मिथिला के राजा जनक को जब यह समाचार प्राप्त हुआ कि महामुनि विश्वामित्र पधारे हैं तब वे अपने मन्त्री, योद्धा, श्रेष्ठ ब्राह्मण, गुरु शतानन्दजी एवं श्रेष्ठ लोगों सहित प्रसन्नतापूर्वक मुनियों के स्वामी ऋषि विश्वामित्र से भेंट करने पहुँचे। राजा ने मुनि को नतमस्तक होकर प्रणाम किया। मुनियों में श्रेष्ठ विश्वामित्रजी ने प्रसन्न होकर आशीर्वाद दिया। तदुपरान्त ब्राह्मण मण्डली को आदर सहित प्रणाम किया एवं स्वयं को धन्य मानकर राजा आनन्दित हुये। उसी समय भगवान श्रीराम एवं श्रीलक्ष्मण जी दोनों भ्राता आ पहुँचे, जो फुलवारी देखने गये थे। रामजी की मधुर मनोहर मूर्ति को देखकर विदेह राजा जनक विशेष रूप से विदेह अर्थात् देह की सुध-बुध से रहित हो गये। राजा जनक ने मुनि के चरणों में सिर नवाकर प्रेम भरी गम्भीर वाणी से कहा - "हे नाथ! कहिये, ये दोनों सुन्दर बालक मुनिकुल के आभूषण हैं या किसी राजवंश के पालक? अथवा जिसका वेदों ने "नेति" कहकर गान किया है कहीं वह ब्रह्म तो युगलरूप धरकर नहीं आया है? मेरा मन जो स्वभाव से ही वैराग्यरूप है, इन्हें देखकर इस प्रकार मुग्ध हो रहा है जैसे चन्द्रमा को देखकर चकोर। हे प्रभो! इसीलिये मैं आपसे सत्य एवं निश्छल भाव से पूछता हूँ। हे नाथ! कृपया बताने की कृपा करें।"
मुनि ने हँसकर कहा - "हे राजन्! आपने यथार्थ ही कहा। आपका वचन मिथ्या नहीं हो सकता। जगत में जहाँ तक जितने भी प्राणी हैं, ये सभी को प्रिय हैं। ये रघुकुलमणि महाराज दशरथ के पुत्र हैं। मेरे हित के लिये राजा ने इन्हें मेरे साथ भेजा है। ये राम एवं लक्ष्मण दोनों श्रेष्ठ भ्राता रूप, शील एवं बल के धाम हैं। सारा जगत् साक्षी है कि इन्होंने युद्ध में असुरों को परास्त कर मेरे यज्ञ की रक्षा की है।"
राजा ने कहा - "हे मुनि! आपके चरणों के दर्शन कर मैं अपना पुण्य-प्रभाव कह नहीं सकता। ये सुन्दर श्याम एवं गौर वर्ण के दोनों भ्राता आनन्द को भी आनन्द प्रदान करने वाले हैं।" तदुपरान्त मुनि की प्रशंसा करके एवं उनके चरणों में सिर नवाकर राजा उन्हें नगर में ले चले। एक सुन्दर महल जो सभी ऋतुओं में सुखदायक था, वहाँ राजा ने उन्हें ले जाकर ठहराया। तदनन्तर सभी प्रकार से पूजा एवं सेवा करके राजा विदा माँगकर अपने घर गये।
प्रातःकाल होने पर राजा जनक ने शतानन्दजी को बुलाया एवं उन्हें तुरन्त ही विश्वामित्र मुनि के समक्ष भेजा। उन्होंने आकर जनकजी की विनती सुनायी। विश्वामित्रजी ने हर्षित होकर दोनों भ्राताओं को बुलाकर कहा - "हे तात! चलो, जनकजी ने आमन्त्रण भेजा है। चलकर सीताजी का स्वयंवर देखना चाहिये।"
तदुपरान्त मुनियों के समूह सहित कृपालु श्रीरामचन्द्रजी धनुषयज्ञशाला देखने चले। दोनों भ्राताओं के रंगभूमि में आगमन की सूचना पर बालक, युवा, वृद्ध, स्त्री, पुरुष आदि सभी नगरवासी उनके दर्शन हेतु चल दिये। जब जनकजी ने देखा कि बड़ी भीड़ हो गयी है, तब उन्होंने सब विश्वासपात्र सेवकों से कहा - "तुम लोग तुरन्त प्रजा के समीप जाओ एवं सभी को यथायोग्य आसन प्रदान करो।" उन सेवकों ने कोमल एवं नम्र वचन कहकर उत्तम, मध्यम, नीच एवं लघु सभी श्रेणी के स्त्री-पुरुषों को अपने-अपने योग्य स्थान पर बैठाया।
उसी समय राजकुमार राम एवं लक्ष्मण वहाँ पधारे। वे ऐसे सुन्दर हैं मानो साक्षात् मनोहरता ही उनके शरीरों पर छा रही हो। सुन्दर साँवला एवं गोरा उनका शरीर है। वे गुणों के समुद्र, चतुर एवं उत्तम वीर हैं। वे राजाओं के समाज में ऐसे सुशोभित हो रहे थे, मानो तारागणों के मध्य दो पूर्ण चन्द्रमा हों। महान् रणधीर राजा श्रीरामचन्द्रजी के रूप को इस प्रकार देख रहे थे, मानो स्वयं वीर-रस शरीर धारण किये हुये हो। कुटिल राजा प्रभु को देखकर भयभीत हो गये, मानो बड़ी भयानक मूर्ति हो, छलपूर्वक जो राक्षस वहाँ राजाओं के वेष में बैठे थे, उन्होंने प्रभु को प्रत्यक्ष काल के समान देखा। नगरवासियों ने दोनों भ्राताओं को मनुष्यों के भूषण रूप एवं नेत्रों को सुख देने वाला देखा। स्त्रियाँ हृदय में हर्षित होकर अपनी-अपनी रुचि के अनुसार उनका दर्शन कर रही हैं। मानो शृङ्गार रस ही परम अनुपम मूर्ति धारण किये सुशोभित हो रहा हो।
विद्वानों को प्रभु विराट रूप में दिखायी दिये, जिनके अनेक मुख, हाथ, पग, नेत्र और शीश हैं। राजा जनक के सजातीय कुटुम्बियों को भगवान राम सगे-सम्बन्धी के समान प्रिय लग रहे थे। जनक समेत रानियाँ उन्हें अपने बालक के समान देख रही थीं। योगियों को वे शान्त, शुद्ध, सम एवं स्वतःप्रकाश परम तत्त्व के रूप में दर्शन दे रहे थे। हरिभक्तों ने दोनों भ्राताओं को समस्त सुखों को प्रदान करने वाले इष्टदेव के समान देखा। सीताजी जिस भाव से श्री राम जी को देख रही थीं, वह स्नेह व सुख वर्णित करना असम्भव है। उस स्नेह एवं सुख का वे हृदय में अनुभव कर रही थीं, पर वे भी उसे कह नहीं सकतीं। इस प्रकार जिसका जैसा भाव था, उसने कोसलाधीश श्रीरामचन्द्रजी का वैसा ही दर्शन किया। सुन्दर साँवले एवं गौर शरीर वाले तथा सम्पूर्ण विश्व के नेत्रों को चुराने वाले दोनों कुमार राज-समाज में दिव्य रूप से सुशोभित हो रहे थे। दोनों भ्राता स्वभाव से ही बिना किसी शृङ्गार के मन को हरने वाले हैं। करोड़ों कामदेवों की उपमा भी उनके लिये तुच्छ है। उनके सुन्दर मुख शरद् पूर्णिमा के चन्द्रमा की भी निन्दा करने वाले हैं तथा कमल के समान नेत्र मन को अत्यन्त भाते हैं। उनकी सुन्दर चितवन समस्त संसार के मन को हरने वाले कामदेव के भी मन को हरने वाली है। सुन्दर कपोल हैं, कानों में चञ्चल कुण्डल हैं। ठोड़ी एवं अधर अत्यन्त सुन्दर हैं एवं कोमल वाणी है। उनकी हँसी चन्द्रमा की किरणों का तिरस्कार करने वाली है। भौंहें टेढ़ी एवं नासिका मनोहर है। ऊँचे-चौड़े ललाट पर तिलक अङ्कित है, काले घुँघराले केशों को देखकर भौंरों की पंक्तियाँ भी लजा जाती हैं। शङ्ख के समान सुन्दर गले में मनोहर तीन रेखायें हैं। हृदयों पर गजमुक्ताओं के सुन्दर कण्ठे एवं तुलसी की मालायें सुशोभित हैं। कमर में तरकस और पीताम्बर बाँधे हैं। हाथों में बाण और बायें सुन्दर कन्धों पर धनुष तथा पीले यज्ञोपवीत सुशोभित हैं। नख से शिखा तक सभी अङ्ग सुन्दर हैं। ऐसे प्रभु श्री राम एवं श्री लक्ष्मण जी के दर्शन कर वहाँ उपस्थित सभी लोग सुखी हुये।
राजा जनक भी दोनों भ्राताओं का दर्शन कर अत्यन्त हर्षित हुये। राजा ने मुनि के चरणकमल पकड़ लिये तथा उनसे विनती करके अपनी कथा सुनायी तथा मुनि को सारी रंगभूमि एवं यज्ञशाला का भ्रमण कराया। मुनि के सहित दोनों श्रेष्ठ राजकुमार जहाँ भी जाते थे, वहाँ सभी आश्चर्यचकित हो उनका दर्शन करने लगते थे। मुनि ने राजा से कहा - "रंगभूमि की रचना अत्यन्त सुन्दर है।" विश्वामित्र जैसे निःस्पृह, विरक्त एवं ज्ञानी मुनि से रचना की प्रशंसा सुनकर राजा जनक प्रसन्न हुये एवं उन्हें सुख की अनुभूति हुयी। सभी मञ्चों में से एक मञ्च अधिक सुन्दर, उज्ज्वल एवं विशाल था। स्वयं राजा ने मुनि सहित दोनों भ्राताओं को उसपर विराजमान किया।
प्रभु को देखकर सभी राजा मन-ही-मन ऐसे पराजित, निराश एवं उत्साहहीन हो गये, जिस प्रकार पूर्ण चन्द्रमा के उदय होने पर तारे प्रकाशहीन हो जाते हैं। उनके तेज को देखकर सभी के मन में ऐसा विश्वास हो गया कि - "निःसन्देह रामचन्द्रजी ही धनुष भङ्ग करेंगे। इधर उनके रूप को देखकर सभी के मन में यह निश्चय हो गया कि शिवजी के विशाल धनुष को बिना तोड़े भी सीताजी श्रीरामचन्द्रजी के ही गले में जयमाला डालेंगी,अर्थात् दोनों प्रकार से ही हमारी पराजय होगी तथा विजय श्रीरामचन्द्रजी की होगी।" वहाँ उपस्थित समस्त राजा यही विचार कर कहने लगे - "हे भाई! यश, प्रताप, बल एवं तेज गँवाकर अपने-अपने घर चलो।" अन्य राजा, जो अविवेक एवं अभिमान के कारण अन्धे हो रहे थे यह सुनकर बहुत हँसे। उन्होंने कहा - "धनुष तोड़ने पर भी विवाह होना कठिन है अर्थात् सहज ही में हम जानकी को हाथ से जाने नहीं देंगे, अतः बिना धनुष भङ्ग के तो राजकुमारी से कौन ही विवाह कर सकता है? काल ही क्यों न हो, एक बार तो सीता के लिये उसे भी हम युद्ध में जीत लेंगे।"
अभिमानी राजाओं की बात सुनकर, जो धर्मात्मा, हरिभक्त एवं परिपक्व राजा थे, मुसकराये एवं उन्होंने कहा - "राजाओं के गर्व दूर करके जो धनुष किसी से नहीं टूट सकेगा उसे तोड़कर श्रीरामचन्द्रजी सीताजी को ब्याहेंगे। रही युद्ध की बात, सो महाराज दशरथ के रणवीर पुत्रों को युद्ध में तो कौन ही पराजित कर सकता है। हमारी परम पवित्र एवं निष्कपट सीख को सुनकर सीताजी को साक्षात् जगज्जननी समझो एवं उन्हें पत्नी रूप में प्राप्त करने की आशा एवं लालसा त्याग दो। श्रीरघुनाथजी को जगत् का पिता-परमेश्वर मानकर नेत्र भरकर उनका दर्शन कर लो, क्योंकि ऐसा अवसर पुनः प्राप्त नहीं होगा। सुन्दर, सुख प्रदान करने वाले एवं समस्त गुणों की राशि ये दोनों भ्राता शिवजी के हृदय में वास करने वाले हैं। हमने तो श्रीरामचन्द्रजी का दर्शन करके अपने जीवन एवं जन्म को सफल कर लिया।"
उसी समय सुअवसर जानकर राजा जनक ने सीताजी को बुलाया। सभी सुन्दर सखियाँ आदरपूर्वक उन्हें लेकर चलीं। रूप एवं गुणों की भण्डार जगज्जननी जानकीजी की शोभा का वर्णन करना असम्भव है। काव्य की सभी उपमायें त्रिगुणात्मक, मायिक जगत से ली गयी हैं, उन्हें भगवान् की स्वरूपाशक्ति श्रीजानकीजी के अप्राकृत, चिन्मय अंगों के लिये प्रयुक्त करना उनका अपमान करना है। यदि किसी स्त्री के साथ सीताजी की तुलना की जाय तो जगत में ऐसी सुन्दर युवती है ही कहाँ? पृथ्वी की स्त्रियों की तो बात ही क्या, अपितु देवताओं की स्त्रियाँ भी श्रीजानकीजी की समता को कैसे पा सकती हैं। सयानी सखियाँ सीताजी को साथ लेकर मनोहर वाणी से गीत गायन करती हुयी चलीं। सीताजी के नवल शरीर पर सुन्दर साड़ी सुशोभित है। जगज्जननी की महान् छवि अतुलनीय है। सभी आभूषण यथास्थान शोभित हैं, जिन्हें सखियों ने अङ्ग-अङ्ग में भलीभाँति धारण कराया है। जब सीताजी ने रंगभूमि में पदार्पण किया, तब उनके दिव्य स्वरूप का दर्शन कर स्त्री-पुरुष सभी मोहित हो गये। देवताओं ने हर्षित होकर नगाड़े बजाये तथा पुष्प वर्षा की एवं अप्सरायें गायन करने लगीं। सीताजी के कर-कमलों में जयमाला सुशोभित है। सब राजा चकित होकर सहसा उनकी ओर देखने लगे। सीताजी चकित चित्त से श्रीरामजी को निहारने लगीं, उस समय सभी राजा मोह के वश हो गये। सीताजी ने मुनि के समीप बैठे हुये दोनों भ्राताओं को देखा तो उनके नेत्र वहीं श्रीरामजी में स्थिर हो गये। परन्तु गुरुजनों की लाज से तथा सभा-समाज की उपस्थिति के कारण सीताजी सकुचा गयीं। वे श्रीरामचन्द्रजी को हृदय में बसाकर सखियों की ओर देखने लगीं। श्रीरामचन्द्रजी का रूप एवं सीताजी के सौन्दर्य का दर्शन कर सभी स्त्री-पुरुष पलक भी नहीं झपका रहे थे।
तब राजा जनक ने भाटों को बुलाया। वे विरुदावली, अर्थात् वंश की कीर्ति का गायन करने लगे। राजा ने कहा - "सभी को मेरे प्रण की सूचना दो।" भाटों ने कहा - "हे पृथ्वी का पालन करने वाले सभी राजागण! सुनिये। हम अपनी भुजा उठाकर जनकजी के विशाल प्रण का वर्णन करते हैं। राजाओं की भुजाओं का बल चन्द्रमा है, भगवान शिव का धनुष राहु है, वह भारी है, कठोर है, यह सभी को विदित है। बड़े भारी योद्धा रावण एवं बाणासुर भी इस धनुष को स्पर्श करने का साहस नहीं कर सके। शिवजी के उसी कठोर धनुष को आज इस राज-समाज में जो भी तोड़ेगा, तीनों लोकों की विजय के सहित ही जानकीजी उसका वरण करेंगी।"
प्रण सुनकर वहाँ उपस्थित सभी राजा ललचा उठे। जो वीरता के अभिमान में चूर थे, वे मन में अत्यधिक तमतमाये। कमर कसकर अकुलाकर उठे तथा अपने इष्टदेवों का स्मरण करके आगे बढ़े। वे राजा शिवजी के धनुष को पकड़कर नाना प्रकार से बल प्रयोग करते हैं, किन्तु वह धनुष किसी से उठता ही नहीं। जिन राजाओं के मन में कुछ विवेक था, वे धनुष के समीप ही नहीं गये। वे मूर्ख अभिमानी राजा दाँत किटकिटाकर धनुष को पकड़ते हैं, परन्तु जब नहीं उठता तो लज्जित होकर चले जाते, मानो वीरों की भुजाओं का बल पाकर वह धनुष अधिकाधिक भारी होता जाता था। उस समय दस सहस्र राजा एक ही बार में धनुष को उठाने लगे, तब भी वह धनुष अपने स्थान से नहीं हिला। सब राजा उपहास के पात्र बन गये। सभी राजा हृदय से निराश हो गये तथा अपने-अपने समाज में जा बैठे।
राजाओं को असफल देखकर जनक अकुला उठे एवं ऐसे क्रोधपूर्ण वचन कहते हुये बोले - "मैंने जो प्रण ठाना था, उसे सुनकर विभिन्न द्वीपों के अनेकों राजा आये। देवता एवं दैत्य भी मनुष्य का रूप धारण करके आये तथा और भी अनेक रणधीर वीर आये। परन्तु धनुष को तोड़कर मनोहर कन्या, विजय एवं अत्यन्त सुन्दर कीर्ति को प्राप्त करने वाला मानो ब्रह्मा ने किसी को रचा ही नहीं। कहिये, यह लाभ किसको अच्छा नहीं लगता। परन्तु किसी ने भी भगवान शङ्कर के धनुष की प्रत्यञ्चा नहीं चढ़ायी। अरे! प्रत्यञ्चा चढ़ाना एवं तोड़ना तो सही, अपितु कोई उसे तिलभर हिला भी नहीं पाया। मुझे ज्ञात हो गया है, पृथ्वी वीरों से रिक्त हो गयी है। अब आशा त्यागकर अपने-अपने घर जाओ, ब्रह्माजी ने सीता का विवाह लिखा ही नहीं। यदि प्रण त्यागता हूँ तो पुण्य क्षीण आता है, अतः क्या करूँ, कन्या कुँआरी ही रहे। यदि मुझे ज्ञात होता कि पृथ्वी वीरों से शून्य है, तो यह प्रण करके स्वयं उपहास का पात्र न बनता।"
राजा जनक के वचन सुनकर सभी स्त्री-पुरुष देवी जानकी के लिये अत्यन्त दुःखी हुये, परन्तु लक्ष्मणजी तमतमा उठे, उनकी भौंहें टेढ़ी हो गयीं, ओठ फड़कने लगे एवं नेत्र क्रोध से लाल हो गये। राजा जनक के वचन उन्हें बाण की भाँति चुभे। श्रीरामचन्द्रजी के चरणकमलों में नमन कर लक्ष्मण जी यथार्थ वचन बोले - "रघुवंशियों में कोई भी जहाँ उपस्थित होता है, उस समाज में ऐसे वचन कोई नहीं कहता, जैसे अनुचित वचन रघुकुलशिरोमणि श्रीरामजी के उपस्थित होते हुये भी जनकजी ने कहे हैं। हे सूर्यकुल रूपी कमल के सूर्य! सुनिये, मैं स्वभाव ही से कहता हूँ, कुछ अभिमान करके नहीं, यदि आपकी आज्ञा हो, तो मैं ब्रह्माण्ड को गेंद के समान उठा लूँ और उसे कच्चे घड़े की भाँति फोड़ डालूँ। मैं सुमेरु पर्वत को मूली के समान तोड़ सकता हूँ, हे भगवन्! आपके प्रताप की महिमा से यह बेचारा पुराना धनुष तो क्या ही वस्तु है। ऐसा जानकर हे नाथ! आज्ञा हो तो कुछ करूँ। धनुष को कमल-नाल की भाँति चढ़ाकर उसे सौ योजन लिये दौड़ा चला जाऊँ। हे नाथ! आपके प्रताप के बल से धनुष को कुकुरमुत्ते की भाँति तोड़ दूँ। यदि ऐसा न करूँ तो प्रभु के चरणों की शपथ है कि मैं धनुष और तरकस को कभी स्पर्श भी न करूँगा।"
ज्यों ही लक्ष्मण जी ने क्रोधपूर्ण वचन बोले, सम्पूर्ण पृथ्वी डगमगा उठी एवं सभी दिशाओं के प्राणी काँप गये। सभी प्रजा एवं राजा भयभीत हो गये। सीताजी के हृदय में हर्ष हुआ एवं जनकजी सकुचा गये। गुरु विश्वामित्रजी, भगवान श्रीराम एवं सभी मुनि मन-ही-मन अत्यन्त हर्षित हुये। श्रीरामचन्द्रजी ने सङ्केत से लक्ष्मणजी को मना किया एवं प्रेमपूर्वक अपने समीप बैठा लिया।
विश्वामित्रजी ने शुभ समय जानकर अत्यन्त प्रेमभरी वाणी में कहा - "हे राम! उठो, शिवजी का धनुष भङ्ग करो, हे तात! जनक का सन्ताप मिटाओ।" गुरु के वचन सुनकर श्रीरामजी ने चरणों में सिर नवाया। उनके मन में न हर्ष हुआ, न विषाद तथा वे सहज स्वभाव से ही उठ खड़े हुये। मञ्चरूपी उदयाचल पर भगवान श्रीराम रूपी बालसूर्य के उदय होते ही सभी सन्तरूपी कमल खिल उठे तथा नेत्र रूपी भौंरे हर्षित हो गये। राजाओं की आशारूपी रात्रि नष्ट हो गयी। मुनि एवं देवता रूपी चकवे शोकरहित हो गये। वे पुष्पवर्षा कर अपनी सेवा प्रकट कर रहे थे। प्रेमसहित गुरु के चरणों की वन्दना करके श्रीरामचन्द्रजी ने मुनियों से आज्ञा ली। समस्त जगत् के स्वामी श्रीरामजी सुन्दर मतवाले श्रेष्ठ गज की चाल से स्वाभाविक ही चले। श्रीरामचन्द्रजी के चलते ही समस्त प्रजा हर्षित हुयी तथा उन्होंने पितर एवं देवताओं की वन्दना करके अपने पुण्यों का स्मरण किया - "यदि हमारे पुण्यों का कुछ भी प्रभाव हो, तो हे भगवान गणेश! रामचन्द्रजी शिवजी के धनुष को कमल की डण्डी की भाँति तोड़ डालें।"
वात्सल्य के कारण अपनी सखियों को समीप बुलाकर सीताजी की माता स्नेहवश बिलखकर बोलीं - "कोई भी इनके गुरु विश्वामित्रजी को समझाकर नहीं कहता कि रामजी बालक हैं, इनके लिये ऐसा हठ अच्छा नहीं। जो धनुष रावण एवं बाणासुर जैसे जगद्विजयी वीरों से भी नहीं हिला, उसे तोड़ने के लिये मुनि विश्वामित्रजी का रामजी को आज्ञा देना एवं रामजी का उसे तोड़ने के लिये चल देना हठ है। गुरु विश्वामित्रजी को कोई समझाता क्यों नहीं? हंस के बच्चे भी कहीं मन्दराचल पर्वत उठा सकते हैं? राजा तो बड़े विवेकी एवं ज्ञानी हैं, उन्हें तो गुरु को समझाने की चेष्टा करनी चाहिये थी, परन्तु प्रतीत होता है राजा का भी समस्त विवेक समाप्त हो गया है। हे सखी! विधाता की गति अज्ञात है।" तब रामजी के महत्त्व से परिचित एक चतुर सखी कोमल वाणी से बोली - "हे रानी! तेजवान को देखने में छोटा होने पर भी छोटा नहीं समझना चाहिये। कहाँ घड़े से उत्पन्न होने वाले छोटे-से मुनि अगस्त्य एवं कहाँ अपार समुद्र ? किन्तु उन्होंने सम्पूर्ण सागर को सोख लिया, जिसका सुयश समस्त संसार में विख्यात है। सूर्यमण्डल देखने में छोटा लगता है, पर उसके उदय होते ही तीनों लोकों का अन्धकार नष्ट हो जाता है। महान मतवाले गजराज को छोटा-सा अंकुश वश में कर लेता है। अतः हे देवी! ऐसा जानकर सन्देह त्याग दीजिये। हे रानी! सुनिये, रामचन्द्रजी धनुष को अवश्य ही तोड़ेंगे।"
सखी के वचन सुनकर रानी को श्रीरामजी के सामर्थ्य पर विश्वास हो गया। उनका संशय मिट गया तथा श्रीरामजी के प्रति उनका प्रेम अत्यन्त बढ़ गया। उस समय श्रीरामचन्द्रजी को देखकर सीताजी भयभीत हृदय से विभिन्न देवताओं से प्रार्थना कर रही थीं। वे व्याकुल होकर मना रही थीं - "हे महेश-भवानी! मुझ पर प्रसन्न होइये, मैंने आपकी जो सेवा की है, उसे सफल कीजिये एवं मुझ पर स्नेह करके धनुष के भारीपन को हर लीजिये। हे गणों के नायक, वरप्रदायक देवता गणेशजी! मैंने इसी क्षण के लिये तुम्हारी सेवा की थी। मेरी बारम्बार विनती है इस धनुष का भार अत्यन्त न्यून कर दीजिये। श्रीरघुनाथजी की ओर देख-देखकर सीताजी धीरज धरकर देवताओं को मना रही थीं। उनके नेत्रों में प्रेमाश्रु भरे थे तथा शरीर में रोमाञ्च हो रहा था। पिता के प्रण का स्मरण करके सीताजी का मन क्षुब्ध हो उठा। वे मन-ही-मन कहने लगीं - "अहो! पिताजी ने बड़ा ही कठिन हठ ठाना है, वे लाभ-हानि कुछ भी नहीं समझ रहे हैं। मन्त्री भयभीत हो रहे हैं, इसीलिये कोई उन्हें सीख भी नहीं देता, पण्डितों की सभा में यह बड़ा अनुचित हो रहा है। कहाँ तो वज्र से भी अधिक कठोर धनुष एवं कहाँ ये कोमल शरीर वाले किशोर श्यामसुन्दर। हे विधाता! मैं हृदय में किस प्रकार धीरज धरूँ, सारी सभा की बुद्धि भ्रमित हो गयी है, अत: हे शिवजी के धनुष! अब तो मुझे तुमसे ही आशा है। तुम अपनी जड़ता लोगों पर डालकर, श्रीरघुनाथजी के सुकुमार शरीर को देखकर उतने ही हलके हो जाओ।" इस प्रकार सीताजी का मन अत्याधिक चिन्तित हो रहा था। अपनी बढ़ी हुयी व्याकुलता से सीताजी सकुचा गयीं एवं धीरज धरकर हृदय में विश्वास किया कि यदि तन, मन एवं वचन से मेरा प्रण सच्चा है तथा श्रीरघुनाथजी के चरणकमलों में मेरा चित्त वास्तव में अनुरक्त है, तो सभी के हृदय में निवास करने वाले भगवान मुझे रघुश्रेष्ठ श्रीरामचन्द्रजी की दासी अवश्य बनायेंगे। जिसका जिसपर सच्चा स्नेह होता है, वह उसे मिलता ही है, इसमें कुछ भी सन्देह नहीं है।" प्रभु की ओर देखकर सीताजी ने यह निश्चय कर लिया कि यह शरीर इन्हीं का होकर रहेगा या रहेगा ही नहीं।
कृपानिधान श्रीरामजी को सब ज्ञात हो गया। उन्होंने सीताजी को देखकर धनुष की ओर इस प्रकार दृष्टि डाली, जैसे गरुड़ जी छोटे-से सर्प की ओर देखते हैं। इधर जब लक्ष्मणजी ने देखा कि रघुकुलमणि श्रीरामचन्द्रजी ने शिवजी के धनुष की ओर दृष्टिपात किया है, तो वे पुलकित होकर ब्रह्माण्ड को चरणों से दबाकर बोले - "हे दिग्गजों! हे कच्छप! हे शेष! हे वराह! धीरज धरकर पृथ्वी को थामे रहो, जिसमें यह हिलने न पावे। श्रीरामचन्द्रजी शिवजी के धनुष को तोड़ना चाहते हैं। मेरी आज्ञा सुनकर सब सावधान हो जाओ। श्रीरामचन्द्रजी जब धनुष के समीप आये, तब सब स्त्री-पुरुषों ने देवताओं से प्रार्थना की। श्रीरामजी ने सभी की ओर देखा एवं तदुपरान्त कृपाधाम श्रीरामजी ने सीताजी की ओर देखा जो अत्यन्त व्याकुल थीं। उन्होंने देवी जानकी को अत्यन्त विकल देखा। उनका एक-एक क्षण कल्प के समान व्यतीत हो रहा था। राम जी ने मन-ही-मन गुरु को प्रणाम किया तथा अत्यन्त शीघ्रता एवं सहजता से धनुष को उठा लिया। राम जी के उठाते ही वह धनुष बिजली की भाँति चमका तथा आकाश में मण्डलाकार हो गया। भगवान श्रीराम ने इतनी तत्परता से धनुष-भङ्ग किया की उन्होंने धनुष कब उठाया, कब प्रत्यञ्चा चढ़ायी एवं कब खींची, यह किसी को ज्ञात नहीं हुआ। सभी ने श्रीरामजी को धनुष खींचे खड़े हुये देखा। उसी क्षण श्रीरामजी ने धनुष को मध्य से तोड़ डाला। समस्त लोकों में एक भयङ्कर ध्वनि हुयी। सूर्य के अश्व मार्ग छोड़कर चलने लगे। दिग्गज चिंघाड़ने लगे, धरती डोलने लगी, शेष, वाराह एवं कच्छप कलमला उठे। देवता, राक्षस एवं मुनि कानों पर हाथ रखकर सब व्याकुल होकर विचार करने लगे। जब सभी को यह निश्चित रूप से ज्ञात हो गया कि श्रीरामजी ने धनुष को भङ्ग कर दिया है, तब सभी उनकी जय-जयकार करने लगे। प्रभु ने धनुष के दोनों टुकड़े पृथ्वी पर डाल दिये। यह देखकर सब लोग आनन्दित हुये। आकाश में अत्यन्त तीव्र नगाड़े बजने लगे तथा देवाङ्गनायें गायन एवं नृत्य करने लगीं। ब्रह्मा आदि देवता, सिद्ध एवं मुनीश्वर लोग प्रभु की प्रशंसा कर रहे थे तथा आशीर्वाद प्रदान कर रहे थे। वे रंग-बिरंगे पुष्प एवं मालाओं की वर्षा कर रहे थे। किन्नर गीत गायन कर रहे थे। सारे ब्रह्माण्ड में जय-जयकार की ध्वनि छा गयी। धीर बुद्धि वाले, भाट, मागध एवं सूत लोग विरुदावली अर्थात् कीर्ति का बखान कर रहे थे।
सभी लोग घोड़े, हाथी, धन, मणि एवं वस्त्र निछावर कर रहे थे। झाँझि मृदङ्ग, शङ्ख, शहनाई, भेरि, ढोल, दुन्दुभी आदि अनेक प्रकार के वाद्य यन्त्र बज रहे थे। सखियों सहित रानी अत्यन्त हर्षित हुयी। राजा जनक जी ने भी चिन्ता त्यागकर सुख प्राप्त किया। धनुष भङ्ग होने पर सभी राजा निस्तेज हो गये। सीताजी के सुख का तो किस प्रकार वर्णन किया जाय; जैसे चातकी को स्वाती का जल प्राप्त हो गया हो। तब शतानन्दजी ने आज्ञा दी एवं सीताजी श्रीरामजी की ओर चलने लगीं। सीताजी के शरीर में संकोच है, किन्तु मन में परम उत्साह है। उनका यह गुप्त प्रेम किसी को ज्ञात नहीं। समीप पहुँचकर, श्रीरामजी की शोभा निहारकर राजकुमारी सीताजी स्तब्ध रह गयीं। चतुर सखी ने यह दशा समझकर कहा - "सुहावनी जयमाला पहनाओ।" यह सुनकर सीताजी ने अपने दोनों कर-कमलों से माला उठायी, उस समय उनके कर-कमल ऐसे सुशोभित हो रहे थे, जैसे डण्डियों सहित दो कमल चन्द्रमा को जयमाला पहना रहे हों। इस सुन्दर छवि का दर्शन कर सखियाँ गायन करने लगीं। उसी समय सीताजी ने श्रीरामजी के गले में जयमाला पहना दी। श्रीरघुनाथजी के हृदय पर जयमाला देखकर देवता पुष्पवर्षा करने लगे। नगर एवं आकाश में गायन-वादन होने लगा। सभी सज्जन प्रसन्न हो गये। देवता, किन्नर, मनुष्य, नाग एवं मुनिगण जय-जयकार करते हुये आशीर्वाद दे रहे थे।
देवताओं की स्त्रियाँ नृत्य करती हुयी पुष्पों की बरसा कर रही थीं तथा ब्राह्मण वेदध्वनि कर रहे थे। पृथ्वी, पाताल एवं स्वर्ग तीनों लोकों में यश फैल गया कि श्रीरामचन्द्रजी ने धनुष तोड़ दिया तथा सीताजी का वरण कर लिया। नगर के नर-नारी आरती कर रहे थे तथा अपनी सामर्थ्य से बहुत अधिक निछावर कर रहे थे। श्री सीता-रामजी की जोड़ी ऐसी सुशोभित हो रही थी मानो सुन्दरता एवं शृङ्गार रस एकत्र हो गये हों। सखियाँ कह रही थीं - "सीते ! स्वामी के चरण स्पर्श करो, किन्तु गौतम जी की स्त्री अहल्या की गति का स्मरण करके सीताजी श्रीरामजी के चरणों को हाथों से स्पर्श नहीं कर रही थीं। सीताजी की अलौकिक प्रीति जानकर रघुकुलमणि श्रीरामचन्द्रजी मन में प्रसन्न होते हैं। इस प्रकार भगवान श्री राम एवं देवी सीता के विवाह की कथा सम्पन्न होती है।
॥इति श्री विवाह पञ्चमी व्रत कथा सम्पूर्णः॥