एकादशियों का श्रवण करते हुये अर्जुन ने भगवान श्रीकृष्ण से कहा - "हे प्रभो! अब आप लौंद अर्थात् अधिक मास की शुक्ल पक्ष की एकादशी के सम्बन्ध में बतायें, इस एकादशी का नाम क्या है तथा इसके व्रत का क्या विधान है? इसमें किस देवता का पूजन किया जाता है और इसके व्रत से किस फल की प्राप्ति होती है? कृपा कर विस्तारपूर्वक वर्णन करें।"
भगवान श्रीकृष्ण ने कहा - "हे अर्जुन! अधिक (लौंद) मास की एकादशी अत्यधिक पुण्य प्रदान करने वाली है, इसका नाम पद्मिनी है। इस एकादशी के व्रत से मनुष्य विष्णुलोक को जाता है। इस एकादशी के व्रत का विधान मैंने सर्वप्रथम नारद जी से कहा था। यह विधान अनेक पापों को नष्ट करने वाला तथा मुक्ति एवं भक्ति प्रदान करने वाला है। इसके फल व विधान का ध्यानपूर्वक श्रवण करो -
दशमी वाले दिन व्रत को प्रारम्भ करना चाहिये। इस दिन काँसे के पात्र का किसी भी रूप में प्रयोग नहीं करना चाहिये तथा माँस, मसूर, चना, कोदों, शहद, शाक तथा पराया अन्न इन सभी खाद्यों का त्याग कर देना चाहिये। इस दिन हविष्य भोजन करना चाहिये तथा नमक नहीं ग्रहण करना चाहिये। दशमी की रात्रि को भूमि पर शयन करना चाहिये और ब्रह्मचर्य का पालन करना चाहिये। एकादशी के दिन प्रातः नित्य क्रिया से निवृत्त होकर दातुन करनी चाहिये तथा बारह बार कुल्ला करके पुण्य क्षेत्र में जाकर स्नान करना चाहिये। उस समय गोबर, मृत्तिका, तिल, कुश, आमलकी चूर्ण से विधिपूर्वक स्नान करना चाहिये। स्नान करने से पूर्व शरीर पर मिट्टी लगाते हुये उसी से प्रार्थना करनी चाहिये - "हे मृत्तिके! मैं तुमको प्रणाम करता हूँ। तुम्हारे स्पर्श से मेरा शरीर पवित्र हो। सभी ओषधियों से पैदा हुयी तथा पृथ्वी को पवित्र करने वाली, तुम मुझे शुद्ध करो। ब्रह्मा के थूक से पैदा होने वाली! तुम मेरे शरीर को स्पर्श कर मुझे पवित्र करो। हे शङ्ख-चक्र गदाधारी देवों के देव! पुण्डरीकाक्ष! आप मुझे स्नान के लिये आज्ञा दीजिये।"
तदुपरान्त वरुण मन्त्र को जपकर पवित्र तीर्थों के अभाव में उनका स्मरण करते हुये किसी तालाब में स्नान करना चाहिये। स्नान करने के उपरान्त स्वच्छ एवं सुन्दर वस्त्र धारण करके तथा सन्ध्या, तर्पण करके मन्दिर में जाकर प्रभु का पूजन करना चाहिये। देवी राधा सहित कृष्ण भगवान की तथा देवी पार्वती सहित महादेव जी की स्वर्ण निर्मित मूर्ति का पूजन करें। धान्य के ऊपर मिट्टी या ताम्बे का कुम्भ स्थापित करना चाहिये। इस कुम्भ को वस्त्र तथा गन्ध आदि से अलङ्कृत करके, उसके मुख पर ताम्बे, रजत अथवा स्वर्ण का पात्र स्थापित करना चाहिये। इस पात्र पर भगवान श्रीहरि की मूर्ति स्थापित करके धूप, दीप, नैवेद्य, पुष्प, केसर आदि से उनका पूजन करना चाहिये। तत्पश्चात् भगवान के सम्मुख नृत्य व गायन आदि करना चाहिये। उस दिन पतित तथा रजस्वला स्त्री को स्पर्श नहीं करना चाहिये। भक्तजनों के साथ प्रभु के सामने पौराणिक कथा श्रवण करनी चाहिये। अधिक (लौंद) मास की शुक्ल पक्ष की पद्मिनी एकादशी का व्रत निर्जल रहकर करना चाहिये। यदि मनुष्य में निराहार रहने की शक्ति न हो तो उसे जलपान या अल्पाहार से व्रत करना चाहिये। रात्रि में जागरण करके नृत्य तथा गायन करके प्रभु का स्मरण करते रहना चाहिये। प्रति पहर मनुष्य को भगवान श्रीहरि अथवा शङ्करजी का पूजन करना चाहिये। प्रथम पहर में भगवान को नारियल, द्वितीय पहर में बिल्वफल, तृतीय पहर में सीताफल तथा चतुर्थ पहर में सुपारी एवं नारंगी अर्पण करनी चाहिये। ऐसा करने से प्रथम पहर में अग्नि होम का, द्वितीय में वाजपेय यज्ञ का, तृतीय में अश्वमेध यज्ञ का तथा चतुर्थ में राजसूय यज्ञ का फल प्राप्त होता है। इस व्रत से बढ़कर संसार में कोई यज्ञ, तप, दान या पुण्य नहीं है। एकादशी का व्रत करने वाले मनुष्य को सभी तीर्थों एवं यज्ञों का फल प्राप्त हो जाता है।
इस प्रकार से सूर्योदय तक जागरण करना चाहिये तथा स्नान करके ब्राह्मणों को भोजन कराना चाहिये। सभी पदार्थ भगवान की मूर्ति सहित ब्राह्मणों को देने चाहिये। इस प्रकार जो मनुष्य विधानपूर्वक प्रभु का पूजन तथा व्रत करते हैं, उनका जन्म सफल हो जाता है तथा वे इहलोक में अनेक सुखों को भोगकर अन्त में विष्णुलोक को जाते हैं।
हे अर्जुन! मैंने तुम्हें एकादशी व्रत का पूर्ण विधान बता दिया। अब जो पद्मिनी एकादशी का भक्तिपूर्वक व्रत कर चुके हैं, उनकी कथा को कहता हूँ, ध्यानपूर्वक श्रवण करो। यह सुन्दर कथा महर्षि पुलस्त्य ने नारदजी से कही थी - एक समय कार्तवीर्य ने रावण को अपने बन्दीगृह में बन्दी बना लिया। उसे महर्षि पुलस्त्य ने कार्तवीर्य से विनय करके छुड़ाया। इस घटना को सुनकर नारदजी ने महर्षि पुलस्त्य से पूछा - "हे महर्षि! इस मायावी रावण को, जिसने सभी देवताओं सहित इन्द्र को जीत लिया था, कार्तवीर्य ने उसे किस प्रकार जीता? कृपा कर मुझे विस्तारपूर्वक बतायें।"
महर्षि पुलस्त्य ने कहा - "हे नारद! आप पहले कार्तवीर्य की उत्पत्ति की कथा श्रवण करो - त्रेतायुग में महिष्मती नामक नगरी में कार्तवीर्य नाम का एक राजा राज्य करता था। उस राजा की सौ स्त्रियाँ थीं, उनमें से किसी के भी राज्य का भार सम्भालने वाला योग्य पुत्र नहीं था। तब राजा ने सम्मानपूर्वक ब्राह्मणों को अमन्त्रित किया तथा पुत्र प्राप्ति हेतु यज्ञ करवाये, किन्तु सब व्यर्थ रहे। जिस प्रकार दुखी मनुष्य को भोग नीरस प्रतीत होते हैं, उसी प्रकार राजा को भी अपना राज्य पुत्र बिना दुखमय प्रतीत होता था। अन्त में वह तप के द्वारा ही सिद्धियों को प्राप्त जानकर तपस्या करने के लिये वन को चला गया। उसकी स्त्री, जो राजा हरिश्चन्द्र की पुत्री प्रमदा थी, वस्त्रालङ्कारों को त्यागकर अपने पति के साथ गन्धमादन पर्वत पर चली गयी। उस स्थान पर इन लोगों ने दस हजार वर्ष तक तप किया, किन्तु सिद्धि प्राप्त न हो सकी। राजा की देह मात्र अस्थियों का ढाँचा मात्र ही रह गयी। यह देख प्रमदा ने श्रद्धापूर्वक महासती अनसूया से प्रश्न किया - "मेरे स्वामी को तप करते हुये दस हजार वर्ष व्यतीत हो गये, किन्तु अभी तक प्रभु प्रसन्न नहीं हुये हैं , जिससे मुझे पुत्र प्राप्त हो। इसका क्या कारण है?"
प्रमदा का प्रश्न सुनकर देवी अनसूया ने कहा - "अधिक (लौंद) मास जो कि छत्तीस माह के उपरान्त आता है, उसमें दो एकादशी होती हैं। इसमें शुक्ल पक्ष की एकादशी का नाम पद्मिनी तथा कृष्ण पक्ष की एकादशी का नाम परम है। इनके जागरण एवं व्रत करने से ईश्वर तुम्हें अवश्य ही पुत्र प्रदान करेंगे।"
तत्पश्चात् देवी अनसूया ने व्रत का विधान बताया। रानी प्रमदा ने देवी अनसूया द्वारा वर्णित विधि के अनुसार एकादशी का व्रत एवं रात्रि में जागरण किया। इससे भगवान विष्णु उस पर बहुत प्रसन्न हुये तथा वरदान माँगने को कहा। रानी प्रमदा ने कहा - "प्रभु आप यह वरदान मेरे पति को दीजिये।"
रानी प्रमदा का वचन सुन भगवान विष्णु ने कहा - "हे रानी प्रमदा! मल मास (लौंद) मुझे अत्यन्त प्रिय है। उसमें भी एकादशी तिथि मुझे सर्वाधिक प्रिय है। इस एकादशी का व्रत तथा रात्रि जागरण तुमने विधानपूर्वक किया, इसीलिये मैं तुम पर अति प्रसन्न हूँ।" इतना कहकर भगवान विष्णु ने राजा से कहा - "हे राजन! तुम अपना इच्छित वर माँगो, क्योंकि तुम्हारी स्त्री ने मुझे प्रसन्न किया है।"
भगवान की अमृत वाणी सुन राजा ने कहा - "हे प्रभो! आप मुझे सर्वोत्तम, सभी के द्वारा पूजित तथा आपके अतिरिक्त देव, असुर, मनुष्य आदि से अजेय पुत्र प्रदान करें।"
राजा को इच्छित वर देकर प्रभु अन्तर्धान हो गये। तदुपरान्त दोनों अपने राज्य को वापस आ गये। समय आने पर इन्हीं के पुत्र के रूप में कार्तवीर्य उत्पन्न हुये थे। यह भगवान श्रीहरि के अतिरिक्त सभी से अजेय थे। कार्तवीर्य ने रावण पर विजय प्राप्त कर ली थी। यह सब पद्मिनी एकादशी के व्रत का प्रभाव था। इतना वृत्तान्त सुनाने के उपरान्त महर्षि पुलस्त्य वहाँ से प्रस्थान कर गये।
श्रीकृष्ण ने कहा - "हे कुन्ती पुत्र अर्जुन! यह मैंने अधिक (लौंद) मास के शुक्ल पक्ष की एकादशी का व्रत वर्णित किया है। जो मनुष्य इस व्रत को करता है, वह विष्णुलोक को जाता है।"
सूतजी ने कहा - "हे ऋषिश्रेष्ठों! जो आपने जानना चाहा था, सो मैंने कह दिया। अब आप क्या जानना चाहते हैं? जो मनुष्य इस व्रत कथा को सुनेंगे वे स्वर्गलोक के अधिकारी हो जायेंगे।"
ईश्वर सर्वतः हैं। वे दुष्प्राप्य वस्तुओं को भी देने में समर्थ हैं, परन्तु प्रभु को प्रसन्न करके अपनी इच्छित वस्तु प्राप्त करने का मार्ग मनुष्य को ज्ञात करना चाहिये। पद्मिनी एकादशी प्रभु की प्रिय तिथि है, जप-तप से भी अधिक प्रभावशाली इस व्रत के द्वारा मनुष्य दुष्प्राप्य वस्तुओं को भी प्राप्त कर लेता है।