भगवान विष्णु सृष्टि के कल्याण एवं रक्षा के उद्देश्य से समय-समय पर विभिन्न दिव्य स्वरूपों में अवतरित होते रहते हैं। श्रीमद्भागवतमहापुराण में भगवान विष्णु के 24 प्रमुख अवतारों का वर्णन प्राप्त होता है। धर्मग्रन्थों में प्राप्त वर्णन के अनुसार भगवान विष्णु के 24 अवतारों में चतुर्थ नर-नारायण अवतार है। नर एवं नारायण दो भ्राता हैं तथा दोनों ही भगवान विष्णु के रूप हैं। भगवान विष्णु धर्म के प्रचार-प्रसार हेतु नर एवं नारायण के रूप में प्रकट हुये।
शिवपुराण में वर्णित कथा के अनुसार नर-नारायण की सहस्र वर्षों की कठिन तपस्या से प्रसन्न होकर भगवान शिव ने उन्हें दर्शन दिया तथा वरदान माँगने को कहा। नर-नारायण ने भगवान शिव से समस्त प्राणियों के कल्याण की कामना से निवेदन किया कि वे उसी स्थान पर उनके द्वारा निर्मित पार्थिव शिवलिङ्ग में विराजमान हो जायें। नर-नारायण के अनुरोध पर भगवान शिव ने उनकी विनती स्वीकार कर ली और वे केदारेश्वर ज्योतिर्लिंग के रूप में सदा के लिये वहीं विराजमान हो गये।
पौराणिक कथा के अनुसार प्राचीनकाल में दम्बोद्भव नामक एक असुर था। दम्बोद्भव ने भगवान सूर्य को प्रसन्न करने हेतु घोर तपस्या करने का निश्चय किया। अन्ततः उसकी तपस्या से भगवान सूर्य प्रसन्न हुये एवं उस असुर के समक्ष प्रकट होकर उससे वरदान माँगने को कहा। दम्बोद्भव ने भगवान सूर्य से अमरत्व का वरदान माँगा। सूर्यदेव ने उससे कहा कि इस संसार में जिसने भी जन्म लिया है, उसकी मृत्यु भी निश्चित है, इसीलिये वे उसे अमरता का वरदान नहीं दे सकते। अतः वह कोई अन्य वरदान माँग ले। भगवान सूर्य के वचन सुनने के पश्चात् वह दुष्ट राक्षस कुछ क्षण के लिये निराश हुआ किन्तु सहसा ही उसके मन में एक कुटिल विचार आया और उसने सूर्यदेव से कहा कि - "हे प्रभो! आप मुझे एक सहस्र कवच प्रदान करें, वे कवच इतने शक्तिशाली हों कि उनमें से प्रत्येक कवच को केवल वही भेद पाये जिसने एक सहस्र वर्ष की तपस्या की हो तथा एक कवच को भेदने के उपरान्त कवच भेदने वाले की मृत्यु हो जाये।"
दम्बोद्भव ने मन ही मन विचार किया कि उसके शत्रु को उसके एक कवच को भेदने के लिये एक सहस्र वर्ष का तप करना होगा और यदि उसने कवच भेद भी दिया तो उसकी मृत्यु हो जायेगी, इस प्रकार वह अमर हो जायेगा। भगवान सूर्य भी उसके इस वरदान को सुनकर थोड़े चिन्तित हुये किन्तु उन्होनें उसे वरदान माँगने का वचन दिया था। अतः उन्होंने तथास्तु कहते हुये यह वरदान दम्बोद्भव को दे दिया। सूर्यदेव से वरदान प्राप्त होते ही दम्बोद्भव मदमस्त गजराज की भाँति चारों दिशाओं में उत्पात मचाने लगा। वह समस्त प्राणियों को प्रताड़ित करने लगा। तीनों लोकों में दम्बोद्भव के त्रास से हाहाकार होने लगा। दम्बोद्भव अब सहस्रकवच के नाम से समस्त संसार में कुख्यात हो चुका था।
भगवान ब्रह्मा के एक मानस पुत्र थे जिनका नाम धर्म था। धर्म की पत्नी का नाम रुचि था। रुचि ने दम्बोद्भव के अत्याचार को देखकर भगवान विष्णु से प्रार्थना करते हुये कहा कि - हे प्रभो! कृपया आप मेरे पुत्र के रूप में जन्म लें तथा दम्बोद्भव नामक इस आततायी का अन्त करें। भगवान विष्णु ने उनकी प्रार्थना स्वीकार करते हुये वचन दिया कि - "मैं इस दुष्ट का अन्त करने हेतु आपके पुत्र के रूप में अवश्य ही अवतरित होऊँगा।"
कुछ समय पश्चात् रुचि के गर्भ से ही भगवान विष्णु नर एवं नारायण नाम के दो यमज अर्थात् जुड़वाँ पुत्रों के रूप में प्रकट हुये। जन्म से ही नर एवं नारायण का मन जप, तप आदि कर्मों के प्रति आकर्षित था। क्योंकि उनका उद्देश्य ही भूलोक पर धर्म की स्थापना करना था, अतः वे दोनों भ्राता अपनी माता श्री से आज्ञा लेकर उत्तराखण्ड में अवस्थित बदरीवन एवं केदारवन नामक स्थलों पर जाकर तपस्या में लीन हो गये। वर्तमान में उसी बदरीवन में श्री बद्रिका आश्रम स्थित है। बद्रीनाथ धाम अलकनन्दा नदी के तट पर स्थित है। इस स्थान पर दो पर्वत स्थित हैं, जिन्हें नर-नारायण के नाम से जाना जाता है।
कहते हैं कि, "विनाशकाले विपरीतबुद्धिः" इसी प्रकार दम्बोद्भव का काल भी उसे बद्रीनाथ की ओर ले गया, जिस स्थान पर नर-नारायण सहस्रों वर्षों से तपस्या में लीन थे। अपने बल के अभिमान में चूर वह अधर्मी दैत्य वन में चला जा रहा था। अकस्मात ही उसने वहाँ ऋषिवेष धारी नर-नारायण को तपस्या में लीन देखा। वह पापी दैत्य नर-नारायण की तपस्या भंग करने की चेष्टा करने लगा तथा उन्हें युद्ध के लिये ललकारने लगा। उसके दुस्साहस से भगवान नर के नेत्र खुल गये किन्तु भगवान नारायण अभी भी तपस्या में लीन थे। नर ने दम्बोद्भव को देखा तथा उसे धर्म के पथ पर चलने की शिक्षा देने लगे किन्तु वह असुर युद्ध को तत्पर था। अन्ततः भगवान नर ने एक तिनके को मन्त्र द्वारा अभिमन्त्रित कर शस्त्र में परिवर्तित कर लिया तथा वे उस राक्षस से युद्ध करने लगे।
नर के तपोबल के कारण दम्बोद्भव के सहस्र कवचों में से एक कवच खण्डित हो गया, किन्तु भगवान सूर्य के वरदान के प्रभाव से कवच भंग होते ही नर की मृत्यु हो गयी। उसी समय नारायण ने सहस्र वर्षों की तपस्या पूर्ण कर ली जिसके फलस्वरूप उन्हें मृत-सञ्जीवनी विद्या प्राप्त हो चुकी थी जिसके द्वारा उन्होनें नर को पुनर्जीवित कर दिया। जीवित होते ही नर तत्काल तपस्या में लीन हो गये तथा नारायण दम्भोद्भव से युद्ध करने लगे। नारायण ने सहस्र वर्षों की तपस्या की थी अतः उन्होंने उसका एक कवच तोड़ दिया जिसके पश्चात् वरदान के कारण नारायण की मृत्यु हो गयी। किन्तु तब तक नर एक सहस्र वर्षों की तपस्या सम्पन्न कर चुके थे तथा उन्होंने भी मृत-सञ्जीवनी विद्या के द्वारा नारायण को पुनर्जीवित कर दिया जो जीवित होते ही तपस्या में लीन हो गये।
इस प्रकार अनेक सहस्र वर्षों तक निरन्तर युद्ध चलता रहा तथा एक-एक करके दम्बोद्भव के 999 कवच भंग हो गये एवं मात्र एक कवच शेष रह गया। जब उस पापात्मा दैत्य को यह प्रतीत होने लगा कि अब उसका अन्त निकट है तो वह रणभूमि से भाग खड़ा हुआ तथा भयभीत होकर सूर्यलोक में छुप गया। नारायण उसका पीछा करते हुये सूर्यलोक पहुँचे तथा उन्होंने सूर्यदेव से दम्बोद्भव को सौंपने का आग्रह किया। भगवान सूर्य ने शरण में आये अपने भक्त को सौंपने से मना कर दिया, जिससे क्रोधित होकर भगवान नारायण ने अपने कमण्डलु से जल लेकर भगवान सूर्य को श्राप दे दिया कि - "आपने इस राक्षस की उसके कर्मों का दण्ड भोगने से रक्षा की है, अतः आप भी इसके साथ जन्म लेकर इसके कर्मों का दण्ड भोगेंगे।"
कालान्तर में उसी दम्बोद्भव एवं भगवान सूर्य दोनों के अंश का जन्म कुन्ती पुत्र कर्ण के रूप में हुआ। भगवान सूर्य का अंश होने के कारण वह तेजस्वी एवं महादानी था, किन्तु राक्षस का अंश होने के प्रभाव से अहङ्कारी एवं दुष्ट भी था। तदनन्तर नर एवं नारायण का अवतार क्रमशः अर्जुन एवं भगवान कृष्ण के रूप में हुआ जो भविष्य में कर्ण की मृत्यु का कारण हुये। इस प्रकार भगवान विष्णु दम्बोद्भव नामक दैत्य का अन्त करने एवं धर्म की स्थापना हेतु नर-नारायण के रूप में अवतरित हुये थे।
भगवान नर एवं नारायण के पिता धर्म एवं माता रुचि हैं। उनके पितामह ब्रह्मा जी हैं। नर-नारायण दोनों ने आजीवन ब्रह्मचर्य का पालन किया था, अतः उनकी कोई धर्मपत्नियाँ नहीं हैं।
भगवान नर-नारायण को मस्तक पर जटा, हाथों में हंस, चरणों में चक्र तथा वक्षस्थल में श्रीवत्स का चिह्न धारण किये हुये दर्शाया जाता है। भगवान नर-नारायण तपस्वियों के समान वेषभूषा धारण किये रहते हैं।
मूल मन्त्र -
ॐ नरनारायणाय नमः।