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Lord Vakratunda - First Form of Lord Ganesha

DeepakDeepak

Lord Vakratunda

भगवान वक्रतुण्ड

भगवान गणेश का यह अवतार देह-ब्रह्म को धारण करने वाला है। मुद्गल पुराण की कथा के अनुसार, देवराज इन्द्र के प्रमाद से एक पराक्रमी असुर मत्सर का जन्म हुआ। दैत्यगुरु शुक्राचार्य से उसने पञ्चाक्षर मन्त्र की दीक्षा ली, जिसके विधिपूर्वक पुरश्चरण से भगवान शिव और माँ पार्वती ने उसे वरदान दिया कि उसे कभी भी किसी से भय नहीं होगा। वर से उन्मत्त हुये मत्सरासुर को शुक्राचार्य ने दैत्यराज बना दिया। इसके पश्चात उसने पृथ्वी और पाताल को जीत लिया। तदोपरान्त, उसने स्वर्ग लोक में भी आक्रमण कर सुरेन्द्र सहित अन्य देवताओं को पराजित कर दिया और स्वर्ग का अधिपति बन बैठा। मत्सरासुर से त्रस्त ब्रह्मा जी और भगवान विष्णु कैलाशपति महादेव जी के पास पहुँचे। महादेव जी मत्सरासुर पर क्रुद्ध हो गये और उन्होंने उसके साथ घनघोर युद्ध किया, किन्तु स्वयं भवानीपति महादेव जी ने ही मत्सरासुर को निर्भयता का वरदान दिया था, जिसके कारण उस दैत्य के सामने से महादेव जी को भी लीलावश हटना पड़ा।

Lord Vakratunda
भगवान वक्रतुण्ड - भगवान गणेश के प्रथम स्वरुप

कैलाश और बैकुण्ठ पर अधिकार करने के पश्चात उसने वहाँ का राज्य अपने पुत्रों को दे दिया और स्वयं मत्सरावास में निवास करने लगा। उसका शासन अत्यन्त क्रूर था। देवताओं को व्यथित देखकर भगवान दत्तात्रेय जी ने वक्रतुण्ड भगवान के एकाक्षरी मन्त्र "गं" का उपदेश देकर अनुष्ठान हेतु प्रेरित किया। सभी देवताओं सहित भगवान पशुपति ने भी विधिवत एकाक्षरी मन्त्र का अनुष्ठान किया। जिससे प्रसन्न होकर भगवान "वक्रतुण्ड" प्रकट हो गये और उन्होंने देवताओं को मत्सरासुर के गर्व को नष्ट करने का आश्वासन दिया।

भगवान वक्रतुण्ड के स्मरण मात्र से गणों की असङ्ख्य सेना एकत्र हो गयी और उन्होंने मत्सरासुर एवं उसकी सेना के साथ भयङ्कर युद्ध किया। पाँच दिनों के युद्ध के उपरान्त भी कोई निर्णय न हो सका। तत्पश्चात भगवान वक्रतुण्ड के दो गणों ने मत्सरासुर के दो पुत्र जिनका नाम, सुन्दरप्रिय और विषयप्रिय था, को मार गिराया। अपने पुत्रों का संहार हो जाने के पश्चात, मत्सरासुर ने युद्ध में अपनी हार मान ली और भगवान वक्रतुण्ड के सामने नतमस्तक हो गया। जिससे प्रभावित हो भगवान वक्रतुण्ड ने उस असुर को अपनी भक्ति दी तथा देवताओं को उसके आतङ्क से मुक्त करके उनका राजपाट वापस दिलवा दिया।

ऐसा माना जाना है कि, प्रलय के उपरान्त सृष्टि निर्माण में बाधा आने के कारण लोकपितामह ब्रह्मा जी ने भी भगवान वक्रतुण्ड के षडाक्षरी मन्त्र "वक्रतुण्डाय हुम्" का जप करते हुये गणेश जी को सन्तुष्ट करने के लिये कठोर तप किया। तप से सन्तुष्ट भगवान वक्रतुण्ड प्रकट हुये और विधाता ब्रह्मा जी को अभीष्ट वर प्रदान किया। तभी वे सृष्टिकार्य में समर्थ हो सके।

सृष्टि निर्माण के समय ब्रह्मा जी के कम्प से "दम्भ" का जन्म हुआ। उसने ब्रह्मा जी की कठोर तपस्या की जिससे प्रसन्न हो ब्रह्मा जी ने उसे सर्वत्र निर्भयता का वरदान दे दिया। दम्भासुर ने दैत्यगुरु शुक्राचार्य की सहायता से तीनों लोकों में शासन कर लिया। तब देवों ने ब्रह्मा जी से दम्भासुर को पराजित करने का उपाय पूछा। लोकपितामह ब्रह्मा जी उन सभी को भगवान वक्रतुण्ड के एकाक्षरी मन्त्र से यजन करने का परामर्श दिया। इससे भगवान वक्रतुण्ड प्रसन्न हुये और उन्होंने देवताओं की रक्षा का वचन दिया। तब भगवान वक्रतुण्ड ने देवराज इन्द्र को दूत बनाकर दम्भासुर के पास भेजा और उसे चेतावनी दी की वह देवताओं को मुक्त कर दे अन्यथा भगवान वक्रतुण्ड उसका समूल नाश कर देंगे।

दैत्यगुरु शुक्राचार्य ने ब्रह्मस्वरूप विघ्नहर्ता गणेश जी के विषय में दम्भासुर को बताया, जिससे वह भयभीत हो गया। वक्रतुण्ड भगवान के दिव्यस्वरूप को जानकर उसके मन में भी श्रद्धाभाव उत्पन्न हुआ। जिसके पश्चात उसने गणेश जी से युद्ध के स्थान पर उनकी शरण में जाने का निर्णय किया। सहज और दयावान भगवान गणेश जी ने उसे क्षमा कर दिया और उसे अपनी भक्ति प्रदान कर त्रिलोक में शान्ति स्थापित की।

Kalash
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