिव्य उपाधियाँ प्राप्त हुयीं।

देवर्षि नारद कुटुम्ब वर्णन

नारद जी भगवान ब्रह्मा के मानस पुत्र हैं। अत्रि, अंगिरस, पुलस्त्य, मरीचि, पुलह, क्रतु, भृगु, वशिष्ठ, तथा दक्ष नारद जी के भ्राता हैं।

देवर्षि नारद स्वरूप वर्णन

श्री नारद मुनि को एक हाथ में वीणा तथा दूसरे हाथ में खड़ताल लिये हुये साधुवेश में दर्शाया जाता है। वे सदैव प्रसन्नचित्त मुद्रा में नारायण-नारायण का कीर्तन करते रहते हैं। नारद जी गौर वर्ण वाले हैं तथा अपनी देह पर समस्त वैष्णव चिह्न धारण करते हैं।

देवर्षि नारद मन्त्र

श्री नारद स्तुति -

भवजलनिधिमग्नं जीवजातं निरीक्ष्य
परमकरुणमूर्तिः श्रीमुकुन्दो महीयान्।
कृत मुनिवर मूर्तिः पञ्चरात्रं वित्तन्वन्
स जयति गुरुवर्य्यो नारदो नारदाता॥1॥

देवर्षि नारद से सम्बन्धित त्यौहार

देवर्षि नारद के प्रमुख एवं प्रसिद्ध मन्दिर

  • देवर्षि नारद धाम, गुन्नौर, उत्तर प्रदेश
  • श्री नारद कुण्ड, गोवर्धन, उत्तर प्रदेश
  • श्री नारद कुण्ड, बद्रीनाथ, उत्तराखण्ड
  • प्राचीन देवर्षि नारद मन्दिर, नारखी, फिरोजाबाद, उत्तर प्रदेश
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