भगवान विष्णु अपनी लीला से नाना प्रकार के रूपों में अवतरित होते रहते हैं। मोहिनी अवतार भगवान विष्णु का एकमात्र स्त्री रूपी अवतार है। भगवान विष्णु ने समुद्रमन्थन के समय देवताओं को अमृत पान कराने के उद्देश्य से यह अवतार धारण किया था।
मोहिनी अवतार, जैसा कि इसके नाम से ही स्पष्ट है, मन को मोहने वाला अवतार है। इस रूप में भगवान ने दैत्यों के मन को मोहकर उनसे अमृत कलश ले लिया तथा देवताओं को अमृत पान कराया था। एक अन्य कथा के अनुसार भगवान विष्णु ने एक बार पुनः मोहिनी रूप धारण करके भस्मासुर नामक दैत्य से भगवान शिव की रक्षा की थी।
श्रीमद्भागवतमहापुराण में वर्णित मोहिनी अवतार के प्रसङ्ग के अनुसार एक समय दैत्यगुरु शुक्राचार्य ने घोर तपस्या के माध्यम से भगवान शिव को प्रसन्न कर लिया तथा उनसे सञ्जीवनी विद्या का वरदान प्राप्त कर लिया। सञ्जीवनी विद्या के द्वारा किसी भी मृत प्राणी को जीवित तथा अस्वस्थ्य को स्वस्थ्य किया जा सकता है। ज्यों ही दैत्यगुरु शुक्राचार्य ने सञ्जीवनी विद्या प्राप्त की त्यों ही दैत्यराज बलि ने सम्पूर्ण राक्षसों की सेना सहित देवताओं पर आक्रमण कर दिया। देवताओं एवं दैत्यों के मध्य घमासान युद्ध होने लगा, दैत्यों में जैसे ही कोई दैत्य घायल अथवा मृत होता वैसे ही शुक्राचार्य जी अपनी सञ्जीवनी विद्या की शक्ति से उन्हें पुनर्जीवित कर देते थे। अतः युद्ध के अन्त में दैत्यों की विजय हुयी तथा इन्द्रादि देवता पराजित हुये।
इस सङ्कट के समाधान हेतु समस्त देवगण ब्रह्मा जी के समीप गये तथा ब्रह्मा जी सभी देवताओं को लेकर भगवान विष्णु के समक्ष उपस्थित हुये। भगवान विष्णु ने कहा - "सञ्जीवनी विद्या का सामना करने का एक ही उपाय है, वह है अमृत, जिसे प्राप्त करने हेतु समुद्रमन्थन करना होगा।" विष्णु जी ने आगे कहा कि, "समुद्रमन्थन करने के लिये देवताओं के साथ असुरों की सहायता की आवश्यकता भी होगी।" यह सुनकर सभी चिन्तित हो गये कि असुर समुद्रमन्थन में हमारी सहायता क्यों करेंगे? विष्णु जी के निर्देशानुसार पहले देवराज इन्द्र ने असुरों को समुद्रमन्थन के लिये सहायता करने का निवेदन किया किन्तु असुरों ने अस्वीकार कर दिया। अन्ततः देवर्षि नारद की चतुरता से दैत्यराज बलि ने समुद्रमन्थन में सहायता करने हेतु अपनी स्वीकृति दे दी।
समुद्रमन्थन हेतु मन्दराचल पर्वत की मथानी तथा वासुकि नाग की रस्सी बनायी गयी, किन्तु पर्वत के मूल में कोई आधार न होने के कारण वह डूबने लगा, उस समय भगवान विष्णु ने कूर्म अवतार में प्रकट होकर मन्दराचल पर्वत को अपनी पीठ पर धारण कर लिया। समुद्रमन्थन से सर्वप्रथम हलाहल विष निकला, जिसे सृष्टि की रक्षा हेतु भगवान शिव ने पी लिया। तदनन्तर समुद्रमन्थन से कामधेनु नामक गाय, उच्चैःश्रवा नाम का अश्व, ऐरावत नाम का हाथी, कौस्तुभ नामक पद्मराग मणि, कल्पवृक्ष, अप्सराओं एवं देवी लक्ष्मी का प्राकट्य हुआ।
देवी लक्ष्मी का प्रादुर्भाव होने के पश्चात् भगवान विष्णु स्वयं भगवान धन्वन्तरि के रूप में अमृत कलश लेकर समुद्र से प्रकट हुये। दैत्यों ने अमृत कलश देखते ही छीन लिया तथा उसे लेकर भागने लगे। उस समय भगवान विष्णु ने अत्यन्त सुन्दर मोहिनी रूप धारण किया। मोहिनी अत्यन्त सुन्दर, सुश्रोणी, सुस्तनी एवं नील कमल के समान आभा वाली कामिनी थीं। उनके रूप के सामने अनेकों कामदेव भी लज्जित हो उठें ऐसी मनमोहक उनकी छवि थी।
मोहिनी के सौन्दर्य को देखकर समस्त असुर सम्मोहित हो गये। मोहिनी ने अपने सुन्दर, सुकोमल हाथों से असुरों एवं देवताओं को अमृतपान कराने का प्रस्ताव रखा जिसे असुरों ने तत्काल स्वीकार कर लिया तथा अमृत कलश मोहिनी को सौंप दिया। मोहिनी ने देवताओं एवं असुरों को पृथक-पृथक पँक्ति में बैठाया तथा असुरों को मोहित करके देवताओं को अमृत पान कराने लगीं।
असुरों के दल में एक अत्यन्त चतुर दैत्य था जिसका नाम स्वरभानु था। स्वरभानु को मोहिनी पर कुछ सन्देह हुआ तथा वह चुपचाप रूप परिवर्तित कर देवताओं की पँक्ति में जाकर बैठ गया। मोहिनी रूप में भगवान विष्णु देवताओं को अमृत पान कराते हुये स्वरभानु के निकट पहुँचे तथा जैसे ही वे उसे अमृतपान कराने लगे, उसी समय सूर्यदेव एवं चन्द्रदेव ने स्वरभानु को पहचान लिया तथा देवी मोहिनी को सावधान कर दिया। मोहिनी रूपी भगवान विष्णु तत्काल अपने वास्तविक चतुर्भुज रूप में प्रकट हो गये एवं सुदर्शन चक्र से स्वरभानु का मस्तक उसके धड़ से पृथक कर दिया किन्तु तब तक अमृत उसके कण्ठ से नीचे उतर चुका था जिसके प्रभाव से स्वरभानु का मस्तक एवं धड़ दो पृथक राक्षसों के रूप में अमर हो गया। उसके मस्तक का नाम राहु एवं धड़ का नाम केतु पड़ गया। इस प्रकार देवताओं को अमृतपान कराने हेतु भगवान विष्णु मोहिनी के रूप में अवतरित हुये थे।
धर्मग्रन्थों में प्राप्त वर्णन के अनुसार पूर्वकाल में भस्मासुर नामक एक दैत्य था जिसने भगवान शिव को अपनी कठिन तपस्या से प्रसन्न कर लिया तथा उनसे यह वरदान प्राप्त कर लिया कि वह जिस किसी के भी सिर पर हाथ रखेगा, वह भस्म हो जायेगा। भगवान शिव से वरदान प्राप्त करने के पश्चात् भस्मासुर निरंकुश हो गया तथा अपनी शक्ति का दुरुपयोग कर निर्बल प्राणियों को कष्ट देने लगा।
एक समय भस्मासुर अपनी शक्ति के मद में इतना अन्धा हो गया कि स्वयं देवों के देव महादेव शिव को भस्म करने हेतु कैलाश पर जा पहुँचा। भगवान शिव आगे-आगे और भस्मासुर उनके पीछे-पीछे भागने लगा। शिव जी अपने ही दिये हुये वरदान के कारण समस्या में पड़ गये। अन्ततः भगवान शिव ने भगवान विष्णु का स्मरण किया तथा इस समस्या का समाधान करने का निवेदन किया।
भगवान विष्णु एक रूपवती स्त्री का रूप धारण करके वहाँ प्रकट हुये जिनका नाम मोहिनी था। मोहिनी का सौन्दर्य अद्वितीय था, उनके मनोहक चेष्टाओं से भस्मासुर लालायित हो गया तथा उनके पीछे-पीछे चलने लगा। मोहिनीरूपी भगवान विष्णु ने भस्मासुर को अपने साथ नृत्य करने का प्रस्ताव दिया। कामवेदना से प्रभावित भस्मासुर मोहिनी के अनुरूप ही नृत्य करने लगा। नृत्य करते हुये मोहिनी जिस प्रकार की मुद्रायें प्रदर्शित करती, उसी प्रकार की मुद्रायें भस्मासुर भी प्रदर्शित करता। कुछ समय पश्चात् मोहिनी रूप में भगवान विष्णु अपने सिर पर हाथ रखकर नृत्य करने लगे। महिनी के रूप में सम्मोहित भस्मासुर ने भी उन्हीं की भाँति नृत्य करते हुये ज्यों ही अपने सिर पर हाथ रखा, उसी समय भगवान शिव के वरदान के अनुसार भस्मासुर स्वयं भस्म हो गया। इस प्रकार मोहिनी रूप में आकर भगवान विष्णु ने भगवान शिव की रक्षा की एवं भस्मासुर का अन्त किया।
भगवान विष्णु के मोहिनी अवतार के पिता अथवा माता के सम्बन्ध में कोई वर्णन प्राप्त नहीं होता है। किन्तु कुछ पौराणिक कथाओं के अनुसार मोहिनी एवं भगवान शिव से एक पुत्र की उत्पत्ति हुयी थी जिन्हें अय्यप्पन के नाम से जाना जाता है। भगवान अय्यप्पन की पूजा-अर्चना मुख्यतः दक्षिण भारत में की जाती है।
देवी मोहिनी को अत्यन्त रूपवती स्त्री के रूप में चित्रित किया जाता है, जो कोमलाङ्गी कमललोचनी एवं कलावती हैं तथा जो विभिन्न प्रकार के रत्नों से जड़ित स्वर्णाभूषण धारण किये हुये हैं। जिनके रूप-सौन्दर्य के समक्ष सहस्रों कामदेवों की शक्ति निम्न प्रतीत होती है। उनकी आभा नील कमल के समान है तथा वे अपने केशों में बेला के पुष्पों को गूथे हुये हैं। देवी मोहिनी को गले में सुन्दर हार, भुजाओं में बाजूबन्द, कमर में करधनी तथा पग में रुनझुन- रुनझुन का स्वर उत्पन्न करते नूपुरों को धारण किये हुये दर्शाया जाता है।
देवी मोहिनी बीज मन्त्र -
ॐ मोहिनीराजाय नमः।