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Lord Parashurama - 6th Incarnation of Lord Vishnu

DeepakDeepak

Lord Parashurama

भगवान परशुराम

भगवान विष्णु के प्रमुख दश अवतारों में से छठवाँ श्री परशुराम अवतार है। परशुराम जी को भगवान विष्णु का आवेशावतार भी कहा जाता है। भगवान परशुराम जी का जन्म ऋषि जमदग्नि एवं माता रेणुका के पुत्र के रूप में हुआ था। श्री परशुराम जी की माता एक चन्द्रवंशी क्षत्रिय कन्या थीं तथा पिता ब्राह्मण थे। अतः परशुराम जी के व्यक्तित्व में ब्राह्मण एवं क्षत्रिय दोनों गुणों का समावेश था। परशुराम जी सप्त चिरञ्जीवियों में से एक हैं। भगवान हनुमान, विभीषण, महर्षि व्यास, कृपाचार्य, अश्वत्थामा, परशुराम तथा राजा बलि ये सप्त चिरञ्जीवी हैं, जो सभी युगों में अमर रहते हैं।

Lord Parashurama
भगवान परशुराम

हिन्दु पञ्चाङ्ग के अनुसार वैशाख शुक्ल पक्ष द्वितीया तिथि को भगवान परशुराम का जन्म हुआ था। यह तिथि सनातन धर्मावलम्बियों द्वारा परशुराम जयन्ती के रूप में मनायी जाती है। श्रीरामचरितमानस, वाल्मीकि रामायण, महाभारत, कल्किपुराण एवं श्रीमद्भागवत सहित अनेक धर्मग्रन्थों में भगवान परशुराम के विषय में वर्णन प्राप्त होता है।

भगवान परशुराम उत्पत्ति

प्राचीन काल में कन्नौज में गाधि नाम के एक राजा शासन करते थे। उनकी एक अत्यन्त रूपवती कन्या थी, जिसका नाम सत्यवती था। उचित समय आने पर राजा गाधि ने सत्यवती का विवाह भृगु ऋषि के पुत्र ऋचीक के साथ कर दिया।

सत्यवती के विवाह के पश्‍चात् वहाँ भृगु ऋषि ने अपनी पुत्रवधू को आशीष प्रदान किया तथा उससे वर माँगने को कहा। सत्यवती ने श्‍वसुर को प्रसन्नमुद्रा में देख उनसे अपनी माता के लिये एक पुत्र रत्न की प्राप्ति का वरदान माँगा। सत्यवती की याचना पर भृगु ऋषि ने उसे दो चरु पात्र, अर्थात् यज्ञ की आहुति हेतु पकाया गया हविष्यान्न प्रदान करते हुये कहा कि जब तुम तथा तुम्हारी माता ऋतु स्नान से निवृत हो जायें, उस समय तुम्हारी माँ पुत्र की कामना से पीपल का आलिंगन करें तथा तुम भी उसी कामना से गूलर के वृक्ष का आलिंगन करना। तदुपरान्त मेरे द्वारा प्रदत्त इन चरुओं का सावधानीपूर्वक पृथक-पृथक सेवन करना।

सन्तान प्राप्ति हेतु चरु प्रदान किया है, तो उसने अपने चरु को अपनी पुत्री के चरु से हस्तान्तरित कर दिया। इस प्रकार सत्यवती ने अपनी माता के लिये निर्धारित चरु का सेवन कर लिया। योगशक्‍ति से भृगु को यह विषय ज्ञात हो गया तथा वे अपनी पुत्रवधू के समक्ष आकर बोले - "हे पुत्री! तुम्हारी माता ने तुमसे छल करके तुम्हारे चरु का सेवन कर लिया है। इसीलिये उसके प्रभाव से तुम्हारी सन्तान ब्राह्मण होते हुये भी क्षत्रिय के समान आचरण करेगी तथा तुम्हारी माता की सन्तान क्षत्रिय होकर भी ब्राह्मण के समान आचरण करेगी।"

महर्षि भृगु के वचनों को सुनकर सत्यवती ने उनसे प्रार्थना की कि आप मुझे आशीर्वाद प्रदान करें कि मेरा पुत्र ब्राह्मण का ही आचरण करे, भले ही मेरा पौत्र क्षत्रिय के समान आचरण करने वाला हो। भृगु ने प्रसन्न होकर सत्यवती की विनती स्वीकार कर ली। समय आने पर सत्यवती के गर्भ से ऋषि जमदग्नि का जन्म हुआ। जमदग्नि अत्यन्त ओजस्वी थे। युवा होने पर उनका विवाह प्रसेनजित की कन्या रेणुका से कर दिया गया। रेणुका के गर्भ से पाँच पुत्रों का जन्म हुआ, जो क्रमशः रुक्मवान, सुखेण, वसु, विश्‍वानस एवं परशुराम के नाम से विख्यात हुये।

इस प्रकार भगवान परशुराम का जन्म हुआ। महाभारत एवं विष्णुपुराण में प्राप्त वर्णन के अनुसार पितामह भृगु द्वारा नामकरण संस्कार के अन्तर्गत परशुराम जी का मूल नाम राम निर्धारित किया गया था, किन्तु भगवान शिव द्वारा विद्युदभि नामक परशु अस्त्र प्राप्त करने के उपरान्त वे परशुराम के रूप में विख्यात हो गये। ऋषि जमदग्नि के पुत्र होने के कारण परशुराम जी जामदग्न्य के नाम से भी लोकप्रिय हुये। परशुराम जी ने अपनी आरम्भिक शिक्षा महर्षि विश्वामित्र एवं ऋचीक ऋषि के आश्रम में ग्रहण की थी। परशुराम जी ने महर्षि ऋचीक से शार्ङ्ग नामक दिव्य वैष्णव धनुष एवं ब्रह्मर्षि कश्यप से विधिवत अविनाशी वैष्णव मन्त्र प्राप्त किया था।

भगवान शिव ने परशुराम जी को भगवान श्रीकृष्ण का त्रैलोक्य विजय कवच, स्तवराज स्तोत्र एवं मन्त्र कल्पतरु प्रदान किया। तदुपरान्त परशुराम जी ने चक्रतीर्थ में निवास कर घोर तपस्या की, जिससे प्रसन्न होकर भगवान विष्णु ने उन्हें त्रेता में रामावतार के समय तेजोहरण के उपरान्त कल्पान्त भूलोक पर चिरञ्जीवी होकर तपस्या करने का वर प्रदान किया। भगवान परशुराम शस्त्रविद्या में निपुण थे एवं शस्त्रविद्या के सर्वोच्च गुरु थे। उन्होंने भीष्म, द्रोण एवं कर्ण आदि को शस्त्रविद्या की शिक्षा प्रदान की थी। कर्ण ने वह ब्राह्मण है इस प्रकार झूठ बोलकर परशुराम जी से शस्त्र विद्या ग्रहण की थी, किन्तु सत्य ज्ञात होने पर भगवान परशुराम ने कर्ण को यह श्राप दे दिया था कि जिस समय उसे इस विद्या की सर्वाधिक आवश्यकता होगी, उसी समय यह विद्या विस्मृत हो जायेगी।

भगवान परशुराम ने एकादश छन्दयुक्त शिव पञ्चचत्वारिंशनाम स्तोत्रम् की रचना की थी। परशुराम जी आजीवन एक पत्नीव्रत नियम का समर्थन करते थे। उन्होंने महर्षि अत्रि की पत्नी अनसूया, अगस्त्य ऋषि की पत्नी लोपामुद्रा तथा अपने प्रिय शिष्य अकृतवण के सहयोग से एक विशाल नारी-जागृति-अभियान का नेतृत्व किया था।

कल्किपुराण में प्राप्त वर्णन के अनुसार जिस समय भगवान विष्णु कल्कि अवतार धारण करके भूलोक पर अवतरित होंगे, उस समय परशुराम जी उनके गुरु के रूप में उन्हे शस्त्रविद्या प्रदान करेंगे।

श्रीमद्भागवत में प्राप्त वर्णन के अनुसार एक समय का‌र्त्तवीर्यअर्जुन ने भगवान दत्तात्रेय के निमित्त घोर तपस्या की। का‌र्त्तवीर्यअर्जुन की तपस्या से प्रसन्न होकर भगवान दत्तात्रेय ने उसे दर्शन दिये तथा इच्छित वर माँगने को कहा। का‌र्त्तवीर्यअर्जुन ने भगवान दत्तात्रेय से एक सहस्र भुजाओं का वर माँगा तथा यह भी निवेदन किया कि युद्ध में उसे कोई पराजित न कर सके। भगवान दत्तात्रेय ने का‌र्त्तवीर्यअर्जुन को सहस्र भुजायें प्रदान कर दीं, जिसके पश्चात् वह सहस्रार्जुन के नाम से विख्यात हुआ।

एक समय दैवयोग से सहस्रार्जुन वन में आखेट करते हुये ऋषि जमदग्नि के आश्रम में पहुँच गया। ऋषि जमदग्नि के समीप देवराज इन्द्र द्वारा प्रदत्त एक कपिला कामधेनु गौ थी, जो मनोवाञ्छित फल प्रदान करती थी। ऋषि जमदग्नि ने कपिला कामधेनु की सहायता से सहस्रार्जुन के समस्त सैन्यदल का अविस्मरणीय आतिथ्य सत्कार किया। उस दिव्य गौ का चमत्कार देखकर सहस्रार्जुन के हृदय में लोभ उत्पन्न हो गया तथा उसने ऋषि जमदग्नि की अवज्ञा करते हुये कामधेनु का बलपूर्वक हरण कर लिया।

ज्यों ही भगवान परशुराम को अपने पिता के अपमान के विषय में ज्ञात हुआ, उन्होंने कामधेनु को पुनः प्राप्त करने हेतु सहस्रार्जुन से युद्ध किया। अन्ततः युद्ध में परशुराम जी ने सहस्रार्जुन की सभी भुजायें काट दी एवं उसका वध कर दिया। सहस्रार्जुन की मृत्यु के उपरान्त उसके पुत्रों ने प्रतिशोध लेने का निश्चय किया तथा जिस समय परशुराम जी उपस्थित नहीं थे, उस समय उनके पिता जमदग्नि को अकेले समाधि में लीन देखकर सहस्रार्जुन के पुत्रों ने उनकी हत्या कर दी। परशुराम जी की माता देवी रेणुका को जिस समय उनके पति की हत्या की सूचना प्राप्त हुयी, उस समय विचलित होकर वे भी चिताग्नि में जमदग्नि जी के साथ सती हो गयीं।

परशुराम जी जब लौटकर आये तो अपने माता-पिता के विषय में ज्ञात होते ही अत्यन्त कुपित हो उठे तथा उन्होंने प्रण किया कि "मैं संसार के समस्त क्षत्रियों का नाश कर दूँगा"। तदुपरान्त भगवान परशुराम जी ने पूर्ण शक्ति से महिष्मती नगरी पर आक्रमण कर, उसे अपने अधीन कर लिया तथा 21 बार सम्पूर्ण पृथ्वी से अहङ्कारी एवं दुरात्मा प्रकृति के क्षत्रियों का नाश कर दिया। भगवान परशुराम ने पञ्चक क्षेत्र के पाँच सरोवरों को हैहय वंशी क्षत्रियों के रुधिर से भर दिया तथा सहस्रार्जुन के पुत्रों के रक्त से अपने पिता का श्राद्ध किया। परशुराम जी का क्रोध शान्त न होते देख अन्ततः महर्षि ऋचीक ने उन्हें दर्शन दिये तथा उनकी विनाशलीला को रोका।

तत्पश्चात् भगवान परशुराम जी ने अश्वमेध महायज्ञ किया तथा सप्तद्वीप युक्त पृथ्वी को महर्षि कश्यप को दान में दे दिया। अन्त में परशुराम जी ने देवराज इन्द्र के समक्ष अपने शस्त्रों का त्याग कर दिया तथा महेन्द्र पर्वत पर आश्रम स्थापित करके निवास करने लगे। धर्मग्रन्थों के अनुसार श्री परशुराम जी अजर-अमर हैं तथा वर्तमान में भी भूलोक पर तपस्या में लीन हैं।

ब्रह्मवैवर्तपुराण में भी भगवान परशुराम से सम्बन्धित एक कथा का वर्णन प्राप्त होता है। कथानुसार एक समय भगवान परशुराम कैलास पर्वत पर भगवान शिव से भेंट करने हेतु पहुँचे। किन्तु भगवान शिव के अन्त:पुर के प्रवेश द्वार पर भगवान गणेश ने रोक लिया। भगवान गणेश जी को नाना प्रकार से समझाने पर भी उन्होंने ने परशुराम जी को प्रवेश की अनुमति नहीं दी, जिसके कारण कुपित होकर परशुराम जी ने बलपूर्वक प्रवेश करने का प्रयास किया। परशुराम जी द्वारा बलप्रयोग होने पर भगवान गणेश ने उन्हें स्तम्भित कर दिया तथा अपनी सूँड में बन्धक बनाकर समस्त लोकों में भ्रमण कराते हुये तथा गोलोक में भगवान श्रीकृष्ण का दर्शन कराते हुये परशुराम जी को भूलोक में लाकर मुक्त कर दिया। जिस समय परशुराम जी की चेतना पुनः लौटी, वे अत्यन्त क्रोधित हो उठे तथा उन्होंने अपने परशु के प्रहार से गणेश जी का एक दाँत तोड़ दिया, जिसके कारण वे तीनों लोकों में एकदन्त के नाम से प्रतिष्ठित हुये।

भगवान परशुराम कुटुम्ब वर्णन

भगवान परशुराम के पिता ऋषि जमदग्नि तथा माता रेणुका थीं। परशुराम जी की माता रेणुका एक चन्द्रवंशी क्षत्रिय कुल से थीं। महर्षि ऋचीक भगवान परशुराम के पितामह थे। परशुराम जी के चार भ्राता थे जो रुक्मवान, सुखेण, वसु तथा विश्‍वानस नाम से समस्त लोकों में विख्यात हुये। परशुराम जी नैष्ठिक अर्थात् आजीवन ब्रह्मचारी हैं। अतः उनकी कोई अर्धांगिनी नहीं हैं।

भगवान परशुराम स्वरूप वर्णन

भगवान परशुराम के सर्वाधिक प्रचलित रूप में उन्हें एक तपस्वी के वेष में एक हाथ में धनुष तथा दूसरे हाथ में परशु, अर्थत् फरसा धारण किये दर्शाया जाता है। भगवान परशुराम जी को चतुर्भुज रूप में भी चित्रित किया जाता है। वे अपनी चार भुजाओं में चक्र, धनुष, परशु तथा दण्ड धारण करते हैं। उनकी पीठ पर तीरों से युक्त तरकश भी शोभायमान रहता है।

भगवान परशुराम मन्त्र

सामान्य मन्त्र -

ॐ रां रां ॐ रां रां परशुहस्ताय नमः।

प्रणाम मन्त्र -

ॐ नमः परशुहस्ताय नमः कोदण्डधारिणे।
नमस्ते रुद्ररूपाय विष्णवे वेदमूर्तये॥

परशुराम गायत्री मन्त्र -

ॐ जामदग्न्याय विद्महे महावीराय धीमहि।
तन्नो परशुराम प्रचोदयात्॥

भगवान परशुराम से सम्बन्धित त्यौहार

भगवान परशुराम के प्रमुख एवं प्रसिद्ध मन्दिर

  • परशुराम महादेव मन्दिर, राजसमन्द एवं पाली, राजस्थान
  • परशुराम मन्दिर, निरमन्ड, हिमाचल प्रदेश
  • भगवान परशुराम तपःस्थली, बाबा टांगीनाथ धाम, झारखण्ड
  • परशुराम मन्दिर, चिपलून, रत्नागिरी, महाराष्ट्र
  • श्री परशुराम स्वामी मन्दिर, थिरुवल्लम, केरल
  • पौराणिक परशुराम मन्दिर, उत्तरकाशी, उत्तराखण्ड
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