भगवान श्रीगणेश जी का यह अवतार उनके 'देहि ब्रह्म' स्वरूप की अभिव्यक्ति है तथा उनका वाहन मूषक बताया गया है। इस अवतार में भगवान एकदन्त ने मदासुर का वध किया। कथा के अनुसार, महर्षि च्यवन के द्वारा 'मद' की सृष्टि हुयी। पिता महर्षि च्यवन की आज्ञा से मद पाताल में शुक्राचार्य से मिलने गया। उसने शुक्राचार्य से प्रार्थना की, कि वह उनके भ्राता महर्षि च्यवन का पुत्र है, इस नाते वह शुक्राचार्य के लिये भी पुत्रवत हुआ। मद ने यह भी इच्छा प्रकट की, कि शुक्राचार्य उसे अपना शिष्य बना लें और उसे ब्रह्माण्ड पर अधिकार स्थापित करने में सहायता करें। तब शुक्राचार्य ने उसे एकाक्षरी 'ह्रीं' मन्त्र की दीक्षा दी और उसे तपश्चर्या का निर्देश दिया।

अपने गुरु का निर्देश पाकर वह कठोर तपस्या में लीन हो गया। उसने सहस्रों वर्षों तक कठिन ध्यान तपस्या की। उसके चारों ओर वृक्ष और लतायें फैल गयीं। उसका पूरा शरीर अस्थि पञ्जर में परिवर्तित हो गया। उसकी कठिन तपस्या से सन्तुष्ट हो माता सिंहवाहिनी भगवती उसके समक्ष प्रकट हो गयीं और माता ने उसकी इच्छानुसार उसे वरदान दिया कि वह हमेशा निरोगी रहेगा, उसे ब्रह्माण्ड का निष्कण्टक राज्य प्राप्त होगा तथा उसकी कोई भी इच्छा अधूरी नहीं रहेगी। मदासुर वापस अपने नगर को लौटा और अविचल रूप से राज्य करने लगा। इसी मध्य उसने प्रमादासुर की कन्या सालसा से विवाह भी कर लिया। सालसा से उसे तीन पुत्र प्राप्त हुये, जिनका नाम विलासी, लोलुप और धनप्रिय था।
देवी के वरदान से उन्मत्त हुये मदासुर ने पृथ्वी, स्वर्ग और कैलाश पर आक्रमण कर दिया। सर्वत्र असुरों का शासन हो गया। स्वाहा, स्वधा और वषट्कार आदि समस्त धर्म-कर्म लुप्त हो गये। तत्पश्चात देवगणों ने महामुनि सनत्कुमार जी से इस समस्या का निवारण पूछा। तब उन्होंने देवताओं को भगवान गणेश के एकाक्षरी मन्त्र का उपदेश देकर उनके 'एकदन्त' स्वरूप के ध्यान की विधि इस प्रकार बतायी:
"श्री गणेश जी के एक दाँत और चार भुजाये हैं। उनका मुख हाथी के समान है। वे लम्बोदर हैं तथा उनके साथ सिद्धि और बुद्धि भी हैं। वे मूषक पर आरूढ़ हैं। उनकी नाभि में शेषनाग जी विराजमान हैं। वे अपने हाथों में पाश, परशु, कमल और अभय मुद्रा धारण करते हैं। उनका मुखारविन्द प्रसन्नता से खिला हुआ है। वे भक्तों के लिये वरदायक और अभक्तों के विनाशक हैं। मैं उनका ध्यान करता हूँ।"
तब देवताओं ने सनत्कुमार जी से 'एकदन्त' शब्द का अभिप्राय पूछा। तब ऋषिश्रेष्ठ सनत्कुमार जी उन्हें बताया -
"एक, शब्द माया का सूचक माना जाता है। वह माया देहस्वरूपा एवं विलासवती है। 'दन्त' - शब्द को सत्तास्वरूप (परमात्मा) कहा गया है, इसमें संशय नहीं है। ये गणेश माया के धारक हैं और स्वयं सत्तामात्र (परमात्मास्वरूप) से स्थित हैं; इसीलिये वेदवादी विद्वान इन्हें एकदन्त कहते हैं।"
लगभग सौ वर्षों के कड़े अनुष्ठान के उपरान्त महागणपति 'एकदन्त' प्रकट हुये और उन्होंने देवताओं को वर माँगने को कहा। तब देवताओं ने उनसे मदासुर के आतङ्क से मुक्ति के लिये प्रार्थना की। गणेश जी ने उन्हें 'तथास्तु' कह दिया। यह समाचार सुनकर मदासुर अत्यन्त कुपित हुआ और युद्ध के लिये निकल पड़ा। उसके सेनानायकों ने अत्यन्त उग्र मूषकारूढ़ महाकाय नर-कुञ्जर को चार हाथों में परशु और पाश आदि आयुध लिये हुये देखा। दैत्य और असुर भय से व्याकुल हो गये। तब उन दैत्यों ने गणेश जी से पूछा कि - "आप कौन हैं, आपके अद्भुत स्वरूप को देखकर हमारे स्वामी विस्मित हो गये हैं। आपका क्या प्रयोजन है? आप हम सबकी शंका का निवारण करें।"
तब भगवान एकदन्त ने अपना परिचय देते हुये कहा - "मैं स्वानन्दवासी हूँ और अभी स्वानन्द से ही यहाँ मदासुर का वध करके देवताओं को सुख प्रदान करने के लिये आया हूँ। यदि मदासुर अपना हित चाहे तो देवताओं को उनका अधिकार वापस करके, उनके प्रति द्वेष भाव त्यागकर मेरी शरण में आ जाये। अन्यथा मैं उसका वध अवश्य ही करूँगा।" दूत ने यह सूचना मदासुर को दी, तब उसे नारद जी के वचन का स्मरण हुआ, किन्तु फिर भी वह युद्ध के लिये निकल पड़ा। मदासुर ने अपने धनुष से भगवान गणेश के ऊपर आघात का प्रयास किया, किन्तु तत्क्षण भगवान एकदन्त का तीव्र परशु उसके वक्ष स्थल पर प्रविष्ट हो गया। वह असुर पृथ्वी पर गिरा और मूर्छित हो गया। कुछ ही समय पश्चात सचेत होते ही परशु उठाकर देखना चाहा, पर वह दिव्य अस्त्र उसके हाथ से छूटकर गणेश जी के कर-कमलों में लौट गया। तब मदासुर को भान हुआ कि, ये सर्वसमर्थ परमात्मा हैं और वह आसुरी भाव त्यागकर भगवान एकदन्त के समक्ष दण्डवत हो गया। मदासुर ने भगवान एकदन्त से क्षमायाचना की और दृढ़ भक्ति का आशीर्वाद माँगा।
तब एकदन्त जी ने उस असुर से कहा कि - "जहाँ दैवी सम्पदा से पूर्ण मेरी पूजा, आराधना हो वहाँ तुम मत जाना। इसके विपरीत आसुरी-भाव के कर्मों का फल तुम भक्षण करते रहना।" एकदन्त से वरदान पाकर मदासुर पाताल चला गया और प्रसन्न देवगण, मूषक-वाहन की स्तुति कर अपने-अपने स्थान को प्रस्थान कर गये।
इसी प्रकार एक समय भगवान विष्णु ने भी भगवान एकदन्त की उपासना की थी, जिससे प्रसन्न हो एकदन्त जी ने विष्णु जी को मणि-रत्न चिन्तामणि दी थी। जिसे भगवान विष्णु जी ने महात्मा कपिल मुनि को प्रदान कर दी थी। जिसे गणासुर नामक असुर ने महर्षि कपिल से छीन लिया। तब भगवान एकदन्त ने गणासुर का शिरच्छेद कर कपिल मुनि को मणि वापस कर दी थी।