मानव, अस्तित्व के आरम्भ से ही प्रकृति के रहस्यों को ज्ञात करने हेतु उत्सुक रहा है। प्रकृति प्रदत्त समस्त उपहारों को वह अपने उपयोग में लेने की प्रवृत्ति रखता है। एक दीर्घकाल तक चलने वाली प्राकृतिक क्रियाओं के फलस्वरूप पृथ्वी एवं पर्वतों के भीतर रत्नों के भण्डार निर्मित होते हैं। मनुष्य ने इनके प्रभावों का दीर्घकाल तक अध्ययन किया तथा वह इसका प्रयोग औषधि, सौन्दर्य एवं ग्रहजन्य बाधाओं के निवारण के रूप में भी कर रहा है। 'रत्नों' का वर्णन वेदों, पुराणों तथा अन्य धर्मशास्त्रों में विस्तार पूर्वक किया गया है। भारत में रत्नों पर मुक्त रूप से सैकड़ों ग्रन्थ लिखे गये हैं। रत्न समुच्चय, भाव प्रकाश आदि ग्रन्थों में रत्नों पर विस्तार से प्रकाश डाला गया है। आयुर्वेद के ग्रन्थों में रत्नों के चिकित्सीय प्रयोग वर्णित किये गये हैं। ज्योतिष के ग्रन्थों, यथा बृहत्संहिता आदि ग्रन्थों में रत्नों को ग्रहों से जोड़कर, उनकी उत्पत्ति तथा ज्योतिष में ग्रह बाधा निवारक की भूमिका पर विस्तार से चर्चा की गयी है।
प्रसिद्ध आयुर्वेद ग्रन्थ शारङ्गधर संहिता का कथन है कि, प्रत्येक वस्तु की अपनी पाँच अवस्थायें होती हैं, जैसे छः रस, पाँच गुण, दो वीर्य, तीन विपाक तथा प्रभाव। द्रव्य में विद्यमान विशेष प्रभाव इन्हीं अवस्थाओं पर निर्भर करता है। किन्तु इसका प्रभाव अवस्थाओं के थोड़ा सा भी परिवर्तित होने पर पर भिन्न हो जाता है, जिसका अनुभव दीर्घकालीन अनुसन्धान एवं अन्वेषण के पश्चात् ही होता है। ज्योतिष और आयुर्वेद में रत्नों के प्रभाव अत्यन्त गहनता से वर्णित हैं। शरीर पर ग्रहों एवं रत्नों के प्रभाव का विस्तृत वर्णन शास्त्रों में किया गया है। ज्योतिष शास्त्र के ग्रन्थों के अनुसार, सूर्य का सम्बन्ध माणिक्य, चन्द्रमा का सम्बन्ध मोती, मंगल का सम्बन्ध मूँगा, बुध का सम्बन्ध पन्ना, बृहस्पति का सम्बन्ध पुखराज, शनि का सम्बन्ध नीलम, शुक्र का सम्बन्ध हीरा, राहु का सम्बन्ध गोमेद तथा केतु का सम्बन्ध विडालाक्ष (लहसुनिया) से माना गया है। इन रत्नों के उपरत्न भी अत्यधिक प्रचलित हैं, जिनकी सङ्ख्या 84 बतायी गयी है। किन्तु मूल रूप से उपरोक्त 9 रत्न ही प्रमुख हैं, जिनका प्रयोग ज्योतिषी ग्रहों के उपचार हेतु करते हैं।
1.
माणिक्य
संस्कृत साहित्य में माणिक्य को रविरत्न, पद्मराग एवं कुरुविन्द आदि नाम से भी जाना जाता है। अंग्रेजी में इसे रूबी (Ruby) भी कहते हैं। वहीं फारसी भाषा में यह 'याकूत' के नाम से प्रसिद्ध है। यह हीरे के पश्चात् सर्वाधिक कठोर रत्नों की श्रेणी में आता है। इसका चटकीला रँग सदियों से राजाओं और समृद्ध लोगों को लुभाता रहा है। माणिक्य मूल रूप से ऐसे पर्वतों पर पाया जाता है, जिनमें ग्रेनाइट, मैंगनीज और क्वार्ट्ज की चट्टानें हों। भारत के उत्तर-पूर्वी राज्यों की सीमा निकट स्थित म्यान्मार अपने लाल माणिक्य के लिये दुनिया भर में प्रसिद्ध है। इसके अतिरिक्त श्रीलंका, अफ्रीका तथा अफगानिस्तान सहित दक्षिण भारत के करूर-कंगयाम क्षेत्र में माणिक्य पाया जाता है। आयुर्वेद प्रकाश नाम के ग्रन्थ के अनुसार, लाल कमल की पँखुड़ियों के समान दमक वाला, पारदर्शक, चिकना, बड़ा और सुडौल माणिक्य सर्वाधिक उत्तम गुणवत्ता का माना जाता है। वर्तमान समय में अधिकांशतः संश्लेषित माणिक्य ही बाजार में बेचे जा रहे हैं।

ज्योतिष में माणिक्य का प्रयोग
ज्योतिष शास्त्र में माणिक्य पर सूर्य ग्रह का अधिकार माना गया है। जन्म कुण्डली में सूर्य यदि शुभ स्थानों का स्वामी है तथा बलहीन अवस्था में होकर फल प्रदान करने में असमर्थ है, तो ऐसी स्थिति में माणिक्य धारण करना अत्यन्त लाभकारी सिद्ध हो सकता है। सूर्य, सिंह राशि का स्वामी है। अतः सिंह लग्न एवं राशि के जातक भी माणिक्य धारण कर सकते हैं। इसके अतिरिक्त माणिक्य रत्न का प्रयोग आयुर्वेद में क्षयरोग, लकवा, हार्निया तथा रक्त प्रवाह की अपूर्णता जैसे रोगों के उपचार में भी किया जाता है। मान्यताओं के अनुसार, माणिक्य आने वाले किसी संकट की पूर्व सूचना भी प्रदान कर देता है। किन्तु रत्न का प्रयोग सावधानी पूर्वक किया जाना चाहिये। रत्न औषधियों के समान होते हैं, जिसका निर्णय योग्य विद्वान ही कर सकते हैं।
धारण की विधि एवं प्रयोग
माणिक्य रत्न स्वर्ण, ताम्र एवं पञ्चधातु में धारण किया जा सकता है। क्योंकि यह सूर्य द्वारा शासित है, इसीलिये इसे धारण करने के लिये रविवार तथा सूर्य के नक्षत्र कृतिका, उत्तराफाल्गुनी और उत्तराषाढ़ा उपयुक्त नक्षत्र माने जाते हैं। सामुद्रिक शास्त्र के अनुसार, अनामिका उँगली पर सूर्य का नियन्त्रण होता है, इसीलिये माणिक्य इसी उँगली पर धारण करवाया जाता है। किन्तु इसे धारण करने से पूर्व शुद्धि प्रक्रिया अनिवार्य है। माणिक्य 3 रत्ती से कम का धारण नहीं करना चाहिये। गाय के कच्चे दूध अथवा गङ्गाजल में माणिक्य को कुछ समय तक डुबा कर रखना चाहिये। तदुपरान्त भगवान शिव का ध्यान करके एवं उनसे आज्ञा ग्रहण करके सूर्य के मन्त्र से माणिक्य को 108 बार अभिमन्त्रित कर धारण कर लेना चाहिये। यह मन्त्र निम्नलिखित है, जो अत्यन्त सरल भी है।
ॐ घृणि सूर्याय नमः।
यह ज्ञात करने के लिये कि क्या आपका रत्न माणिक्य है, कृपया रत्न कैलकुलेटर पर जायें।
2.
मोती रत्न
मोती नवरत्नों में एक महत्वपूर्ण रत्न है। साहित्य में सहस्रों वर्षों से उत्तम सङ्गत का उदाहरण देने के लिये मोती का उदाहरण दिया जाता है। स्वाती नक्षत्र का जल घोंघे के मुख में पड़कर 'मोती' और साँप के मुख में जाकर हलाहल बन जाता है। मोती को एक शुभ रत्न के रूप में दर्शाया जाता है। ज्योतिष के अनुसार, मोती को चन्द्रमा का रत्न माना जाता है। वैदिक साहित्य में वर्णित मोती एक दुर्लभ रत्न है, जो सागर की तलहटी में सहस्रों सीपों में से कुछ में ही प्राप्त होता है। बाजारवाद के युग में आजकल कृत्रिम रूप से मोती निर्मित किये जाते हैं, किन्तु प्राकृतिक रूप से निर्मित मोती एवं कृत्रिम रूप से निर्मित मोतियों के प्रकाशीय, आकृति एवं औषधीय गुणों में अत्यधिक अन्तर होता है। अधिकांश लोग सामान्य घोंघे के पेट से निकलने वाली गोली जैसे पदार्थ को ही मोती बताते हैं, किन्तु यह वास्तविक मोती नहीं होता। आयुर्वेद प्रकाश ग्रन्थ के अनुसार, श्रेष्ठ मोती के कुछ गुण वर्णित किये गये हैं। उदाहरणार्थ शुद्ध मोती गोल, चिकना, चन्द्रमा की भाँति उज्ज्वल, बड़ा तथा हल्का होना चाहिये। ये श्रेष्ठ मोती के गुण हैं, जो उसे रत्नों में श्रेष्ठता प्रदान करते हैं। फारस की खाड़ी का मोती बृहत्संहिता में सर्वाधिक उत्तम गुणवत्ता वाला बताया गया है। इसके अतिरिक्त श्रीलंका, वेनेज्युयेला, ऑस्ट्रेलिया एवं प्रशान्त महासागर के मोतियों को उत्तम माना गया है।

ज्योतिष में मोती का प्रयोग
ज्योतिष के ग्रन्थों में मोती को अत्यन्त प्रभावशाली रत्न माना गया है। यदि किसी भी जातक की जन्मकुण्डली में चन्द्रमा की स्थिति दुर्बल होने के कारण चन्द्रमा जातक को पीड़ा दे रहा हो, तो जातक को मोती धारण करना चाहिये। इसके अतिरिक्त यदि किसी जातक की लग्न राशि अथवा चन्द्र राशि कर्क हो, तो वह भी योग्य ज्योतिषी के परामर्श से मोती धारण कर सकता है। आयुर्वेद के ग्रन्थों के अनुसार, हृदय रोगियों के लिये मोती अति लाभकारी होता है। डायबिटीज, यूरिन इन्फेक्शन अर्थात मूत्र संक्रमण, ज्वर दोष निवारण में, पाचन शक्ति के विकास में मोती का उपयुक्त प्रयोग होता है। मोती का प्रयोग पिष्टी एवं भस्म के रूप में किया जा सकता है। मोती स्त्रियों के लिये विशेष रूप से लाभकारी होता है।
धारण की विधि एवं प्रयोग
मोती 2, 4, 6 एवं 11 रत्ती का सर्वोत्तम होता है। वहीं 7 या 8 रत्ती का मोती धारण करने से बचना चाहिये। किसी भी माह के शुक्ल पक्ष के सोमवार को दाहिने हाथ की कनिष्ठिका उँगली में मोती धारण किया जा सकता है। मोती रत्न को गाय के दूध से निर्मित पञ्चामृत एवं गङ्गाजल से धोकर निम्नलिखित मन्त्र से अभिमन्त्रित करने के पश्चात् चाँदी में धारण करना चाहिये।
ॐ सों सोमाय नमः।
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3.
मूँगा रत्न
मोती के समान मूँगा खनिज रत्नों की श्रेणी में नहीं आता है। यह एक प्रकार के आइसिस नोबाइल्स नाम के समुद्री जीवों की उपज है। यह जीव बिना पत्तों एवं टहनियों वाले वृक्ष के रूप में 'मूँगे' का निर्माण करते हैं। इसीलिये कुछ ग्रन्थों में मूँगे को लतामणि भी कहा गया है। इसके अतिरिक्त मूँगा रत्न, प्रवाल, विद्रुम तथा कोरल आदि नामों से भी प्रसिद्ध है। मूँगा अपने सामान्य रूप में एक फीट ऊँचा और एक इन्च चौड़ा होता है। इसका रँग लाल होता है, जो घिसने के पश्चात् अति सुन्दर दिखाई देता है। इसके कारण आभूषणों में मूँगे का प्रयोग सदियों से किया जाता रहा है। वैसे तो मूँगा समुद्र में सरलता से मिल जाता है, किन्तु उत्तम मूँगा ईरान की खाड़ी, अल्जीरिया और हिन्द महासागर में प्राप्त होता है। आयुर्वेद के ग्रन्थों में उत्तम मूँगे की पहचान के लिये वर्णन है कि, प्रवाल की उत्तम बेल वह है, जो उगते हुये सूर्य की किरणों के समान रक्तिम आभा लिये हो, समुद्री जल के भीतर उसकी उत्पत्ति हुयी हो तथा घिसने पर अपनी कान्ति को न छोड़ता हो।

ज्योतिष में मूँगे का प्रयोग
ज्योतिष शास्त्र के अनुसार, मूँगे का सम्बन्ध भूमिसुत मङ्गल से माना जाता है। यदि किसी जातक की जन्मपत्रिका में मङ्गल क्रूर हो, तो मूँगा पहनाया जा सकता है। यहाँ तक की मांगलिक दोषों में भी मूँगे द्वारा दोष निवारण शास्त्रसिद्ध है। इसके अतिरिक्त मूँगे का दान भी जन्मपत्रिका में मंगल की स्थिति के आधार पर किया जा सकता है। यदि किसी जातक की कुण्डली में चन्द्रमा एवं मङ्गल की युति है, तो वह चाँदी की धातु में भी मूँगा धारण कर सकता है। मेष एवं वृश्चिक लग्न व राशि के लिये मूँगा एक अच्छा विकल्प हो सकता है। इसके अतिरिक्त स्नायु रोग, गम्भीर कब्ज, मधुमेह, खुजली तथा चर्मरोगियों को मूँगा धारण करने से स्वास्थ्य लाभ होता है। मूँगे के द्वारा अनेक औषधियों का निर्माण भी होता है। बिना किसी योग्य ज्योतिषी की सलाह के मूँगा धारण नहीं करना चाहिये।
धारण की विधि एवं प्रयोग
जिन लोगों को मङ्गल के कारण समस्या हो रही हो और मूँगा पहनने की इच्छा रख रहे हैं, वे 9, 11 अथवा 12 रत्ती का मूँगा धारण कर सकते हैं। किन्तु 5 या 14 रत्ती मूँगा का धारण करने से उन्हें बचना चाहिये। मूँगा स्वर्ण, ताम्र अथवा पञ्चधातु में धारण किया जा सकता है। मूँगा ज्योतिषी के परामर्श के अनुसार तर्जनी अथवा अनामिका में धारण किया जा सकता है। मूँगे को शुक्ल पक्ष के मंगलवार को हनुमान जी को प्रणाम एवं सेवा आरती आदि करके गङ्गाजल से धोकर निम्नलिखित मन्त्र के 108 जाप करके धारण करना चाहिये।
ॐ अं अंगारकाय नमः।
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4.
पन्ना रत्न
प्राचीन साहित्य में पन्ना रत्न की अत्यन्त प्रशन्सा की गयी है। राजाओं एवं साहूकारों के यहाँ पन्ना रत्न विभिन्न कलाकृतियों के साथ प्रयुक्त होता रहा है। यह एक हरे रँग का अति सुन्दर रत्न है। इसमें हरे एवं नीले रँग की आभा (झाईं) भी देखने को मिलती है। वैज्ञानिक अनुसन्धानों के अनुसार, क्रोमिक ऑक्साइड के कारण ही इसका रँग हरा हो जाता है। आजकल सर्वोत्तम पन्नों के लिये कोलम्बिया की खदाने विशेष प्रसिद्ध हैं। इसके अतिरिक्त, ब्राजील और रूस के यूराल पर्वत में पन्ना की खदाने बहुतायत मात्रा में हैं। प्राचीन काल में पन्ना अधिकांशतः मिश्र की खदानों से निकलता था। अफ्रीका में जाम्बिया, श्रीलंका का सिलोनी पन्ना भी अत्यन्त ख्याति प्राप्त है। भारत में उदयपुर और अजमेर में पन्ना निकाला जाता है। आयुर्वेद प्रकाश नामक ग्रन्थ के अनुसार, शुद्ध पन्ना भारी, चमकदार, लोचदार, टेढ़ा-मेढ़ा न होकर, जल की भाँति स्वच्छ एवं पारदर्शी होता है। किन्तु ऐसा पन्ना मिलना अत्यधिक कठिन होता है। यदि पन्ना निर्दोष हो, तो इसकी कीमत हीरे और माणिक्य से भी अधिक होती है। असली पन्ना अत्यन्त भङ्गुर (भंगुर) प्रवृत्ति का होता है, इसीलिये इसका प्रयोग सावधानी पूर्वक करना चाहिये।

ज्योतिष में पन्ने का प्रयोग
वैदिक ज्योतिष में पन्ने पर बुध ग्रह का नियन्त्रण माना गया है। यदि कुण्डली में बुध ग्रह कारक होकर बलहीन हो रहा हो, तो पन्ना धारण कर बुध की अनुकूलता में वृद्धि की जा सकती है। पन्ना देखने में अत्यन्त सुन्दर होता है, इसीलिये पन्ना का प्रयोग रत्न के रूप में बहुतायत किया जाता है। मिथुन लग्न एवं कन्या लग्न के जातकों को पन्ना अवश्य धारण करना चाहिये। बुध का सम्बन्ध बुद्धि एवं व्यापार से भी माना जाता है। इसीलिये कार्यक्षेत्र में सफलता के लिये भी अनेक लोग पन्ना धारण करते हैं। आयुर्वेद से सम्बन्धित ग्रन्थों में पन्ना विषनाशक, घाव, बवासीर आदि रोगों में अत्यन्त लाभकारी माना गया है।
धारण करने की विधि एवं प्रयोग
पन्ना रत्न स्वर्ण, चाँदी, तथा पञ्चधातु में धारण किया जा सकता है। किसी भी माह के शुक्ल पक्ष के बुधवार को सूर्योदय से 2 घटी के भीतर पन्ना धारण करना चाहिये। पन्ना मध्यमा अथवा कनिष्ठिका उँगली में धारण किया जा सकता है। जिस दिन पन्ना धारण करें, उस दिन सर्वप्रथम पन्ने को गाय के कच्चे दूध एवं गङ्गाजल से शुद्ध करके भगवान विष्णु को प्रणाम करें। तत्पश्चात् निम्नलिखित मन्त्र का 108 बार जाप करके रत्न को अभिमन्त्रित कर लें।
ॐ बुं बुधाय नमः।
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5.
पुखराज रत्न
नवरत्नों में पुखराज का नाम भी बड़े आदर से लिया जाता है। पीतवर्णी आभा लिये हुये इस रत्न को संस्कृत में पीत स्फटिक, पुष्पराग और अंग्रेजी में टोपाज या पीला नीलमणि भी कहा जाता है। रासायनिक दृष्टि से यह एल्यूमीनियम सल्फेट फ्लूरो ऑक्साइड होता है। यह रत्न ग्रेनाइट और पैगमेटाइट चट्टानों पर आग्नेय पदार्थों की जलवाष्प तथा फ्लोरीन गैस की क्रिया से निर्मित होता है। सर्वोत्तम पुखराज ब्राजील की खानों से प्राप्त होते हैं। इसी प्रकार श्रीलंका में पाये जाने वाले पुखराज भी श्रेष्ठ माने जाते हैं। जहाँ भी पुखराज एवं माणिक्य की खान समीप होती है, वहाँ के पुखराज अति उत्तम एवं प्रभावी माने जाते हैं। प्राचीन ग्रन्थों के अनुसार, उत्तम पुखराज भारी, अमलतास के पुष्प के समान पीतवर्ण का, चिकना, धब्बे रहित तथा पारदर्शी होता है।

ज्योतिष में पुखराज का प्रयोग
पुखराज रत्न को बृहस्पति ग्रह का नियन्त्रक रत्न माना जाता है। गुरु के निर्बल प्रभाव में वृद्धि के लिये पुखराज पहनाया जाता है। पुखराज समृद्धि, दानशीलता, सांसारिक सुख एवं आयु में वृद्धि करने वाला होता है। यह बुद्धि को बढ़ाता है तथा भीतर के अज्ञात भय का नाश करके आकस्मिक मृत्यु से रक्षा करता है। किन्तु ज्योतिष शास्त्र में पुखराज धारण करने के लिये कुछ नियम वर्णित किये गये हैं। मीन राशि एवं धनु राशि के स्वामी बृहस्पति माने गये हैं। जिसका प्रभाव बढ़ाने के लिये इन लग्न के जातकों द्वारा पुखराज पहना जा सकता है। जिन लड़कियों का विवाह अथक प्रयास करने पर भी नहीं हो रहा होता है, ऐसे में विवाह कारक ग्रह के रूप में गुरु के कारकत्व में वृद्धि हेतु ज्योतिषी पुखराज रत्न पहनाने की सलाह देते हैं। प्राचीन मान्यताओं के अनुसार, विषैले जीवों के काटने पर यदि उस स्थान पर पुखराज रगड़ दिया जाये तो विष का नाश हो जाता है। गलगण्ड, अतिसार, थायराइड, पीलिया, मस्तिष्क प्रदाह आदि अनेक रोगों के उपचार में पुखराज का प्रयोग लाभकारी सिद्ध होता है।
धारण करने की विधि एवं प्रयोग
पुखराज रत्न को स्वर्ण अथवा पञ्चधातु में धारण करना चाहिये। रत्न का भार 6, 11 तथा 15 रत्ती नहीं होना चाहिये। पुखराज को किसी भी महीने के शुक्ल पक्ष के गुरुवार को धारण किया जा सकता है। रत्न को धारण करने के लिये सर्वप्रथम सूर्योदय से पूर्व उठकर शिव जी एवं विष्णु जी का पूजन करें। तदुपरान्त रत्न को गाय के कच्चे दूध, शुद्ध घी एवं गङ्गाजल से शुद्ध कर लें। इसके पश्चात् निम्नलिखित मन्त्र का 108 जाप द्वारा रत्न अभिमन्त्रित करके तर्जनी उँगली में धारण कर लें।
ॐ बृं बृहस्पतये नमः।
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6.
हीरा रत्न
हीरा एक ऐसा दुर्लभ रत्न है, जिसे रत्न शिरोमणि कहा जाये तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। किसी भी श्रेणी में सर्वश्रेष्ठ का उपमेय शब्द बहुधा 'हीरा' ही होता है। यह अत्यन्त सुन्दर रत्न तो है ही, ऊपर से यह सर्वाधिक कठोर रत्न भी है। इसे किसी अन्य पदार्थ से खुरेचा नहीं जा सकता है। अपकिरण सर्वाधिक होने के कारण इसके किनारों से झाँकने से इसमें से इन्द्रधनुष के रँगो की झिलमिलाहट देखने को मिलती है। हीरे की दमक सर्वाधिक होती है, क्योंकि इसमें से प्रकाश का पूर्ण आन्तरिक परावर्तन हो जाता है। इसके कारण हीरे का मूल्य बहुत अधिक होता है। प्राचीन भारत में तमिल नाडु की पेन्नार नदी, बुन्देलखण्ड के सोन नदी तथा खान नदी से हीरे निकलते थे। भारत का कोहिनूर हीरा अपनी सुन्दरता के लिये सम्पूर्ण विश्व में प्रसिद्ध रहा है। गरुड़ पुराण में हीरे से सम्बन्धित अनेक जानकारियाँ पढ़ने को मिलती हैं। जहाँ हीरे के रँग एवं प्रकृति के अनुसार उसे नर, नारी तथा नपुंसक हीरे के रूप में वर्गीकृत किया गया है। इसी प्रकार ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य एवं शूद्र प्रकृति के भी हीरे भी प्राप्त होते हैं।

ज्योतिष में हीरा का प्रयोग
भारतीय धर्म-साहित्य एवं ज्योतिष में हीरा अत्यन्त महत्वपूर्ण रत्न माना गया है। गरुड़ पुराण के अनुसार, हीरा धन, धान्य एवं पुत्र सम्पदा में वृद्धि करने वाला रत्न है। भौतिक भोग-विलास की वृद्धि के लिये हीरा रत्न अत्यन्त लाभकारी होता है। प्राचीन काल में धनी वर्ग के लोग अपनी विलासिता को बढ़ाने के लिये हीरा धारण किया करते थे। हीरा शुक्र ग्रह का कारक रत्न माना जाता है। ज्योतिष में शुक्र काम सुख का कारक ग्रह होता है। इसीलिये शुक्र ग्रह की शक्ति में वृद्धि हेतु हीरा धारण करवाया जाता है। वृषभ एवं तुला लग्न के जातक सरलता से हीरा धारण कर सकते हैं। आयुर्वेद ग्रन्थ भावप्रकाश के अनुसार, हीरे की भस्म से शरीर की दुर्बलता दूर होती है। आयुर्वेद में हीरे की भस्म द्वारा गम्भीर से गम्भीर रोगों का भी उपचार किया जा सकता है। हृदय रोग, राजयक्ष्मा, एनीमिया तथा नपुंसकता आदि रोगों में हीरा धारण करना अत्यन्त लाभकारी सिद्ध हो सकता है। किन्तु बिना योग्य ज्योतिषी की सलाह के हीरा धारण करने से बचना चाहिये।
धारण करने की विधि एवं प्रयोग
हीरे को स्वर्ण अथवा चाँदी में धारण किया जाता है। हीरा किसी भी माह के शुक्ल पक्ष के शुक्रवार को सुबह सूर्योदय के पश्चात् शुक्र की होरा में अनामिका उँगली में धारण किया जा सकता है। कुछ परिस्थितियों में मध्यमा उँगली में भी हीरा धारण करवाया जाता है। हीरे को धारण करने से पूर्व भगवान लक्ष्मी-नारायण का पूजन करना चाहिये तत्पश्चात् रत्न को पञ्चामृत, गुलाबजल तथा गङ्गाजल से धोकर निम्नलिखित मन्त्र का जाप करके धारण कर लेना चाहिये।
ॐ शुं शुक्राय नमः।
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7.
नीलम रत्न
नीलवर्ण की आभा से युक्त यह रत्न, अपने शीघ्र प्रभाव देने वाले गुण के कारण प्रसिद्ध है। अधिकांश व्यक्ति इस रत्न के प्रति आकर्षण होते हुये भी इससे भयभीत रहते हैं। माणिक्य की ही भाँति यह भी कुरुण्दम (Corundum) श्रेणी का रत्न होता है। इसे संस्कृत में इन्द्रनील, नीलमणि एवं शौरिरत्न भी कहा जाता है। भारत के कश्मीर में पाया जाने वाला नीलम सर्वाधिक सुन्दर एवं उच्च गुणवत्ता वाला नीलम माना जाता है। जिसके कारण इसकी कीमत बहुत महँगी आँकी जाती है। यह मोर की गर्दन के रँग का होता है। इसके अतिरिक्त बर्मा, श्रीलंका, तथा दक्षिण भारत के सलेम जिले में पाया जाने वाला नीलम भी उत्तम माना जाता है। प्राच्य ग्रन्थों के अनुसार नीलम, इन्द्रनील एवं जलनील दो प्रकार के होते हैं। वे जिनके भीतर श्याम आभा एवं बाहर नीलापन हो वे इन्द्रनील तथा वे जिनके भीतर श्वेत आभा एवं बाहर नीलापन हो वे जलनील कहलाते हैं। नीलम की एक विशेषता यह भी है कि, यह दूसरे पदार्थ की छाया न लेकर अपनी चमक से उसे आभाषित कर देता है।

ज्योतिष में नीलम का प्रयोग
ज्योतिष शास्त्र में नीलम रत्न अत्यन्त महत्वपूर्ण रत्न माना गया है। इस पर भगवान सूर्य के पुत्र एवं कर्मफल दाता शनिदेव का अधिकार होता है। जिसके कारण ये अपना फल तीव्र गति से दिखलाते हैं। तिब्बत के लामा योगी नीलम रत्न को अवचेतन की शान्ति के लिये उपयुक्त रत्न मानते हैं। वहीं भारतीय ज्योतिष नीलम को लेकर विशेष सतर्क रहने की सलाह देता है। मान्यता है कि, यदि नीलम फलदायी हुआ तो रातों रात व्यक्ति को फर्श से अर्श पर पहुँचा देता है। वहीं नीलम के दुष्प्रभाव की स्थिति में इसका विपरीत भी हो सकता है। इसीलिये नीलम बिना उचित परामर्श के धारण नहीं करना चाहिये। शनिदेव मकर एवं कुम्भ दो राशियों के राशिपति होते हैं। जन्मपत्रिका में शनिदेव की निर्बल स्थिति हो तथा शनि शुभ फल देने में समर्थ हों, तो नीलम धारण कर जन्मस्थ शनि का बल बढ़ाया जा सकता है। शनि की महादशा एवं शनि की साढ़े-साती के समय नीलम विशेष रूप से फलदायी होते हैं। स्नायुरोग जैसे गठिया, आर्थराइटिस, सियाटिका, मूत्राशय के रोग तथा किडनी आदि के गम्भीर रोगों के निवारण में नीलम उपयोगी सिद्ध होता हुआ देखा गया है।
धारण करने की विधि एवं प्रयोग
नीलम रत्न को चाँदी, स्वर्ण एवं पञ्चधातु में पहना जा सकता है। शनिदेव की शान्ति के लिये नीलम धारण करने वालों को किसी भी मास के शुक्ल पक्ष के शनिवार को अथवा शनि त्रयोदशी को नीलम धारण करना चाहिये। नीलम धारण करने से पूर्व शिव जी का विधिवत पूजन करके उनसे आज्ञा ग्रहण करनी चाहिये। तत्पश्चात् नीलम रत्न को गाय के दूध एवं गङ्गाजल से धोकर शनि देव के निम्नलिखित मन्त्र का 108 जाप करके मध्यमा उँगली में धारण करन चाहिये।
ॐ शं शनैश्चराय नमः।
यह ज्ञात करने के लिये कि क्या आपका रत्न नीलम है, कृपया रत्न कैलकुलेटर पर जायें।
8.
गोमेद रत्न
नवरत्नों में गोमेद का स्थान भी महत्वपूर्ण होता है। यह देखने में अत्यन्त सुन्दर होता है तथा यह अनेक प्रकार के रँगो में सरलता से प्राप्त हो जाता है। गौमूत्र की भाँति पीले एवं गहरे लाल रँग का गोमेद सर्वाधिक आकर्षक होता है। हीरे के पश्चात् गोमेद का अपकिरण सर्वाधिक होता है, जिसके कारण हीरे के पश्चात् सर्वाधिक चमक इसकी होती है। गोमेद गोल चिकनी चट्टानों, जो की तलछटों में पायी जाती हैं, में प्राप्त होता है। आस्ट्रेलिया, थाईलैण्ड और श्रीलंका में सर्वाधिक गोमेद पाये जाते हैं। श्रीलंका में पाये जाने वाले गोमेद अति सुन्दर होते हैं तथा स्थानीय लोग तो दीर्घकाल तक रँगहीन गोमेद को 'हीरा' ही समझते रहे थे। विभिन्न आभूषणों में गोमेद का प्रयोग किया जाता है। आयुर्वेद एवं पुराने ज्योतिष ग्रन्थों की माने तो गोमेद की पहचान करने के लिये, उसकी निर्मल गौमूत्र के समान कान्ति, चिकनेपन एवं भार पर ध्यान देना चाहिये।

ज्योतिष में गोमेद का प्रयोग
भारतीय ज्योतिष के ग्रन्थों में गोमेद पर राहु का नियन्त्रण माना गया है। राहु को भ्रम का कारक माना जाता है। जिन जातकों की जन्मपत्रिका में राहु का फल बहुत नकारात्मक हो गया हो, उन्हें गोमेद का दान करना चाहिये। वहीं राहु की शुभ स्थिति का अवलोकन कर, उसके सकारात्मक फल में वृद्धि के लिये गोमेद रत्न पहनाया जाता है। जिससे राहु के दुष्प्रभाव दूर होते हैं। चर्मरोग, अनिद्रा की स्थिति, प्रेतबाधा, कुष्ठ आदि जैसे भयङ्कर रोग कुण्डली में राहु की विपरीत स्थिति के कारण होते हैं। ऐसे में गोमेद के सावधानी पूर्वक प्रयोग से इन रोगों पर नियन्त्रण पाया जा सकता है।
धारण की विधि एवं प्रयोग
गोमेद रत्न को चाँदी अथवा सम्भव हो तो अष्टधातु में 6, 11 एवं 13 रत्ती या कैरट का धारण कर सकते हैं। किन्तु 7, 10 अथवा 16 रत्ती का गोमेद धारण न करें। किसी भी माह के किसी बुधवार या शनिवार को प्रातःकाल में भोलेनाथ एवं देवी दुर्गा का पूजन करने के उपरान्त रत्न को गङ्गाजल से धोकर निम्नलिखित मन्त्र का जाप कर रत्न को अभिमन्त्रित करें तथा दाहिने हाथ की मध्यमा उँगली में धारण कर लें।
ॐ रां राहवे नमः।
9.
लहसुनिया रत्न
प्राचीन संस्कृत साहित्य में लहसुनिया को वैदूर्य मणि एवं विडालाक्ष भी कहा जाता है। विडालाक्ष इसीलिये क्योंकि जैसे अन्धेरे में बिल्ली के नेत्र चमकते हैं, उसी प्रकार इस रत्न का रँग होता है। अंग्रेजी में इसे कैट्स आई ही कहा जाता है। इसमें पीलेपन के अतिरिक्त श्वेत धागे के समान धारियाँ भी होती है। घुमाने पर इस प्रकाशीय रेखा का स्थान परिवर्तित हो जाता है। इसका प्रमुख रासायनिक स्वरूप बेरेलियम एल्यूमीनियम ऑक्साइड है। भारत में तिरुवनन्तपुरम, श्रीलंका, चीन एवं ब्राजील में यह रत्न बहुतायत में मिलता है। काली और श्वेत प्रभा लिये हुये स्वच्छ एवं चमकदार लहसुनिये को उत्तम गुणवत्ता का माना जाता है।

ज्योतिष में लहसुनिया का प्रयोग
भारतीय ज्योतिष में वैदूर्य मणि, अर्थात लहसुनिया पर केतु का अधिकार माना जाता है। केतु ग्रह से उत्पन्न हुये दोषों का शमन करने में यह रत्न महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। अधिक क्रोध आना, अति तनाव, डिप्रेशन, रहस्यात्मक बने रहना, अकेलेपन में रहने की आदत, ये सभी केतु के कुप्रभाव में गिने जाते हैं। ऐसी स्थिति में, कुण्डली की स्थिति के अनुसार लहसुनिया का दान अथवा धारण करना चाहिये। लहसुनिया धारणकर्ता को आकस्मिक दुर्घटनाओं एवं गुप्त षडयन्त्रों से रक्षा भी प्रदान करता है। आयुर्वेद के अनुसार, पित्त के कुपित होने से उत्पन्न होने वाले रोगों में लहसुनिया विशेष प्रभाव दिखाता है।
धारण करने की विधि एवं प्रयोग
लहसुनिया रत्न को किसी भी माह के शनिवार अथवा मंगलवार को स्वर्ण अथवा चाँदी में धारण किया जा सकता है। 3, 5 अथवा 7 कैरेट का लहसुनिया धारण करना शुभ होता है। जबकि 2, 4, 11 एवं 13 रत्ती का लहसुनिया धारण नहीं करना चाहिये। जिस दिन रत्न धारण करना हो उस दिन सर्वप्रथम भगवान गणेश का विधिपूर्वक पूजन करके रत्न को पञ्चामृत से शुद्ध कर लें, तत्पश्चात उसे गङ्गाजल से धोकर निम्नलिखित मन्त्र द्वारा अभिमन्त्रित करके धारण कर लें।
ॐ कें केतवे नमः।