माता पार्वती, भगवान गणेश जी के श्री मुख से वर्ष पर्यन्त आने वाली सभी चतुर्थी तिथियों की कथा एवं माहत्म्य का श्रवण कर रही थीं। माता पार्वती ने गणेश जी से कहा - "हे गजानन, पूर्णिमान्त हिन्दु पञ्चाङ्ग के अनुसार चैत्र माह की कृष्ण पक्ष चतुर्थी (अमान्त फाल्गुन माह) को तुम्हारे किस स्वरुप की पूजा की जाती है? तथा उसका विधान क्या है?"
माता पार्वती के प्रश्न का उत्तर देते हुये भगवान गणेश ने कहा - "हे माते, चैत्र माह की कृष्ण पक्ष की चतुर्थी पर मेरे भालचन्द्र स्वरुप की पूजा करनी चाहिये। इस दिन सम्पूर्ण दिवस व्रत का पालन करते हुये अन्त में मेरा षोडशोपचार पूजन करना चाहिये। भालचन्द्र संकष्टी चतुर्थी के दिन व्रती को ब्राह्मण भोज के अनन्तर पञ्चगव्य पान करके उपवास करना चाहिये। यह व्रत पूर्णरूप से सभी संकटो का नाश करने वाला है। इस व्रत के विधिवत पालन से मनुष्य को सभी सिद्धियों की प्राप्ति हो जाती है। हे माँ जगतजननी! में आपको भालचन्द्र संकष्टी व्रत से सम्बन्धित एक कथा श्रवण कराता हूँ, कृपया आप इसे ध्यानपूर्वक सुनें।
कालान्तर में मयूरध्वज नामक एक अत्यन्त धर्मपरायण एवं पराक्रमी राजा था। मयूरध्वज के राज्य में समस्त प्रजा सुखी एवं निश्चिन्त जीवन व्यतीत कर रही थी। राजा सदैव धार्मिक गतिविधियों में व्यस्त रहता था। किन्तु नाना प्रकार के धर्म-कर्म, हवन, यज्ञादि करते हुये भी राजा पुत्र सुख से वञ्चित था। विभिन्न प्रकार के उपाय करने के पश्चात् अन्ततः महर्षि याज्ञवल्क्य की कृपा एवं आशीर्वाद से उन्हें सुन्दर पुत्र की प्राप्ति हुयी। पुत्र रत्न की प्राप्ति होने के पश्चात् राजा ने सम्पूर्ण राज-पाठ अपने मन्त्री धर्मपाल को दे दिया एवं स्वयं अपने पुत्र एवं परिवार के साथ समय व्यतीत करने लगे।
सम्पूर्ण राज्य का उत्तरदायित्व प्राप्त कर मन्त्री धर्मपाल भी नाना प्रकार के सुखों से युक्त हो शासन करने लगा। कालान्तर में मन्त्री को पाँच पुत्रों की प्राप्ति हुयी। समय आने पर सभी पुत्रों का विवाह आदि सम्पन्न हुआ एवं सभी कुटुम्ब सहित सुखपूर्वक जीवन व्यतीत करने लगे। मन्त्री धर्मपाल की पाँचवीं एवं सबसे छोटी पुत्रवधु नित्य पूजा-पाठ एवं धर्म-कर्म आदि में लीन रहती थी। वह भगवान गणेश जी की अनन्य भक्त थी तथा विधिवत उनकी आराधना करती थी।
एक बार चैत्र कृष्ण पक्ष चतुर्थी आने पर मन्त्री की छोटी बहु ने पूर्ण विधि-विधान से भालचन्द्र संकष्टी चतुर्थी का व्रत एवं पूजन किया। अपनी बहु को इस प्रकार पूजा-अर्चना करते देख उसकी सास को आपत्ति होने लगी तथा उसने कहा - 'तू यह किस प्रकार का तान्त्रिक पूजन कर रही है? क्या उद्देश्य है तेरा? क्या मेरे पुत्र पर वशीकरण प्रयोग कर रही है? यह पूजा तत्काल समाप्त कर दे।'
अपनी सास के मुख से ऐसे कटु वचन सुनकर बहु ने कहा - 'माता जी! यह किसी प्रकार का तान्त्रिक पूजन नहीं है। मैं अपने कुटुम्ब की सुरक्षा एवं कुशलता की कामना से भगवान श्री गणेश को समर्पित संकष्टी व्रत एवं पूजन कर रही हूँ। इस व्रत के प्रभाव से जीवन में आने वाले समस्त प्रकार के संकट टल जाते हैं तथा प्राणी निर्विघ्न अपने लक्ष्यों की प्राप्ति करता है। अतः मैं यह पूजा-अर्चना अपूर्ण नहीं छोड़ सकती।'
पुत्रवधु द्वारा तर्क करने पर सास अत्यन्त क्रोधित हुयी तथा बोली - 'मैं किसी गणेश को नहीं मानती, तुझे यह सब तन्त्र-मन्त्र बन्द करना होगा।' अपनी बहु से ऐसा कहने के पश्चात सास ने अपने पुत्र को भी बहु के विरुद्ध भड़काते हुये कहा - 'तुम्हारी पत्नी हमारा अहित करने के उद्देश्य से तान्त्रिक प्रयोग कर रही है अतः तुम्हें उसे समझाना होगा अन्यथा हमें घोर संकट का सामना करना पड़ेगा।'
अपनी माता द्वारा भ्रमित किये जाने पर पुत्र अपनी पत्नी को संकष्टी चतुर्थी का पूजन रोकने के लिये विभिन्न प्रकार से प्रताड़ित करने लगा। किन्तु नाना प्रकार की यातनाओं को सहते हुये भी उस बहु ने भालचन्द्र संकष्टी व्रत को भक्तिभाव से सम्पन्न किया। पूजन सम्पन्न करने के उपरान्त वह करुणापूर्वक भगवान श्री गणेश जी से प्रार्थना करने लगी - 'हे गजानन गणपति! मेरी सास एवं पति की बुद्धि भ्रमित हो चुकी है। उन्हें आपकी महिमा का स्मरण करायें। हे पार्वतीनन्दन! कुछ ऐसी लीला रचें कि, मेरी सास एवं पति के हृदय में आपके प्रति विश्वास जागृत हो सके।'
भक्तवत्सल भगवान श्री गणेश ने अपने भक्त की करुण पुकार सुनी तथा उन्हें एक युक्ति सूझी। गणेश जी ने अपनी माया से राजा मयूरध्वज के पुत्र युवराज का अपहरण करके, उसे मन्त्री धर्मपाल के महल में छुपा दिया। गणेश जी ने उस राजकुमार के वस्त्र एवं आभूषणों को धर्मपाल के ही महल में एक स्थान पर छोड़ दिया। जब राजा मयूरध्वज को अपने महल में पुत्र नहीं दिखाई दिया, तो उन्हें चिन्ता हुयी। राजा व्याकुलतावश सभी दिशाओं में राजकुमार को खोजने लगा। अपने पुत्र को खोजते हुये वह मन्त्री धर्मपाल के महल में पहुँचा, जहाँ राजा को अपने पुत्र के वस्त्राभूषण आदि पड़े दिखाई दिये। अपने पुत्र के वस्त्राभूषणों को इस अवस्था में देखकर राजा, हा राजकुमार! हा मेरे प्रिय पुत्र! आदि नाना प्रकार से पुत्र वियोग में पुकारने लगा।
राजा ने तत्काल मन्त्री को अपने पुत्र का पता लगाने का आदेश दिया। राजा मयूरध्वज ने यह भी कहा कि, यदि मन्त्री धर्मपाल ने सकुशल राजकुमार को नहीं खोजा तो उसे मृत्यु-दण्ड दिया जायेगा। मन्त्री ने बहुत खोज की किन्तु उसे राजकुमार कहीं भी नहीं मिला। मन्त्री भयभीत होकर राजा के समक्ष उपस्थित हुआ तथा बोला - 'महाराज! मैंने सभी ओर गुप्तचरों एवं सैनिकों को भेजा, स्वयं भी खोजा किन्तु राजकुमार की कहीं कोई सूचना नहीं प्राप्त हुयी। हमारे राज्य में ऐसा कोई अपराधी एवं अपरहणकर्ता भी नहीं है, जो इस प्रकार का दुस्साहस कर सके।'
मन्त्री के वचन सुनकर राजा क्रोधित हो उठा और बोला - 'दुष्ट मन्त्री! मेरे पुत्र के वस्त्राभूषण तेरे ही महल से प्राप्त हुये हैं। यदि तूने शीघ्र ही मेरे पुत्र की कोई सूचना मुझे नहीं प्रदान की, तो मृत्युदण्ड के लिये तैयार हो जाना।' राजा को अत्यधिक क्रोध में देख मन्त्री भयकम्पित हो उठा एवं अपने महल आकर अपने कुटुम्ब के सदस्यों से राजकुमार के विषय में पूछताछ करने लगा। वह विचलित होकर बोला - 'यदि किसी को राजा के पुत्र के विषय में कुछ भी ज्ञात हो तो शीघ्र बता दे अन्यथा राजा मेरा समूल नाश कर देगा।'
मन्त्री धर्मपाल को भयभीत अवस्था में देखकर उसकी सबसे छोटी पुत्रवधु ने कहा - 'हे पिता श्री! मेरी सासु माँ एवं पति ने भगवान श्री गणेश जी का अपमान किया था। यह सब उसी का परिणाम है। भगवान गणेश के प्रकोप से ही राजा का पुत्र अदृश्य हो गया है। अतः राजा एवं समस्त प्रजा को संकष्टी चतुर्थी का व्रत करना होगा, जिससे प्रसन्न होकर गौरीनन्दन गणेश राजकुमार को अवश्य पुनः प्रदान कर देंगे।'
मन्त्री ने बहु से बारम्बार क्षमा याचना की एवं बोला - 'हे सुलक्षणी! तुम्ही हमारे कुल का कल्याण करने वाली हो। कृपा करके मुझे भगवान गणेश की पूजा विधि बताने की कृपा करो। हम अज्ञानी हैं, जो गणेश जी की महिमा से अवगत नहीं हैं। अतः हमें भी संकष्टी व्रत के विधान से अवगत कराओ तथा राजकुमार को खोजने में सहायता करो' बहु ने उन्हें संकष्टी व्रत का विधान बताया, जिसके अनुसार सम्पूर्ण प्रजा एवं राजा ने व्रत का पालन किया एवं गणेश जी की श्रद्धापूर्वक पूजा-अर्चना कर अनुष्ठान सम्पन्न किया।
उन सभी की भक्तिपूर्वक आराधना से गणेश जी प्रसन्न हो गये एवं तत्काल उन्होंने राजा के पुत्र को सभी के समक्ष उपस्थित कर दिया। अपने पुत्र को सकुशल अपने समक्ष देखकर राजा अत्यन्त हर्षित हुआ एवं प्रजा में भी उल्लास का वातावरण छा गया। राजा ने मन्त्री धर्मपाल की पुत्रवधू को धन्यवाद दिया एवं समस्त नगरवासियों को सदैव संकष्टी व्रत पालन करने का कहा।"
॥इति श्री भालचन्द्र संकष्टी चतुर्थी कथा सम्पूर्णः॥
श्री गणेश माता पार्वती जी से बोले - "हे माता, चैत्र कृष्ण पक्ष चतुर्थी व्रत समस्त लोकों में सर्वोत्तम से उत्तम इस लोक तथा सभी अन्य लोकों में और कोई व्रत नहीं है। भगवान श्री कृष्ण ने यह कथा युधिष्ठिर जी को श्रवण करवायी थी। चैत्र माह के कृष्ण पक्ष की भालचन्द्र संकष्टी का व्रत करके ही युधिष्ठिर जी ने अपने खोये हुये राज्य को पुनः प्राप्त किया था।"